पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने कहा हो या न कहा हो कि ‘अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक हो सकता है, अमेरिका का दोस्त होना ज्यादा घातक है।’ लेकिन यह भावना सच है। अमेरिका की दुश्मनी और दोस्ती, दोनों ही दूसरे देशों के लिए हानिकारक है। जापान और दक्षिण कोरिया इसका उदाहरण हैं कि कैसे वाशिंगटन की नीतियाँ दूसरे देशों की संप्रभुत्ता और स्थिरता के लिए नुकसानदायक हैं। फिर चाहे वे सहयोगियों हों या विरोधी।

7 सितंबर 2025 को, दक्षिण कोरियाई सरकार ने कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉर्जिया स्थित हुंडई प्लांट में छापा पड़ा और उसके 300 से ज्यादा कर्मचारियों को हिरासत में लिया गया। राष्ट्रपति के चीफ ऑफ स्टाफ कांग हून-सिक ने कहा कि सियोल और अमेरिकी अधिकारियों ने हिरासत में लिए गए कर्मचारियों की रिहाई पर बातचीत की है। रिपोर्टों के अनुसार, दक्षिण कोरिया अपने नागरिकों को स्वदेश वापस लाने के लिए एक चार्टर्ड विमान भेजेगा।

दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्री चो ह्यून ने शनिवार को सियोल में एक आपात बैठक में इसकी पुष्टि की। उन्होंने कहा कि हिरासत में लिए गए 457 लोगों में से 300 से ज्यादा दक्षिण कोरियाई थे। चो ने कहा, “हम अपने नागरिकों की गिरफ्तारियों को लेकर बेहद चिंतित हैं और जिम्मेदारी महसूस करते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि विदेश मंत्रालय ने अपने प्रवासी नागरिक सुरक्षा कार्य बल को सक्रिय कर दिया है।

उन्होंने जोर देकर कहा कि अमेरिका में निवेश करने वाली दक्षिण कोरियाई कंपनियों की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए। चो ने हिरासत में लिए गए लोगों को दूतावास से मदद देने का भी निर्देश दिया।

हिरासत में लिए गए कोरियाई कर्मचारी (फोटो साभार-CNN)

रिपोर्टों के अनुसार, दक्षिण कोरिया की प्रथम उप-विदेश मंत्री पार्क यून-जू ने अमेरिकी राजनीतिक मामलों की विदेश मंत्री एलिसन हुक से कहा कि यह छापेमारी ऐसे महत्वपूर्ण समय पर हुई है, जब दोनों नेताओं के बीच पहली शिखर वार्ता के दौरान बनी विश्वास और सहयोग की गति को बनाए रखना जरूरी है।

अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार, हिरासत में लिए गए लोगों में वे लोग भी शामिल हैं, जो वीजा की अवधि समाप्त होने के बाद भी रुके थे। उन्हें काम करने से रोका गया है। उनमें से ज़्यादातर को जॉर्जिया के फोल्कस्टन स्थित एक हिरासत केंद्र में रखा गया है।

इस एक्शन को राष्ट्रपति ट्रंप ने सही ठहराया और गिरफ्तार लोगों को ‘अवैध विदेशी’ कहा। उन्होंने कार्रवाई का बचाव करते हुए कहा कि अधिकारी ‘सिर्फ अपना काम कर रहे थे।’

अमेरिका में दक्षिण कोरियाई कर्मचारियों के साथ यह अपमानजनक व्यवहार ऐसे वक्त हुआ है, जब वाशिंगटन और सियोल के बीच बड़े व्यापार समझौते की घोषणा हो चुकी है। पिछले महीने, व्हाइट हाउस में पत्रकारों से बात करते हुए, ट्रंप ने दक्षिण कोरिया के साथ हुए व्यापार समझौते को ‘ऐतिहासिक’ करार दिया था।

जुलाई में, ट्रंप ने घोषणा की थी कि अमेरिका और दक्षिण कोरिया एक ‘पूर्ण और सम्पूर्ण व्यापार समझौते’ पर पहुँच गए हैं, जिसमें दक्षिण कोरियाई निर्यात पर 15 प्रतिशत टैरिफ, अमेरिकी परियोजनाओं में 350 अरब डॉलर के निवेश की प्रतिबद्धता और 100 अरब डॉलर की ऊर्जा खरीद शामिल है।

हालाँकि, अब ऐसा लगता है कि दक्षिण कोरिया की भारी निवेश प्रतिबद्धता के बावजूद ट्रंप प्रशासन का लालच खत्म नहीं हुआ है। यही वजह है कि ‘ऐतिहासिक’ व्यापार समझौते के बावजूद अमेरिका में दक्षिण कोरियाई नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। राष्ट्रपति ट्रंप की यह शायद दक्षिण कोरिया पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा है।

उल्लेखनीय है कि 1950 के दशक के कोरियाई युद्ध के बाद से अमेरिका और कोरिया गणराज्य करीब आए। इनके बीच मजबूत सैन्य और व्यापारिक संबंध बने। अमेरिका ने आपसी रक्षा संधि के तहत दक्षिण कोरिया में लगभग 28,500 सैनिक तैनात किये हैं। ये सैन्य दृष्टि से अहम है।

जापान ने अपनी संप्रभुत्ता से किया समझौता

जापान के प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ अपमानजनक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होने के कुछ दिनों बाद इस्तीफ़ा दे दिया। ट्रम्प प्रशासन के ‘मित्रों को धमकाओ, सहयोगियों को अपमानित करो, अधिकतम लाभ निचोड़ो, कुछ भी पीछे मत छोड़ो’ की सोच ने जापान जैसे सहयोगी को अपमानित किया।

जापानी प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा ने 7 सितंबर 2025 को इस्तीफा देने की घोषणा की। हालाँकि उनका इस्तीफा घरेलू राजनीतिक उथल-पुथल और उच्च सदन के चुनावों में करारी हार के बाद आया। लेकिन, इशिबा का इस्तीफा अमेरिका के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने और अमेरिका में 550 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा करने के कुछ ही दिनों बाद आया।

इशिबा ने व्यक्तिगत रूप से सेमीकंडक्टर और ऊर्जा से लेकर दवा उत्पादन और बुनियादी ढाँचे में जापान के निवेश वाले अमेरिकी समझौते का समर्थन किया था। यह रणनीतिक आर्थिक प्रतिबद्धता हाल ही में अमेरिका-जापान व्यापार वार्ता के दौरान की गई थी। बदले में, अमेरिका ने जापानी ऑटोमोबाइल पर शुल्क कम कर दिया।

गौरतलब है कि ट्रम्प ने कहा है कि उनकी सरकार उन क्षेत्रों का फैसला करेगी, जहाँ निवेश किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, जापान अपना पैसा अमेरिका को सौंप देगा, जो अपनी पसंद के क्षेत्रों और उद्योगों में निवेश करेगा। इस समझौते की जापान और दुनिया भर में व्यापक आलोचना हुई। इसे अमेरिका के सामने जापानी संप्रभुता के समर्पण की तरह लिया गया। एक तरीके से ट्रम्प ने टोक्यो को एक सम्मानित साझेदार से एक वित्तीय उपनिवेश में बदल दिया।

याद दिला दें कि 1951 की सैन फ्रांसिस्को संधि के बाद से जापान अमेरिका का एक प्रमुख साझेदार है। अमेरिका ने जापान में लगभग 54,000 सैनिक तैनात हैं, जिनमें योकोसुका जैसे प्रमुख अड्डे भी शामिल हैं। यहाँ अग्रिम मोर्चे पर तैनात एकमात्र अमेरिकी विमान वाहक पोत रोनाल्ड रीगन स्थित है। ओकिनावा में 26,000 से ज्यादा अमेरिकी सैनिक तैनात हैं, जिनमें कडेना एयर बेस जैसे प्रतिष्ठान भी शामिल हैं।

यह ‘व्यापार समझौता’ जापान के लिए इतना अपमानजनक है कि ट्रम्प प्रशासन के अधिकारी भी अपनी खुशी व्यक्त करने में खुद को नहीं रोक पाए। अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने कहा कि अमेरिका-जापान समझौता डोनाल्ड ट्रम्प को इस बात का ‘विवेकाधिकार’ देता है कि 550 अरब डॉलर का जापानी निवेश कहाँ जाएगा।

सीएनबीसी के एक शो में लुटनिक ने कहा, “अमेरिकी टैरिफ दर को कम करने के लिए, जापानियों ने राष्ट्रपति ट्रम्प को 550 अरब डॉलर दिए हैं, ताकि वे यह निर्देश दे सकें कि इन पैसों का अमेरिका में कहाँ और कैसे निवेश किया जाए। यह डोनाल्ड ट्रम्प को उनके शेष कार्यकाल के लिए एक साल की जीडीपी वृद्धि का आधा प्रतिशत है, जो उन्हें अमेरिका में राष्ट्रीय और आर्थिक सुरक्षा के निर्माण के लिए दिया गया है। डोनाल्ड ट्रम्प के लिए काम करना सबसे मज़ेदार है…”

ट्रंप के हमलावर तेवरों ने जिस तरह जापान का मज़ाक उड़ाया, उससे पता चलता है कि अमेरिका अपने सहयोगियों और व्यापारिक साझेदारों के साथ कैसा व्यवहार करता है। दरअसल, कोई साझेदार ही नहीं है। एक तरफ अमेरिका है, दूसरी तरफ उसका वित्तीय उपनिवेश।

वियतनाम ने झुककर ट्रंप से टैरिफ में कटौती हासिल की

यह सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन छोटा-सा वियतनाम, जिसने कभी अमेरिका को हराया था, अब डोनाल्ड ट्रंप के सामने नतमस्तक है। बदले में अमेरिका ने टैरिफ को 46 प्रतिशत से घटा कर 20 प्रतिशत कर दिया है। राष्ट्रपति ट्रंप ने साल 2025 की शुरुआत में, वियतनाम पर 46 प्रतिशत टैरिफ लगाने की घोषणा की थी, हालाँकि, 2 अप्रैल को उन्होंने टैरिफ को घटाकर 20 प्रतिशत करने की घोषणा की। यह खबर दक्षिण पूर्व एशियाई देश में ट्रंप परिवार को एक भव्य गोल्फ कोर्स निर्माण को मंजूरी मिलने के बाद आई।

अमेरिका ने वियतनाम पर 20 प्रतिशत टैरिफ लगाई है, जबकि वियतनाम में अमेरिकी सामानों पर कोई टैरिफ नहीं लगेगा। इस समझौते ने वियतनाम की अर्थव्यवस्था को अमेरिकी सामानों के लिए खोल दिया गया। ट्रंप के परिवार को एक गोल्फ़ कोर्स के लिए मंज़ूरी मिल गई, लेकिन इससे वियतनाम को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। यहाँ तक कि अमेरिका ने वियतनाम को बाज़ार अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता नहीं दी और न ही उच्च तकनीक वाले निर्यात प्रतिबंधों को हटाया। वियतनाम की अमेरिकी बाजार पर निर्भरता, जो उसके निर्यात का लगभग 30 प्रतिशत है, और भारी टैरिफ के मंडराते ख़तरे ने वियतनाम को वाशिंगटन को रियायतें देने के लिए मजबूर किया।

ट्रंप के सामने यूरोपीय संघ का आत्मसमर्पण

ट्रंप के सामने यूरोपीय संघ के आत्मसमर्पण ने ट्रंप के इस विश्वास को और बढ़ा दिया कि वे टैरिफ़ को हथियार बनाकर देशों को अमेरिका समर्थक व्यापार समझौते करने के लिए मजबूर कर सकते हैं।

जापान और दक्षिण कोरिया के अलावा, ट्रंप प्रशासन ने यूरोपीय संघ (ईयू) को भी नहीं बख्शा। दरअसल, यूरोपीय संघ के आत्मसमर्पण ने ही ट्रंप में यह विश्वास जगाया कि टैरिफ, धमकियों और आक्रामक रवैया अपना कर दूसरे देशों को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया जा सकता है।

यूरोपीय संघ ने 27 जुलाई 2025 को अमेरिका के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए। ये समझौता ट्रम्प की टैरिफ धमकियों के आगे ईयू के समर्पण को दर्शाता है। यूरोपीय संघ ने अमेरिकी सामानों पर टैरिफ 27.5 प्रतिशत से घटाकर 15% कर दिया, जबकि यूरोपीय संघ को अमेरिकी निर्यात पर कोई टैरिफ छूट नहीं दी गई।

इसके अलावा, यूरोपीय संघ ने अमेरिका से लगभग 750 अरब डॉलर की ऊर्जा खरीद और 600 अरब डॉलर के निवेश, अमेरिकी सैन्य उपकरणों की खरीद में वृद्धि की प्रतिबद्धता जताई।

ट्रम्प ने यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन पर एकतरफा शर्तों पर सहमत होने का दबाव डाला। हालाँकि, इसकी कीमत यूरोपीय उद्योगों, विशेष रूप से ऑटोमोटिव और फार्मास्यूटिकल्स को भारी नुकसान के तौर पर उठानी पड़ी।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के विश्लेषण से पता चलता है कि वोक्सवैगन और मर्सिडीज-बेंज जैसे जर्मन ऑटोमोबाइल निर्माता, जो अपने वाहनों का 10% से अधिक अमेरिका को निर्यात करते हैं, उनके लाभ में 1.5-2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वार्षिक कमी आएगी।

जैसा कि इस साल अप्रैल में भारत के मामले में देखा गया था, ट्रंप ने यूरोपीय संघ के लिए भी एक समय सीमा तय कर दी थी, जिसमें 1 अगस्त 2025 तक व्यापार समझौता न होने पर यूरोपीय उत्पादों पर 30% टैरिफ लगाने की धमकी दी गई थी। ट्रंप ने 1 अगस्त तक व्यापार समझौता न होने पर यूरोपीय दवा उत्पादों पर 200 प्रतिशत का भारी टैरिफ लगाने की भी धमकी दी थी।

भारत ने ट्रंप की धौंस के आगे झुकने से किया इनकार

जहां यूरोपीय संघ, जापान और दक्षिण कोरिया को ट्रंप प्रशासन के हाथों अपमान सहना पड़ा, वहीं भारत, चीन और रूस जैसे देशों ने अमेरिका दबाव के आगे झुकने से इनकार करके वाशिंगटन को सोचने के लिए मजबूर किया।

डोनाल्ड ट्रंप ने इस साल की शुरुआत में भारत पर 25% टैरिफ लगाया, फिर भारत द्वारा रूस से तेल खरीद के लिए ‘दंड’ के रूप में 25 प्रतिशत का और टैरिफ लगाया। ट्रम्प ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना ‘मित्र’ कहा और फिर भारत की निंदा की। ट्रंप ने यहाँ तक कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था मरी हुई है। उन्होंने अपने खास ‘भारत विरोधी’ करीबियों पीटर नवारो, स्कॉट बेसेंट और हॉवर्ड लुटनिक को भारत को खलनायक बनाने और रूस-यूक्रेन युद्ध के लिए नई दिल्ली को दोषी ठहराने के लिए आगे कर दिया।

ट्रंप के अड़ियल रवैये और मोदी द्वारा ट्रंप के अहंकार को संतुष्ट करने से इनकार करने के कारण, अमेरिका-भारत संबंध इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। ट्रंप चाहते थे कि प्रधानमंत्री मोदी मई में भारत-पाकिस्तान विवाद को रोकने का श्रेय उन्हें दें। लेकिन भारत ने ट्रंप को कोई श्रेय नहीं दिया, हालाँकि पाकिस्तान ने झुककर ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ‘नामित’ कर दिया। ट्रंप ने अपने जीवन का लक्ष्य शायद नोबेल शांति पुरस्कार जीतना ही बना लिया है।

लेकिन भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सीजफायर में अमेरिका योगदान को नकार दिया। इसके बाद ट्रंप के लिए रूसी तेल खरीद बड़ा मुद्दा बन गया। एक ऐसा मुद्दा जिसकी पहले वह प्रशंसा कर चुका है।

बिना सोचे-समझे टैरिफ लगाने से लेकर, भारत पर रूस- यूक्रेन युद्ध को बढ़ावा देकर मुनाफा कमाने का आरोप लगाने का कोई मतलब नहीं है। ये भी तब जबकि अमेरिका खुद सबसे बड़ा मुनाफ़ाखोर है, रूसी तेल खरीदना जारी रखने और चीन के साथ संबंध सुधारने के मोदी सरकार के फैसले की निंदा करना, ‘ब्राह्मणों’ पर हमला करना जैसी बातें सिर्फ इसलिए की जा रही हैं, ताकि भारत पर अपने विशाल कृषि और डेयरी बाज़ार को अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने के लिए मजबूर किया जा सके।

हालाँकि, भारत ने ट्रंप प्रशासन को स्पष्ट कर दिया है कि नई दिल्ली अमेरिका के साथ कोई भी व्यापार समझौता तभी करेगा जब उसे एक समान और सम्मानित भागीदार माना जाएगा, न कि सिर्फ अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने वाली कामधेनू गाय। हाल ही में संपन्न शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में दिखी रूस चीन और भारत की गर्मजोशी ने अमेरिका को एक कड़ा संदेश दिया कि सभी देशों को टैरिफ, धमकियों और बेलगाम बयानबाजी से गुलामी के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

(मूल रूप से ये लेख अंग्रेजी में लिखा गया है, इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)



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