‘भारत रूसी युद्ध मशीन को ईंधन दे रहा है’, ‘भारत रूस-यूक्रेन युद्ध से मुनाफाखोरी कर रहा है’, ‘भारत रूस से नजदीकियाँ बढ़ा रहा है’- ट्रंप प्रशासन लगातार इस तरह के आरोप लगाकर भारत को रूसी तेल की खरीद को लेकर बदनाम करता रहा है
इन आरोपों के पीछे मुख्य वजह भारत की ओर से रूस से रियायती दरों पर तेल खरीदना है। भारत इस तेल को रिफाइन कर उन यूरोपीय देशों को बेच रहा है, जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाए हैं। इस प्रक्रिया के जरिए वैश्विक ऊर्जा संकट को कम करने में मदद मिली है। पहले अमेरिका ने भारत की इस भूमिका की सराहना की थी, लेकिन अब ट्रंप प्रशासन अचानक भारत से नाराज हो गया है।
अमेरिका खुद रूस-यूक्रेन युद्ध से काफी मुनाफा कमा रहा है, लेकिन भारत को खुलेआम ‘विलेन’ बना रहा है। हाल ही में अमेरिका के ट्रेज़री सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने भारत की रूसी तेल खरीद और यूरोपीय देशों को बिक्री को ‘आर्बिट्राज’ कहा। उन्होंने दावा किया कि भारत ने $16 बिलियन (लगभग ₹1.32 लाख करोड़ रुपए) का अतिरिक्त मुनाफा कमाया।
बेसेंट ने घोषणा की, “हम भारत पर सेकेंड्री टैरिफ लगाने की योजना बना रहे हैं क्योंकि भारत रूस से प्रतिबंधित तेल खरीद रहा है।” उन्होंने कहा कि 2022 से पहले भारत रूस से 1% से भी कम तेल खरीदता था, लेकिन अब यह 42% तक पहुँच गया है।
उनके अनुसार, “भारत सिर्फ मुनाफाखोरी कर रहा है और भारत के कुछ सबसे अमीर परिवारों ने इस युद्ध से ₹1.32 लाख करोड़ (लगभग $16 बिलियन) का अतिरिक्त लाभ कमाया है।”
बेसेन्ट के ‘भारत के प्रतिबंधित रूसी तेल की खरीदा’ वाला बयान तब आया जब यूरोपीय संघ के नियमों (Council Regulation 833/2014) के अनुसार, परिष्कृत कच्चा तेल अब ‘रूसी’ नहीं माना जाता। इस लिहाज से भारत जो तेल यूरोप को बेचता है, वह भारत में रिफाइन किया गया उत्पाद होता है, न कि रूसी तेल।
इसके बावजूद ट्रंप प्रशासन भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध के लिए दोषी ठहराने पर तुला हुआ है। यहाँ तक कि वे यह भी भूल गए कि G7 देशों द्वारा तय की गई $60 (लगभग ₹4,980 रुपए) प्रति बैरल की मूल्य सीमा का उद्देश्य रूसी तेल की आपूर्ति बनाए रखना था, ताकि मास्को को जरूरत से अधिक मुनाफा न हो।
व्हाइट हाउस के ट्रेड सलाहकार पीटर नवारो ने भी हाल ही में फाइनेंनशियल टाइम्स में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने भारत को युद्ध का मुख्य दोषी बताया और चीन, यूरोप और अमेरिका को क्लीन चिट दे दी।
नवारो ने लिखा, “भारत रूसी तेल के लिए वैश्विक क्लियरिंगहाउस की तरह काम करता है, प्रतिबंधित कच्चे तेल को उच्च मूल्य वाले निर्यात में बदलता है और मास्को को डॉलर देता है।” उन्होंने यह भी कहा कि भारत के समर्थन से रूस यूक्रेन पर हमला जारी रखता है। इसके कारण अमेरिकी और यूरोपीय टैक्सपेयर्स अरबों डॉलर खर्च करने को मजबूर हैं।
नवारो और बेसेन्ट ने भारतीय कंपनियों को बदनाम किया, लेकिन यह नहीं बताया कि अमेरिकी तेल कंपनियों ने 2022 से अब तक रिकॉर्ड मुनाफा कमाया है। तरल प्राकृतिक गैस (LNG) निर्यात, हथियारों की बिक्री और युद्ध से जुड़े कई अवसरों पर अमेरिका इस युद्ध का सबसे बड़ा लाभार्थी बन गया है।
अगर ट्रंप वास्तव में उन लोगों को ‘सजा’ देना चाहते हैं जो रूसी युद्ध मशीन को ईंधन दे रहे हैं तो उन्हें यूरोप से अमेरिका पर ही प्रतिबंध लगाने की माँग करनी चाहिए।
2022 में युद्ध शुरू होने के बाद यूरोप ने रूस से गैस पर अपनी 40% निर्भरता कम कर दी। रूस की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए कई प्रतिबंध लगाए गए, ये सोचकर कि इससे मास्को पश्चिम की शर्तों को मान लेगा और युद्ध खत्म कर देगा।
लेकिन इस योजना के अनुसार सब कुछ नहीं हुआ। अमेरिका ने इस गैस आपूर्ति की कमी को पूरा किया और 2023 में यूरोपीय संघ का शीर्ष LNG आपूर्तिकर्ता बन गया।
अमेरिका ने अपनी सस्ती LNG यूरोप को चार गुना से भी अधिक कीमत पर बेची। इसके पीछे इसने ‘युद्ध के कारण आई रुकावटों’ का हवाला दिया। यूरोप की तत्काल जरूरतों का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने भारी मुनाफा कमाया।
गौरतलब है कि 2022 में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अमेरिका को इन बढ़ी हुई कीमतों के लिए फटकार लगाई थी। यहाँ तक कि एक वरिष्ठ यूरोपीय अधिकारी ने भी कहा था कि अमेरिका ‘इस रूस-यूक्रेन युद्ध से सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाला देश है।’
2022 में अमेरिकी तेल और गैस कंपनियाँ जैसे कि शेवरॉन और एक्सॉनमोबिल ने युद्ध से पहले वर्ष 2021 की तुलना में 125% की दर से रिकॉर्ड मुनाफा दर्ज किया। उसी वर्ष, अमेरिका ने यूरोप को LNG की 50% आपूर्ति की और 12% तेल भी दिया।
रूस पर लगाए गए बहिष्कार, प्रतिबंध और यूरोपीय संघ की मूल्य सीमा के कारण यूरोप को रूसी तेल और गैस की आपूर्ति में भारी गिरावट आई। इस खाली जगह का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने अपनी पकड़ मज़बूत की और इसी के ज़रिए NATO में अपना प्रभुत्व भी बढ़ाया।

2023 में अमेरिका यूरोप का सबसे बड़ा LNG आपूर्तिकर्ता बना रहा। उस वर्ष यूरोप की ओर से आयात की गई कुल LNG का लगभग 48% हिस्सा अमेरिका से आया, जिसमें फ्रांस, स्पेन, नीदरलैंड और ब्रिटेन प्रमुख आयातक देश रहे।
2024 में यूरोपीय संघ (EU) की गैस आपूर्ति में नॉर्वे ने 33% हिस्सेदारी के साथ अग्रणी भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही अमेरिका ने भी 16.5% हिस्सेदारी दर्ज की। इसी वर्ष, यूरोपियन यूनियन ने 100 अरब घन मीटर (bcm) से अधिक LNG आयात किया और अमेरिका 45% LNG आपूर्ति कर एक बार फिर से सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया।

ऊर्जा क्षेत्र से अलग, अमेरिका को रूस-यूक्रेन युद्ध में रक्षा निर्यात के जरिए भी काफी मुनाफा हुआ है। अमेरिका ने यूक्रेन को $19 बिलियन (₹1.58 लाख करोड़ रुपए) से अधिक के हथियार भेजे। इससे लॉकहीड मार्टिन और रेथियॉन जैसी अमेरिकी रक्षा कंपनियों के शेयरों में उछाल आया। वास्तव में, जर्मन रक्षा कंपनी राइनमेटल को भी इस युद्ध से मुनाफा हुआ। युद्ध शुरू होने के बाद से इस कंपनी के शेयरों की कीमत 14 गुना तक बढ़ चुकी है।
ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि मीअमेरिका ने बेशर्मी के साथ ये स्वीकारा है कि यूक्रेन को दी जा रही सैन्य सामग्री से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली है। पहले अमेरिका ने $95 बिलियन (₹7.88 लाख करोड़ रुपए) का अतिरिक्त रक्षा बजट पेश किया था, जिसमें से $60.7 बिलियन (लगभग ₹5.04 लाख करोड़ रुपए) यूक्रेन को आवंटित किए गए। इसे पीछे वादा किया गया कि इस बजट का 64% हिस्सा अमेरिकी रक्षा उद्योग को दोबारा उठाने में काम आएगा।
अब, डोनाल्ड ट्रंप यूरोपीय देशों के माध्यम से यूक्रेन को 10% प्रीमियम के साथ हथियार बेच रहे हैं। यह रणनीति खासतौर पर अमेरिका के खजाने को भरने के लिए अपनाई गई है, जबकि रूस और यूक्रेन के आम नागरिक युद्ध में जान गँवा रहे हैं। ट्रंप ने यूक्रेन को सुरक्षा गारंटी देने में अमेरिका की भूमिका के लिहाज से एक कीमत भी तय कर दी है।
असल में, अमेरिकी सेना अब यूक्रेन के लिए एक प्रकार की ‘भाड़े की सेना’ की तरह काम कर रही है। लेकिन अमेरिका चाहता है कि दुनिया यह माने कि युद्ध से लाभ कमाने वाला देश वॉशिंगटन नहीं, बल्कि नई दिल्ली है।
ट्रंप प्रशासन की हिपोक्रेसी की कोई सीमा नहीं है। अमेरिका का पाखंडी रवैया वैसे तो हैरान करने वाला नहीं है, लेकिन ट्रंप के अधिकारियों ने इसे खुले तौर पर स्वीकार कर अपने दोहरे चरित्र की एक नई मिसाल कायम कर दी है।
यही अमेरिकी ट्रेज़री सचिव स्कॉट बेसेन्ट, जिन्होंने भारत पर रूस-यूक्रेन युद्ध से मुनाफाखोरी का आरोप लगाया था, वे अमेरिका की उस रणनीति पर गर्व करते देखे जा सकते हैं जिसमें यूरोप के जरिए यूक्रेन को को हथियार बेचे जा रहे हैं और जिन पर राष्ट्रपति ट्रंप 10% अतिरिक्त शुल्क ले रहे हैं।
बेसेन्ट ने फॉक्स न्यूज़ को बताया, “हम यूरोपीय देशों को हथियार बेच रहे हैं, वे उन्हें यूक्रेन को भेज रहे हैं और राष्ट्रपति ट्रंप इन हथियारों पर 10 प्रतिशत का प्रीमियम ले रहे हैं। शायद यही 10 प्रतिशत एयर कवर की लागत को पूरा कर देगा।”
US Treasury Secretary who accuses India of “profiteering” from its oil purchase from Russia, is gloating over the fact that the US is selling weapons to Europe intended for Ukraine with a 10% markup.
Selling weapons that kill people and profiteering from it vs India buying… pic.twitter.com/0ImPlsCgYZ— Yusuf Unjhawala 🇮🇳 (@YusufDFI) August 21, 2025
यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की की ओर से अमेरिका से $100 अरब डॉलर (₹8.3 लाख करोड़ रुपए) की कीमत के हथियार खरीदने के प्रस्ताव को लेकर कई खबरें सामने आई हैं। इस सौदे से डोनाल्ड ट्रंप को $10 अरब (₹83,000 करोड़ रुपए) का कमीशन मिलेगा, इसके अलावा हथियार बेचने वाले अमेरिकी कंपनियों की ओर से दिया जाने वाला टैक्स भी इसमें शामिल हैं।
अमेरिका यूरोप को LNG और तेल बेचकर काफी मुनाफा कमा रहा है। साथ ही बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई, अपने अनुसार, कीमतों में बदलाव किए और रणनीतिक भू-राजनीतिक लाभ लिए। रूस से आयात में आई गिरावट के बाद अमेरिका एक प्रमुख ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बन गया। इससे अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों की आय में वृद्धि हुई है और घरेलू उद्योग को भी मजबूती मिली है।
हालाँकि अमेरिका ने प्रतिबंधों के चलते रूसी कच्चे तेल का आयात कम किया है, लेकिन वह अब भी रूस के साथ कई क्षेत्रों में व्यापार कर रहा है। यूक्रेन पर रूस के हमले के तीन साल बाद भी अमेरिका ने मास्को से अपने व्यापारिक संबंध पूरी तरह नहीं तोड़े हैं।
जनवरी 2022 से अब तक अमेरिका ने $24.5 अरब (लगभग ₹2.03 लाख करोड़) से अधिक मूल्य के रूसी सामान आयात किए हैं। इस वर्ष अकेले अमेरिका ने $1.27 अरब (₹1.05 लाख करोड़) के उर्वरक, $624 मिलियन (₹5,179 करोड़) के यूरेनियम और प्लूटोनियम और लगभग $878 मिलियन (₹7,287 करोड़) के पैलेडियम खरीदे हैं।
2024 में जनवरी से नवंबर तक पैलेडियम और एल्युमिनियम जैसे गैर-लौह धातुओं का आयात $876.5 मिलियन (लगभग ₹72,754 करोड़) रहा। अकार्बनिक रसायनों का आयात $683 मिलियन (लगभग ₹56,089 करोड़), बिजली उत्पादन मशीनरी $79 मिलियन (लगभग ₹6,557 करोड़) और कॉर्क तथा लकड़ी उत्पाद लगभग $64 (लगभग ₹5,312 करोड़) मिलियन रहा।
अन्य वस्तुओं में $80.81 मिलियन (लगभग ₹6,710 करोड़) मूल्य के परमाणु रिएक्टर और मशीनरी, पशु आहार, लोहा और इस्पात, और तेल बीज शामिल थे। हालाँकि इनका कुल आयात में हिस्सा अपेक्षाकृत कम था।
अमेरिकी सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 2024 में अमेरिका से रूस को निर्यात घटकर $528.3 मिलियन (लगभग ₹43,850 करोड़) रह गया, जबकि रूस से आयात इससे कहीं अधिक रहा।
2023 में यह निर्यात लगभग $598.8 मिलियन (लगभग ₹49,700 करोड़) था। ये आँकड़े साफ तौर पर दिखाते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बावजूद अमेरिका और रूस के बीच व्यापार कभी पूरी तरह रुका नहीं।
दरअसल, 16 अगस्त 2025 को अलास्का में अमेरिकी राष्ट्रपति से मुलाकात के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने खुलासा किया कि हाल के महीनों में अमेरिका-रूस द्विपक्षीय व्यापार में 20% से अधिक की वृद्धि हुई है। इससे ट्रंप के उस दावे की पोल खुल गई जिसके तहत वह यह कहते फिर रहे थे कि अमेरिका रूस पर युद्ध समाप्त करने का दबाव बना रहा है।
ट्रंप, मार्को रुबियो, पीटर नवारो और स्कॉट बेसेन्ट, इनमें से कोई भी चीन की उतनी आलोचना नहीं करता जितनी भारत की, जबकि रूस से सबसे अधिक तेल खरीदने वाला देश भारत नहीं, बल्कि चीन है। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने हाल ही में भारत और चीन को लेकर अमेरिका के दोगलेपन को स्वीकार किया और वॉशिंगटन की इश हिपोक्रेसी को सही भी ठहराया।
फिर भी, भारत का घरेलू जरूरतों के लिए रूसी तेल खरीदना और वैश्विक ऊर्जा कीमतों को स्थिर बनाए रखना गलत ठहराया जाता है, जबकि लोगों को मारने के लिए अमेरिका का हथियार बेचकर युद्ध से मुनाफा कमाना उसे शांतिदूत, मसीहा और संरक्षक समेत क्या कुछ नहीं बना देता।
शायद भारत का मई में भारत-पाकिस्तान के संघर्ष विराम का श्रेय ट्रंप को न देना, उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित न करना और भारतीय कृषि और डेयरी बाजार को अमेरिका के लिए न खोलना आदि बातें अब टैरिफ और भारत-विरोधी बयानबाजी के तौर पर सामने आ रही हैं।
यहाँ इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि अमेरिका अक्सर संघर्ष और विवाद से ही लाभ कमाता है। असल में वाशिंगटन के लिए अराजकता एक सीढ़ी है, जिससे वह अपने रणनीतिक हितों को साधते हुए मुनाफा कमाता है।
ट्रंप प्रशासन को लगता है कि वह भारत पर दबाव बनाकर उसे अमेरिका-हितैषी व्यापार समझौते के लिए मजबूर कर सकता है, ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण किया। लेकिन भारत अमेरिका की धमकियों, टैरिफ, प्रतिबंधों और झूठी बयानबाज़ी के आगे झुकने को तैयार नहीं है।
अमेरिका के दबाव में झुका यूरोपीय संघ, ट्रंप की दबंगई का विरोध करने पर भारत को दोष
ऑपइंडिया ने पहले भी इस पर रिपोर्ट किया है कि कैसे US-EU ट्रेड डील को लेकर यूरोपीय संघ ट्रंप के दबाव में आया और अपने हितों से समझौता किया। इस समझौते में अमेरिका ने अधिकतम मुनाफा लिया, जबकि यूरोप को बहुत कम मिला।
ट्रंप ने भारत की तरह ही यूरोप को भी टैरिफ की धमकी दी थी, लेकिन भारत के उलट, यूरोपियन यूनियन ने अपनी आत्म-सम्मान की कीमत पर ट्रंप की ‘गुड बुक्स’ में रहने का विकल्प चुना।
27 जुलाई 2025 को यूरोपीय संघ ने अमेरिका के साथ व्यापार समझौता किया, जिसमें उसने अपने निर्यात पर टैरिफ को 27.5% से घटाकर 15% कर दिया, जबकि अमेरिका से यूरोप को होने वाले निर्यात पर कोई टैरिफ नहीं लगाया गया।
इसके अलावा, यूरोपीय संघ ने अमेरिका से $750 अरब (₹62.25 लाख करोड़) की ऊर्जा खरीद, $600 अरब (₹49.8 लाख करोड़) के निवेश और अमेरिकी सैन्य हथियारों की खरीद का वादा भी किया।
ट्रंप की टैरिफ बढ़ाने और यूरोप की अमेरिकी बाजार और सुरक्षा पर निर्भरता का फायदा उठाने वाली धमकी भरी रणनीति ने यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन को इस एकतरफा शर्तों को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। इसका खामियाजा यूरोपीय उद्योगों, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल और फार्मास्युटिकल क्षेत्रों को उठाना पड़ा।
ये ठीक वैसे ही था जैसे अप्रैल में भारत के मामले में देखा गया था। ट्रंप ने यूरोपीय संघ को भी 1 अगस्त 2025 तक व्यापार समझौते की समयसीमा देकर 30% टैरिफ लगाने की धमकी दी थी। ट्रंप ने यूरोपीय फार्मा उत्पादों पर भी 200% टैरिफ लगाने की धमकी भी दी थी।
यूरोपीय संघ के आत्मसमर्पण ने ट्रंप को इस बात से ओत-प्रोत कर दिया कि उनकी टैरिफ रणनीति हर देश पर काम करेगी। लेकिन भारत ने उनकी गलतफहमी को चूर-चूर कर दिया।
अगर भारत ने अमेरिकी कंपनियों के लिए अपने बाजार खोल दिए होते, रूस को छोड़कर व्हाइट हाउस को खुश किया होता, ट्रंप को भारत-पाकिस्तान संघर्षविराम का श्रेय दिया होता या उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित कर दिया होता तो शायद भारत को अमेरिका के कड़े तेवर का सामना नहीं करना पड़ता।
अमेरिका लगातार रूस-यूक्रेन युद्ध से अपने मुनाफे को जरूरी बताकर दुनिया के सामने रखता है, जबकि भारत पर युद्ध से लाभ उठाने का आरोप लगाता है।
ये लेख मूल रूप से अंग्रेजी में श्रद्धा पांडे ने लिखा है। इसे पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।