डोडा में हिन्दुओं का कत्लेआम

जम्मू और कश्मीर दशकों से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का शिकार रहा है। यहाँ हिन्दुओं को हिंसा का खामियाजा भुगतना पड़ा है। 90 के दशक में डोडा जिला कश्मीर घाटी से अलग जम्मू का वो जगह है, जहाँ हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया था। यहाँ जिहादियों ने हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा था। बंदूक की नोक पर उनके घर द्वार छीन लिए गए। बेरहमी से कत्ल किया गया, हिन्दू महिलाओं का रेप किया गया। ये सब जिहाद के नाम पर किया गया।

हिन्दुओं के प्रति घृणा और किसी भी तरह से मुस्लिम बहुल घाटी को भारत से अलग करने की कोशिश में जिहादियों ने ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया। लेकिन डोडा घाटी का हिस्सा नहीं था। उसके सामरिक महत्व के चलते आतंकवादियों ने साजिश के तहत हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर किया। उस वक्त डोडा तक पहुँचना भी काफी मुश्किल होता था।

ये ऐसा पहाड़ी क्षेत्र है जहाँ पगडंडियों और खच्चरों के सहारे ही पहुँचा जा सकता था। ये क्षेत्र हिमाचल प्रदेश, उधमपुर, लद्दाख और अनंतनाग से घिरा हुआ है। लेकिन इसके सामरिक महत्व को पाकिस्तान ने पहचान लिया और आतंकियों के सहारे यहाँ हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर किया। स्वराज के अभिमन्यु सिंह के मुताबिक 1991 में इस क्षेत्र में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ की केवल 5 यूनिट थी।

सेना की संख्या में कमी होने की वजह से आतंकियों के लिए यहाँ पैर जमाना और आसान हो गया क्योंकि भारत की सेना घाटी में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर चुकी थी।

डोडा घाटी अब डोडा, किश्तवाड़ और रामबन में बंटा हुआ है, लेकिन उस वक्त 11,691 वर्म किलोमीटर में पूरा घाटी फैला हुआ था, जहाँ जम्मू कश्मीर का करीब 26 फीसदी वन मौजूद थे।

फोटो साभार-Swarajya

एक और उबर-खाबड़ पहाड़ी रास्ते और दूसरी तरफ घने जंगल, ऐसे दुर्गम जगह पर अभियान के लिए अधिक सैनिकों की जरूरत थी। इसके विपरीत आतंकियों को चप्पा-चप्पा पता था जहाँ वो खुलकर ‘हिन्दुओं से मुक्त क्षेत्र’ बनाने का काम कर रहे थे।

1991 की जनगणना के मुताबिक, मुस्लिम जनसंख्या 57.3% ( 90% कश्मीरी) , हिन्दुओं की 42.22%, अनुसूचित जाति ( 8.74%) थे, जिससे इस क्षेत्र की संवेदनशीलता और भी बढ़ गई। इसके अलावा डोडा की कठुआ और उधमपुर से निकटता और एनएच-1ए के कारण आतंकवादी घाटी से आसानी से पहुँच पाए।

1993 से 2001 के बीच आतंकवादियों ने 310 हिन्दुओं को मार डाला। ये घटनाएँ सुनियोजित तरीके से चिनाब नदी के दक्षिण में हिन्दुओं की संख्या कम कर डेमोग्राफी बदलने के लिए किया गया। स्थिति इतनी भयावह हो गई कि कुछ स्थानीय मुस्लिमों ने ‘भविष्य में आजादी’ की संभावना को देखते हुए हिन्दुओं के जमीन जायदाद, घर-द्वार को आपस में बाँट लिया।

पहले से असहाय हिन्दुओं का शोषण इस क्षेत्र में और बढ़ गया क्योंकि जिहादियों की संख्या यहाँ बढ़ने लगी। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र भी जिम्मेदार है क्योंकि 1950 में संयुक्त राष्ट्र के मध्यस्थ ओवेन डिक्सन ने 1950 में जनमत संग्रह के जरिए जम्मू-कश्मीर को विभाजित करने की कोशिश की थी। वह डोडा, राजौरी और पुंछ जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र को घाटी में मिलाना चाहते थे और चिनाब नदी के उत्तर में सीमा बनाना चाहते थे।

पाक समर्थित आतंकवाद से डोडा त्रस्त

1990 तक डोडा में कश्मीर घाटी की तुलना में शांति थी। इस वक्त यहाँ के युवक पाकिस्तानी आतंकी शिविरों में प्रशिक्षण के लिए सीमा पार गए। इस दौरान यहाँ एक फ्रांसीसी इंजीनियर का अपहरण यहाँ हुआ था, मंत्री बीए किचलू के घर और उनके निजी सुरक्षा अधिकारी पर हमले हुए थे।

शुरुआत में आतंकवादी यहाँ सेना से बचने और पनाहगार के रूप में इस्तेमाल के लिए घुसे थे। 19 दिसंबर 1992 को बीजेपी के जिला महासचिव संतोष कुमार ठाकुर की उनके घर के बाहर हत्या कर दी गई। यहाँ से अल्पसंख्यकों को टारगेट कर हत्या करने का सिलसिला शुरू हुआ।

18 फरवरी 1993 को आतंकवादियं ने मोहन सिंह को उनके बिजरानी स्थित घर से अगवा कर लिया और प्रताड़ित किया। उनके शव को घोड़े की पीठ पर बाँधकर भगवा सहकारी भंडार के पास लटका दिया गया था।

उसी दिन कश्मीरा सिंह का भद्रवाह स्थित उनके आवास से अपहरण कर लिया गया था। छह दिन बाद उनका शव पास की एक नहर में मिला, जिस पर यातना के स्पष्ट सबूत थे। दो दिन बाद बीजेपी सदस्य दीवान चंद की गोली मारकर हत्या कर दी गई।

पूर्व भाजपा सदस्य और जनता दल के राजनेता मस्त नाथ योगी के भतीजे को 14 अप्रैल 1993 को भद्रवाह में हत्या कर दी गई। मस्त नाथ योगी को इसलिए मारा गया, क्योंकि उन्होंने डोडा में आतंकवाद को खत्म करने के लिए सेना के हस्तक्षेप का समर्थन किया था।

हिंदू रक्षा समिति के नेता सतीश भंडारी की एक महीने बाद ही 10 मई को डोडा में हत्या कर दी गई। जून के अंत में भद्रवाह में तीन हिंदू युवकों का अपहरण कर उन्हें प्रताड़ित किया गया। 30 जून को उनमें से एक भागने में कामयाब रहा, लेकिन बाकी दो को मौत के घाट उतार दिया गया।

हिन्दुओं के कत्लेआम का सबसे बुरा वक्त

14 अगस्त 1993 को पाँच हथियारबंद आतंकवादियों ने किश्तवाड़ से जम्मू जा रही एक यात्री बस को रोक लिया। इसके बाद हमलावरों ने हिंदू पुरुष यात्रियों को अलग कर दिया और उन्हें अंधाधुंध गोलियों से भून दिया गया। इस दौरान हिंदू बच्चों को भी नहीं बख्शा गया था। ये पाकिस्तान की आजादी का दिन था।

आतंकवादियों ने चौदह लोगों की हत्या कर दी और दो अन्य को गंभीर रूप से घायल कर दिया, जिनमें से एक की अस्पताल में मौत हो गई। एक स्थानीय सरकारी अधिकारी का बेटा आरिफ हुसैन ने यह हमला किया था। वह आतंकी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन का नेता था।

डोडा में 1994 आते आते आतंकवाद पूरी तरह हावी था। पूरी घाटी के आकार के इस क्षेत्र में सेना की केवल दो बटालियन, बीएसएफ की सात और सीआरपीएफ की एक बटालियन रह गई। स्थानीय प्रशासन ने भी डरे सहमे बचे हुए हिंदू समुदाय को कोई सुरक्षा मुहैया नहीं कराई।

मई में गोहा में करतार सिंह और मान सिंह के घरों पर धावा बोलने की कोशिश कर रहे दो आतंकवादियों को गोली मार दी गई थी। लेकिन उन्हें आतंकियों के बदले की कार्रवाई का डर था। स्थानीय प्रशासन पर कोई विश्वास नहीं था इसलिए गोहा और गुंडोह तहसील के कलजुगासर, सीरू और कुठेरा जैसे गाँव के 822 हिन्दू पलायन कर हिमाचल प्रदेश के चंबा चले गए।

20 मई को आसपास के जिलों से लगभग 2,000 मुस्लिम भीड़ 4-5 घंटे पैदल चलकर गोहा पहुँची। इनलोगों ने करतार सिंह के रिश्तेदारों के 13 घरों को आग के हवाले कर दिया और एक आतंकवादी का शव अपने साथ ले गई।

27 मई को भाजपा नेता बलवंत सिंह की हत्या होते-होते बची, लेकिन उनका सुरक्षा गार्ड घायल हो गया। इसके अलावा, उसी दिन हडयाल-ग्राभा में जिहादियों ने तीन दलित भाइयों की हत्या कर दी। खबरों के मुताबिक, सुंबर में भी चरमपंथियों ने तीन लोगों का सिर कलम कर दिया।

30 मई को भद्रवाह में भाजपा के जिला उपाध्यक्ष स्वामी राज कटल की एक महिला समेत दो अन्य लोगों के साथ गोली मारकर हत्या कर दी गई। कटल एक साल पहले हुए एक हत्याकांड में बाल-बाल बच गए थे। 7 जून को एके-47 से लैस तीन आतंकवादियों ने रुचिर कुमार की हत्या कर दी। वह बीजेपी के तहसील अध्यक्ष थे।

इसके बाद भद्रवाह के वासक डेरा में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और चार अन्य घायल हो गए। मुस्लिम बहुल किला मोहल्ला में दस हिंदू घरों को लूट लिया गया और नष्ट कर दिया गया। इसके एक हफ्ते से भी कम समय बाद जीलाना के लोक निर्माण विभाग के एक जूनियर इंजीनियर की हत्या कर दी गई।

भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुओं की हत्याओं की आलोचना की। 23 जून को भाजपा नेताओं ने अपने “डोडा बचाओ” प्रदर्शन के तहत विरोध प्रदर्शन शुरू किया और इस गंभीर स्थिति के मद्देनजर इस क्षेत्र को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित करने की माँग की। भाजपा कार्यकर्ताओं, सांसदों, विधायकों और पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को हिरासत में ले लिया गया।

हत्याओं का दौर जारी रहा और 18 सितंबर को गंडोह के बथोली गाँव में छह हिंदुओं की हत्या कर दी गई तथा 19 दिसंबर को पुशाल गाँव में बीजेपी कार्यकर्ता सुमित कुमार की गोली मारकर हत्या कर दी गई।

हिंदुओं ने जवाबी कार्रवाई की कोशिश की

इलाके के हिंदू समुदाय ने आतंकवादियों के अत्याचारों से त्रस्त होकर जवाबी कार्रवाई की। भद्रवाह के पास मोंडा गाँव में गुस्साए हिंदुओं ने एक आतंकवादी के घर में आग लगा दी। कुछ जगहों पर आत्मरक्षा के लिए हथियार भी जुटाना शुरू कर दिया।

मई में चंबा आकर बसे लोगों में भी यह जोश साफ दिखाई दे रहा था। ज़्यादातर लोग 30 जून तक अपने-अपने गाँव लौट आए थे, लेकिन वे सुरक्षा के लिए बंदूक रखने पर अड़े रहे।

सरकार ने ग्राम रक्षा समिति (वीडीसी) कार्यक्रम फिर से शुरू किया। ये कार्यक्रम बढ़ती हिंसा के बीच हिंदुओं के पलायन को रोकने के प्रयास के लिए काफी जोखिम वाले क्षेत्रों में पूर्व सैनिकों और कमजोर समुदायों को आत्मरक्षा के लिए हथियार प्रदान करता था। 1995 के अंत तक डोडा जिले के लगभग 330 समुदाय वीडीसी के अंतर्गत आ गए थे।

इसके अलावा आतंकवाद विरोधी अभियानों में मदद के लिए डोडा में सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई। सितंबर 1994 में सीआई (आतंकवाद विरोधी) बल (डेल्टा) का गठन किया गया। इसमें सीआरपीएफ की 35 कंपनियां, बीएसएफ की छह बटालियन और राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) की चार बटालियनें शामिल थीं।

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1996 की शुरुआत तक कई कुख्यात आतंकियों का सफाया हो चुका था। लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के ज़िला कमांडर जुलकर नैन, हरकत-उल-अंसार (एचयूए) के ज़िला कमांडर राजा दाउद मन्हास और हिज़्बुल मुजाहिदीन (एचएम) के प्रांतीय कमांडर जावेद कुरैशी भी इसमें शामिल थे। इससे आतंकवादी समूह काफी कमजोर पड़ा, लेकिन हिंदुओं की हत्याएँ फिर भी नहीं रुकीं।

हिंदुओं की हत्या का सिलसिला जारी

आतंकवादियों ने हिंदुओं को मारने के लिए मुखबिरी का संदेह और झूठे आरोप लगाए और दिनदहाड़े हत्या करना शुरू कर दिया। 5-6 जनवरी की रात को बरसाला में 15 हिंदुओं की हत्या कर दी गई, क्योंकि स्वामी राज नामक एक स्थानीय हिंदू कथित तौर पर सुरक्षा बलों का मुखबिर था। 8-9 जून की रात को कमलारी में 9 ग्रामीणों की हत्या कर दी गई और 25 जुलाई को सारोधर में 13 अन्य लोगों की हत्या कर दी गई।

हालाँकि, डोडा में सुरक्षा बलों की संख्या कम कर दी गई क्योंकि बाद में और सैनिकों को तैनात करने के बजाय छह बीएसएफ बटालियनों को हटा दिया गया। यह घटनाक्रम कथित तौर पर उसी समय हुआ जब इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने घाटी के बाहर और डोडा सहित जम्मू क्षेत्र में अपने आतंकवाद के व्यापक प्रसार के लिए अपनी रणनीति बदल दी।

इस प्रकार, 1997 और 1998 में डोडा में सशस्त्र संघर्ष फिर से शुरू हो गया, जब लगभग 60 से 70 विदेशी आतंकवादियों ने इस क्षेत्र में घुसपैठ की। अक्टूबर 1997 में कुदधार में छह वीडीसी सदस्यों की हत्या कर दी गई। जिहादियों ने 1998 में सामूहिक हत्याओं का सिलसिला एक बार फिर शुरू कर दिया।

चंपानेरी गाँव के पास 19 जून 1997 को गाड़ी का इंतजार कर रहे एक बारात को पाँच आतंकवादियों ने निशाना बनाया। उन्होंने पुरुषों को महिलाओं से जबरन अलग किया और फिर 32 में से 25 पुरुषों को गोलियों से भून डाला। एक महीने बाद,कलाबन में हुए एक और हमले में 23 हिंदू मारे गए। 27 जुलाई को किश्तवाड़ के पास हॉर्ना और केशवान गाँवों में 16 हिंदुओं की हत्या कर दी गई।

आतंकवाद का जाल हिमाचल प्रदेश तक फैला

आतंक किसी एक क्षेत्र या जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं था। इस साल उधमपुर के निकटवर्ती इलाके प्राणकोट, डाकीकोट और थूब के साथ-साथ डोडा के बाहरी इलाके वंधामा में भी अल्पसंख्यकों का उतना ही भयावह नरसंहार हुआ। इसके अलावा, 27 जून 1997 को भद्रवाह के आतंकवादियों ने हिमाचल प्रदेश में चार जड़ी-बूटी बीनने वालों की हत्या कर दी। 2 और 3 अगस्त 1997 की रात को डोडा से चंबा जिले में घुसते समय आतंकवादियों ने बारागढ़-पांगी मार्ग पर स्थित मजदूर शिविरों को निशाना बनाया।

कलाबन में जब मुस्लिम मजदूरों को हिंदुओं से अलग किया गया, तो उन्हें उनके तंबुओं की रस्सियों से बाँध दिया गया। फिर या तो उन्हें गोली मार दी गई या उनका गला काट दिया गया।

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इसके बाद वे सतरुंडी की ओर बढ़े, जहाँ उन्होंने 11 और मजदूरों की हत्या कर दी और 12 अन्य को घायल कर दिया। कुली के रूप में काम करने वाले नौ मजदूरों का भी अपहरण कर लिया गया और बाद में तीन मुसलमानों को छोड़ दिया गया। 4 अगस्त को, तीसा और शिम्बा गाँवों में 35 पीड़ितों का अंतिम संस्कार किया गया।

इसको लेकर मुस्लिम गुज्जर चरवाहा गुटों और हिंदू गद्दियों के बीच तनाव पैदा हो गया। आतंकियों ने मौके का फायदा उठाकर हिंदुओं पर और भी बड़ा हमला किया। 18 अगस्त को तीन गद्दियों का अपहरण कर लिया गया। उन्हें प्रताड़ित किया गया और फिर उनकी हत्या कर दी गई। इनकी हत्या एक मुस्लिम गुज्जर की वजह से हुई थी। उसने आतंकवादियों को बताया कि उन्होंने जो हथियार छिपाए थे उनके बारे में गद्दियों ने ही सेना को जानकारी दी।

कारगिल युद्ध और ‘ऑपरेशन विजय’ के वक्त हिन्दुओं की स्थिति

जैसे-जैसे समय बीतता गया हिंदुओं की स्थिति और भी खराब होती गई। ‘ऑपरेशन विजय‘ और 1999 में कारगिल पर पाकिस्तानी आक्रमण का दूर-दराज के इलाकों पर असर पड़ा। राजौरी-पुंछ क्षेत्र में पाकिस्तानी आक्रमण की आशंका को देखते हुए 9-सेक्टर के सैनिकों को किश्तवाड़ से हटाकर वहाँ रियर एरिया सिक्योरिटी ड्यूटी पर तैनात करना पड़ा।

हमलावरों ने सैनिकों की कमी का फायदा उठाया। आतंकियों ने अनगिनत सेना के सूत्रों और मुखबिरों की हत्या कर दी। यहाँ तक कि कुछ लोगों की तो ज़िदा खाल भी उधेड़ दी गई।

20 जुलाई 1999 को लियोटा गाँव में आतंकवादियों ने आठ महिलाओं सहित 15 हिंदुओं को निशाना बनाया। इसके बाद सैनिकों की संख्या यहाँ बढ़ाई गई। राष्ट्रीय राइफल्स की दो बटालियनों और सिख लाइट इन्फैंट्री की 5वीं बटालियन यहाँ तैनात की गई। वर्ष 2000 में हिंदुओं ने हिंसा का एक और दौर झेला। 1 अगस्त 2000 को मुरलाकोट में 5, कुंडा में 12 और धम्मोता में 4 हिंदुओं की हत्या कर दी गई। 2 अगस्त 2000 को कियार में 8 हिंदुओं की जान ले ली गई।

21 नवंबर को खानपुरा में 4 हिंदुओं का नरसंहार हुआ और 24 नवंबर को 5 अन्य लोगों की भी इसी तरह हत्या कर दी गई। इन छह सामूहिक हत्याओं का जिक्र मेजर जनरल डीजी बख्शी की किताब “किश्तवाड़ कॉल्ड्रॉन” में किया गया है।

हिंदुओं के खिलाफ क्रूरता अगले साल भी जारी रही। 10 मई 2001 को आतंकवादियों ने स्थानीय पुलिस चौकी से पुलिसकर्मियों का अपहरण कर उन्हें अपने हथियार सौंपने के लिए कहा। हालाँकि पुलिस ने ऐसा नहीं किया। परिणामस्वरूप सात पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया गया, जबकि 3 घायल हो गए।

20 जुलाई 2001 को तागुड़ गाँव के ऊपर एक चरागाह में चार ग्रामीणों की हत्या कर दी गई और अगले दिन चीरजी के पास आठ और लोगों को मार डाला गया। इसके बाद 3 और 4 अगस्त को सरहोट धार में सबसे बड़ी घटना घटी।

सीढ़ी के 22 दलित और राजपूतों को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया। ये लोग अपने मवेशियों को चराने के लिए ऊंचाई वाली जगह शरोट धार लेकर गए थे। इस दौरान आतंकियों ने हिंदुओं का मज़ाक भी उड़ाया और कहा, “क्या पता भी है कि बंदूक क्या होती है,” और कहा, “क्या उन्हें पता है कि बंदूक से क्या निकलता है?”

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वर्ष 2002 भी हिंदुओं के लिए कोई राहत लेकर नहीं आया। 6 जनवरी को लुड्डू और रामसू में 8 हिंदुओं की हत्या कर दी गई तथा 9 अप्रैल को डोडा के नागनी में एक परिवार के पाँच सदस्यों जिसमें दो महिलाएँ और तीन बच्चे शामिल थे, उनकी हत्या कर दी गई।

थर्वा और कुलहंड में 2006 में आखिरी बड़ा नरसंहार हुआ। 30 अप्रैल को, भारतीय सेना के वेश में आए आतंकवादियों ने इलाके को घेर लिया और स्थानीय लोगों को गाँव के मुखिया के घर इकट्ठा होने को कहा। आतंकवादियों ने तब तक गोलीबारी की जब तक उनके कारतूस खत्म नहीं हो गए। इस दौरान 22 लोग मारे गए जिसमें एक तीन साल की बच्ची और गाँव का मुखिया भी शामिल था।

उसी शाम, उधमपुर ज़िले के बसंतगढ़ में आतंकवादियों ने दो स्थानीय चरवाहों, मोहम्मद सिराजुद्दीन और उनके बेटे रुकुनुद्दीन को पास के लालोन गल्ला नामक घास के मैदान में ले जाने के लिए कहा। कई हिंदू चरवाहों ने वहाँ गर्मियों के लिए डेरा डाला हुआ था। 13 हिंदू चरवाहों को बुलाया गया और उन्हें जंगल में ले जाया गया जहाँ उन्हें मार डाला गया ।

13 मई को आतंकवादियों ने डोडा शहर में भाजपा कार्यकर्ताओं और कुलहंड से विस्थापित हुए स्थानीय लोगों के एक जुलूस पर ग्रेनेड से हमला किया। इससे दो पार्टी कार्यकर्ताओं की मौत हो गई और चार अन्य घायल हो गए।

यह हमला मई 1998 में हुए डेसा नरसंहार की याद दिलाता है, जब जिहादियों ने शोक मनाने वाले लोगों पर हमला करके पाँच लोगों की जान ले ली थी। ये लोग पहले मारे गए चार वीडीसी सदस्यों के शव लेकर अपने गाँव लौट रहे थे।

लश्कर ए तैयबा के टारगेट पर हिन्दू

लश्कर-ए-तैयबा के गाजियान-ए-सफ-शिकन (इस्लामी महान योद्धा और युद्धक्षेत्र) के मुहम्मद ताहिर नक्काश ने अपने 2001 के अंक में हिंदुओं के खिलाफ बेलगाम हिंसा की प्रशंसा की और उन्हें नीचा दिखाया। लाहौर के गाजी मुहम्मद शफीक अबू साद ने भी हिंदुओं पर हुए भीषण हमलों पर जश्न मनाया

ग्रामीण इलाकों में हिंदू घरों की लूट को ‘युद्ध लूट’ कहा गया। इंटरसेप्ट किए गए वायरलेस ट्रांसमिशन ने खुलासा हुआ कि 2006 के कुलहंड और थारवा हमलों से पहले भी आतंकवादी कमांडरों ने अपने कैडरों को विशेष रूप से हिंदुओं को मारने के लिए कहा था।

हिंसा की घटना में भले ही कमी आई हो, लेकिन हिंदुओं की मौत का सिलसिला जारी है। ग्राम रक्षा समितियों (वीडीजी) के सदस्य कुलदीप कुमार और नज़ीर अहमद 7 नवंबर 2024 को किश्तवाड़ में मृत पाए गए, उनकी आँखें निकाल ली गई थी।

“कश्मीर टाइगर्स” के आतंकवादियों ने इसकी ज़िम्मेदारी ली और दूसरों को वीडीजी में शामिल न होने की चेतावनी दी। चरवाहे मान सिंह गाड़ी की तार से गला घोंटकर हत्या की तस्वीरें बाद में सितंबर 2024 में बसंतगढ़ मुठभेड़ में मारे गए पाकिस्तानी आतंकवादियों के फोन पर मिलीं।

पहलगाम में हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाकर किया गया आतंकवादी हमला और रियासी में हिंदू तीर्थयात्रियों पर हमला भी ऐसी ही कड़ी है। ये हिंदुओं के विरुद्ध की गई भयावह आतंकी हमले को दर्शाता है।

आतंकवादियों ने पूर्ववर्ती राज्य के सभी क्षेत्रों में हिंदुओं को निशाना बनाया, राजौरी से लेकर, जहाँ अक्टूबर 2005 में हिंदू पुरुषों का गला रेत दिया गया था, डोडा जिले के सुदूर इलाकों तक। गौरतलब है कि 1 और 2 जनवरी 2023 को आतंकियों ने राजौरी के डांगरी गाँव में हिंदुओं पर फिर से हमला किया, जिसमें 2 बच्चों सहित 7 लोगों की मौत हो गई और 9 घायल हो गए।

कश्मीर में हिंदू नरसंहार का मुद्दा छाया

कश्मीरी हिंदुओं का दर्द किसी से छिपा नहीं है। जहाँ जम्मू संभाग, खासकर डोडा में, हिंदुओं को गोलियों और यातनाओं का सामना करना पड़ा, वहीं घाटी में उनकी हालत बद से बदतर होती गई। 2003 का नंदीमार्ग नरसंहार इस समुदाय पर हुई हिंसा की सबसे क्रूर घटनाओं में से एक माना जाता है।

23 मार्च की उस मनहूस रात को 24 हिंदुओं की हत्या कर दी गई, जिनमें उनके बच्चे भी शामिल थे। पुलवामा इलाके में हथियारबंद आतंकवादियों और कुछ स्थानीय युवकों ने हिंदू परिवारों को इकट्ठा किया और अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। पाकिस्तान समर्थित जिहादियों की “रालिव, गालिव, चालिव” योजना ने अंततः उन्हें उनके घरों से बेदखल कर दिया और उन्हें अपनी ही मातृभूमि में शरणार्थियों की जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया।

फोटो साभार- स्वराज्य

इसी प्रकार, अमरनाथ यात्रा भी जिहादियों का प्राथमिक लक्ष्य रही है, जिसके परिणामस्वरूप भयावह हमलों में बड़ी संख्या में हिंदुओं की जान गई है। जैसे- 2002 में पहलगाम आधार शिविर पर हुआ हमला, जिसमें कई अन्य लोगों के अलावा 22 तीर्थयात्री मारे गए थे।

डोडा को ‘कश्मीर घाटी’ बनाना चाहते हैं आतंकी

क्षेत्र के हिंदुओं पर आतंकवाद के असर पर वैश्विक स्तर पर शायद ही कभी वह ध्यान दिया जाता है। कश्मीरी पंडितों के घाटी से निष्कासन की बात हो या डोडा से हिन्दुओं का पलायन।

आतंकवादियों का लक्ष्य डोडा को एक और कश्मीर बनाना था क्योंकि इस क्षेत्र में रक्तपात और दबाव के जरिए हिंदू आबादी को खत्म करने की साजिश चल रही थी। हालाँकि मुस्लिम कट्टरपंथी और उनके वामपंथी-उदारवादी सहयोगी इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने से इनकार करते हैं। उनके लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर एक खास समुदाय की ‘नाज़ुक’ भावनाओं का सम्मान करना ज्यादा जरूरी है। हिंदुओं के जीवन का इनके लिए कोई मोल नहीं है।

( मूल रूप से ये अंग्रेजी में लिखी गई लेख है। इसे यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं। )

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