भारत का पड़ोसी देश नेपाल इन दिनों भारी राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक को न सिर्फ अपना पद छोड़ना पड़ा है, बल्कि सेना की सुरक्षा में पनाह लेनी पड़ी है। ये सब कुछ सोशल मीडिया पर लगे बैन से शुरू हुआ, जो धीरे-धीरे भ्रष्टाचार, युवा आंदोलनों और आर्थिक संकट जैसे मुद्दों पर फैल गया। नेपाल में GenZ के प्रदर्शन और हिंसा में 19 से ज्यादा लोग मारे गए।
नेपाल में फैली अराजकता के बीच भारत-नेपाल के संबंधों को लेकर भी चर्चा हो रही है। दरअसल, भारत और नेपाल के बीच की सीमा सिर्फ एक लाइन नहीं है, बल्कि सदियों पुराने रिश्तों का प्रतीक है। यहाँ रोटी-बेटी का बंधन है, सांस्कृतिक समानताएँ हैं और रोजमर्रा की जिंदगी में आपसी जुड़ाव है। लेकिन ये रिश्ते अब नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। तस्करी, अपराध, घुसपैठ और यहाँ तक कि आतंकवाद की साजिशें इस खुली सीमा को खतरे में डाल रही हैं। इस रिपोर्ट में हम भारत-नेपाल संबंधों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं।
सुगौली की संधि से बंधे हैं भारत-नेपाल
भारत और नेपाल के बीच की सीमा लगभग 1,751 किलोमीटर लंबी है। ये सीमा पाँच भारतीय राज्यों से गुजरती है – सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड। सिक्किम में ये 99 किमी, पश्चिम बंगाल में 100 किमी, बिहार में 729 किमी, उत्तर प्रदेश में 560 किमी और उत्तराखंड में 263 किमी फैली हुई है। ये सीमा ज्यादातर खुली है, यानी कोई बड़ी दीवार या फेंसिंग नहीं है, जो दोनों देशों के लोगों को आसानी से आने-जाने की आजादी देती है। लेकिन यही खुलापन अब सुरक्षा के लिए सिरदर्द बन गया है।
इस सीमा की कहानी शुरू होती है 1815-16 के एंग्लो-नेपाल युद्ध से। उस समय नेपाल की गोरखा सेना ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ रही थी। युद्ध में नेपाल की हार हुई और 2 दिसंबर 1815 को सुगौली संधि पर हस्ताक्षर हुए, जो 4 मार्च 1816 को लागू हुई। इस संधि ने नेपाल के एक-तिहाई हिस्से को ब्रिटिश भारत के हवाले कर दिया, जिसमें तराई के ज्यादातर इलाके शामिल थे। संधि में काली नदी (महाकाली) को पश्चिमी सीमा के रूप में तय किया गया, जो आज भी विवाद का कारण है।
सुगौली संधि के मुख्य प्रावधान क्या थे?
सबसे पहले नेपाल को अपनी लगभग एक-तिहाई जमीन ब्रिटिश भारत को सौंपनी पड़ी। इसमें तराई का बड़ा हिस्सा, कुमाऊँ-गढ़वाल, सिमला हिल्स, सिक्किम और दार्जिलिंग जैसे क्षेत्र शामिल थे। नेपाल की पश्चिमी सीमा को महाकाली नदी (काली नदी) से तय किया गया, पूर्वी सीमा को मेची नदी से। नेपाल को अपनी सेना को सीमित रखना पड़ा – सिर्फ 12,000 सैनिकों तक। साथ ही ब्रिटिश को काठमांडू में एक रेजिडेंट (प्रतिनिधि) रखने का अधिकार मिला, जो नेपाल के आंतरिक मामलों पर नजर रखता था।
नेपाल को ब्रिटिश के साथ व्यापारिक संबंध बनाने पड़े और विदेश नीति में ब्रिटिश की सलाह माननी पड़ी। एक दिलचस्प बात ये थी कि संधि में नेपाल को कोशी और गंडक नदियों के बीच के तराई इलाके ब्रिटिश को देने पड़े, लेकिन बाद में 1816 में एक अतिरिक्त संधि से नेपाल को कुछ तराई क्षेत्र वापस मिले, जो आज भी विवाद का कारण हैं।

इस संधि ने सीमा का बँटवारा किया, लेकिन इसमें कई खामियाँ थीं। नदियों के बदलते रास्ते और जंगलों ने सीमा को अस्पष्ट बना दिया। नतीजा ये हुआ कि कई गाँव और खेत बँट गए। जैसे, एक तरफ घर भारत में तो खेत नेपाल में। ऐसे कई इलाके हैं जहाँ परिवार बँटे हुए हैं। उदाहरण के लिए सुस्ता और कालापानी जैसे क्षेत्र आज भी विवादित हैं, जहाँ नदी के बदलते बहाव ने सीमा को उलझा दिया है। संधि के समय ब्रिटिश अधिकारियों ने नक्शे बनाए, लेकिन वे सटीक नहीं थे।
आजादी के बाद 1950 की भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि ने सुगौली को आधार बनाया, लेकिन सीमा मुद्दे अनसुलझे हैं। आज भी दोनों देश इन मुद्दों पर बातचीत कर रहे हैं, लेकिन समस्याएँ बनी हुई हैं। दरअसल, राजनीतिक दबाव से बात अटक जाती है।
बिहार पर सबसे ज्यादा असर, रोटी-बेटी के रिश्ते काफी अहम
भारत-नेपाल सीमा का सबसे बड़ा हिस्सा बिहार से लगता है – करीब 729 किमी। यहाँ के लोग नेपाल के तराई इलाकों से इतने जुड़े हैं कि इसे ‘रोटी-बेटी का रिश्ता’ कहा जाता है। मतलब, दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे के यहाँ रोटी खाते हैं और बेटियाँ ब्याहते हैं। भाषा भी मिलती-जुलती है – मैथिली, भोजपुरी और नेपाली के मिश्रण से। नेपाल के तराई में रहने वाले मैदानी लोग बिहार के लोगों से सांस्कृतिक रूप से बहुत करीब हैं।
रोजमर्रा की जिंदगी में ये जुड़ाव साफ दिखता है। नेपाली लोग भारत में इलाज के लिए आते हैं, क्योंकि नेपाल में स्वास्थ्य सुविधाएँ कम हैं। बिहार के अस्पतालों में नेपाली मरीज आम हैं। व्यापार भी खूब होता है – सब्जियाँ, अनाज और दैनिक सामान सीमा पार आते-जाते हैं। शादियाँ दोनों तरफ होती हैं, जो परिवारों को जोड़ती हैं। लेकिन हाल के सालों में ये रिश्ते कमजोर पड़ रहे हैं।
नेपाल में कोई भी तनाव होता है, तो किसानों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। दरअसल, किसान अपने खेतों तक जाने के लिए सीमा पार करते हैं, लेकिन उन्हें काफी दिक्कतें आती हैं। समस्या यह है कि कई किसानों का घर तो भारत में है, लेकिन उनके खेत और खलिहान नेपाल की जमीन पर हैं। ये किसान सालों से अपनी जमीन पर खेतीबाड़ी करते आए हैं, लेकिन अब सख्ती ने सबकुछ उलट-पुलट कर दिया है।
किसानों को खेतों तक पहुँचने के लिए घंटों पूछताछ से गुजरना पड़ता है। ट्रैक्टर, बैलगाड़ी तक ले जाना मना है, जिससे फसल कटाई, लाने और नई बुआई में भारी दिक्कत हो रही है। ऊपर से नेपाल सरकार ने जमीन बिक्री के नियम कड़े कर दिए हैं। अब भारतीय किसान अपनी जमीन केवल नेपाली नागरिकों को ही बेच सकते हैं और वो भी कम दाम पर।
नेपाल की तरफ से घुसपैठ भी बड़ा मुद्दा
नेपाल के नागरिकों द्वारा भारतीय सीमा क्षेत्र, खासकर बिहार के सीतामढ़ी, मधुबनी और सुपौल जैसे जिलों में अतिक्रमण की खबरें सामने आई हैं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो नेपाल के लोग भारतीय जमीन पर कब्जा कर रहे हैं और फर्जी दस्तावेज बनाकर आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशन कार्ड और वोटर आईडी जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल कर रहे हैं। ये लोग भारतीय नागरिकों की तरह सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है कि नेपाल से सटे सीमावर्ती गाँवों में ये गतिविधियाँ तेजी से चल रही हैं। कुछ लोग शादी के बहाने या अन्य तरीकों से भारत में बस रहे हैं और स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत से फर्जी दस्तावेज बनवा रहे हैं। इससे भारत की सुरक्षा और सीमा की अखंडता पर खतरा बढ़ रहा है। स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने कुछ मामलों में कार्रवाई शुरू की है, लेकिन समस्या अब भी गंभीर है। इस स्थिति ने भारत-नेपाल सीमा विवाद को और जटिल कर दिया है, खासकर सुगौली संधि से जुड़े क्षेत्रों को लेकर।
भारत-नेपाल सीमा पर फेंसिंग क्यों नहीं?
भारत-नेपाल सीमा पर फेंसिंग क्यों नहीं है? वजह साफ है – दोनों देशों के लोगों का आपसी मेल-जोल। अगर दीवार बना दी तो रोटी-बेटी का रिश्ता टूट जाएगा। सरकारें कहती हैं कि खुली सीमा दोनों देशों की दोस्ती का प्रतीक है। लेकिन ये खुलापन अपनी समस्याएँ लाया है। 1970-80 के दशक में सामान्य तस्करी होती थी – चीनी, कपड़े वगैरह। लेकिन अब ये संगठित अपराध बन गया है। सोना, नशीले पदार्थ, हथियार और यहाँ तक कि मानव तस्करी।
सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान की आईएसआई से है। आईएसआई नेपाल को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल कर रही है। नेपाल की खुली सीमा से घुसपैठ आसान है। आईएसआई ने नेपाल में अड्डे बना रखे हैं, जहाँ से भारत में आतंकवाद फैलाने की साजिशें रची जाती हैं। उदाहरण के लिए लश्कर ए तैयबा, खालिस्तान और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों के लोग नेपाल रूट से भारत आते हैं। हाल ही में दिल्ली पुलिस ने एक नेपाली नागरिक को गिरफ्तार किया, जो आईएसआई को भारतीय सिम कार्ड सप्लाई कर रहा था।
एक चौंकाने वाला मामला नेपाल के पूर्व सांसद मोहम्मद आफताब आलम का है। आलम पर आरोप था कि वो आईएसआई का एजेंट था और 2008 में रौताहट में बम ब्लास्ट कर कई लोगों की हत्या की। वो नेपाली कॉन्ग्रेस का नेता था, लेकिन जाँच में पता चला कि उसने चुनावी हिंसा में लोगों को जिंदा जलाया। 2024 में उन्हें उम्रकैद की सजा हुई, लेकिन 2025 में हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। ये मामला दिखाता है कि कैसे नेपाल में राजनीतिक लोग विदेशी ताकतों से जुड़ सकते हैं, जो भारत की सुरक्षा को खतरा है।
धर्मांतरण और जनसांख्यिकीय बदलाव भारत के लिए बड़ा खतरा
नेपाल की सीमा से एक और समस्या उभर रही है – धर्मांतरण। नेपाल में इस्लामी आबादी तेजी से बढ़ रही है, खासकर तराई इलाकों में। रिपोर्ट्स सामने आई हैं कि विदेशी खासकर पाकिस्तानी फंडिंग से मस्जिदें बन रही हैं और गरीब हिंदुओं का धर्म परिवर्तन हो रहा है। ये भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि सीमा के दोनों तरफ मुस्लिम आबादी बढ़ने से कट्टरवाद फैल सकता है।
नेपाल में हिंदू बहुल समाज था, लेकिन अब इस्लामी संगठन सक्रिय हैं, जो गौहत्या और बीफ खाने की माँग कर रहे हैं। भारत के सीमावर्ती इलाकों में भी ये असर दिखता है, जहाँ जनसांख्यिकीय असंतुलन राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती दे रहा है।
राजनीतिक उथल-पुथल का सीमा पर पड़ता है असर
नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का सीधा असर भारत पर पड़ता है। नेपाल में GenZ के प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई, जिसमें 19 लोग मारे गए। इससे भारत-नेपाल सीमा पर सुरक्षा बढ़ा दी गई है। व्यापार प्रभावित हो रहा है – भारत से नेपाल को 7.32 अरब डॉलर का आयात रुक सकता है। ऐसे में नेपाल की अस्थिरता भारत के हित में कतई नहीं है।












