2020 के दिल्ली दंगे में कई निर्दोष हिंदू नागरिकों को बिना सबूत और सही जाँच के दंगों में फँसाया गया। इन आरोपों के आधार पर पुलिस ने कई गिरफ्तारियाँ कीं, लेकिन बाद में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ये मामले झूठे थे और पुलिस ने बिना ठोस सबूत के आरोपितों को फँसाया।
कड़कड़डूमा कोर्ट ने इन लोगों को 25 अगस्त 2025 को बरी कर दिया, लेकिन इन निर्दोष हिंदू लोगों का जीवन हमेशा के लिए प्रभावित हो गया। किसी को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया, किसी को एक के बजाय 4 केस में अपराधी बना दिया, तो किसी की जमा-पूँजी केस लड़ते-लड़ते खत्म हो गई।
नौकरी गई, लाखों खर्च हुए, जीवन बर्बाद हुआ
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार, 29 वर्षीय ईशु गुप्ता एक प्राइवेट बैंक कर्मचारी थे, जो 2020 में दंगों से जुड़े मामले में गिरफ्तार हुए थे। उनकी गिरफ्तारी के बाद न केवल उनकी बैंक की नौकरी चली गई, ब्लैकलिस्ट हो गए और पूरा करियर भी बर्बाद हो गया। ईशु गुप्ता बताते हैं कि जेल में रहते हुए जिंदगी उलट-पुलट हो गई, कहीं नौकरी नहीं मिली। इस झूठे केस को लड़ते-लड़ते लाखों रुपए खर्च हो गए। ईशु गुप्ता ने बताया कि पुलिस उनके अलावा 10 और लोग चाहती है। पुलिस ने ईशु को धमकाते हुए कहा कि सभी केस में फँसा दूँगा।
इसके अलावा, 31 वर्षीय प्रेम प्रकाश भी इसी दंगे में निर्दोष पाए गए थे। प्रेम प्रकाश ने बताया कि उन्हें दंगों में शामिल होने का आरोप लगाकर 4 महीने तक जेल में बंद रखा। पुलिस ने बिना जाँच-परख कई केस बना दिए। लेकिन कोर्ट में कोई सबूत तक नहीं दे पाए। इस केस में उनके 3 लाख से ज्यादा खर्च हुए।
दिल्ली दंगे केस में एक अन्य निर्दोष हिंदू मनीष शर्मा है, जिन्हें कोर्ट ने बरी किया था। मनीष शर्मा ने बताया कि पुलिस ने बिना कुछ बताए गिरफ्तार किया। इसके बाद 1 साल तक वे जेल में बंद रहे। पुलिस ने दिल्ली दंगों को सही साबित करने के लिए झूठी कहानी गढ़ी थी।
वकीलों की राय: पुलिस की लापरवाही और जाँच प्रक्रिया में खामियाँ
वकील प्रवीण यादव और अशोक कुमार का मानना है कि दिल्ली पुलिस ने जानबूझकर गरीब और कमजोर लोगों को निशाना बनाया था। वकील ने बताया कि पुलिस को सब पता था कि इन लोगों के पास न तो पर्याप्त साधन हैं और न ही कोई ताकत, इसलिए इन्हें आसानी से फँसाया जा सकता था। अशोक कुमार ने भी कहा कि अगर पुलिस सही तरीके से जाँच करती तो इतने निर्दोष लोग सालों तक जेल में नहीं होते।
इसी मसले में पुलिस ने जितने गवाह और सबूत कोर्ट में पेश किए थे वो विरोधाभास पाए गए। कोर्ट ने हेड कॉन्स्टेबल विकास की गवाही को भी बेबुनाद बताया। कोर्ट ने कहा कि पुलिस की मदद करने के लिए आरोपितों को पहचानना सही नहीं है। कोर्ट ने पुलिस के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि इस तरह की जाँच से कानून और न्याय व्यवस्था पर लोगों का विश्वास कमजोर होता है।