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10 साल में 24.6% की रेट से बढ़े मुस्लिम, जानिए कैसे घुसपैठ से बदल रहा भारत: किन राज्यों में संकट गंभीर, क्यों PM मोदी लेकर आए ‘हाई-पावर डेमोग्राफी मिशन’?


15 अगस्त पर पीएम मोदी ने की उच्च-स्तरीय जनसांख्यिकी मिशन का ऐलान किया

स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त 2025) को जब पूरा देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से एक अहम बात कही। उन्होंने कहा कि देश की जनसंख्या की बनावट यानी जनसांख्यिकी को लेकर एक बड़ा खतरा सामने आ रहा है। पीएम मोदी ने बताया कि सीमावर्ती इलाकों में यह बदलाव तेजी से हो रहा है और यह सिर्फ एक सामाजिक समस्या नहीं है, बल्कि यह देश की सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा है।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कुछ लोग एक साजिश के तहत देश की जनसांख्यिकी को बदलना चाहते हैं। यह सिर्फ जनसंख्या का मुद्दा नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक सोची-समझी चाल है। उन्होंने बताया कि घुसपैठिए देश में आकर न सिर्फ भारत के युवाओं की नौकरी और रोज़गार छीनते हैं, बल्कि देश की बहनों और बेटियों को भी निशाना बनाते हैं।

पीएम मोदी ने कहा कि ये लोग भोले-भाले जनजातीय लोगों को धोखा देकर उनकी जमीन भी हड़प लेते हैं। यह सब कुछ सोच-समझकर किया जा रहा है और अगर समय रहते इसे रोका नहीं गया तो यह भारत के भविष्य के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है। इसी के साथ पीएम मोदी ने ‘उच्च-शक्ति जनसांख्यिकी मिशन‘ की शुरुआत का ऐलान किया, ताकि इस खतरे का मुकाबला किया जा सके। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि देश अब यह सब और बर्दाश्त नहीं करेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में एक बहुत गंभीर बात कही। उन्होंने कहा कि अगर देश के सीमावर्ती इलाकों में जनसंख्या की बनावट बदलती है तो यह सिर्फ सामाजिक मुद्दा नहीं होता, यह देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है। उन्होंने साफ कहा कि किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने देश के इलाके पर घुसपैठियों को कब्जा करने दे।

यह बात उन्होंने ऐसे समय में कही जब केंद्र सरकार पहले से ही बांग्लादेशी और रोहिंग्या जैसे अवैध घुसपैठियों के खिलाफ पूरे देश में अभियान चला रही है। खासकर सीमावर्ती राज्यों में ये लोग तेजी से बसते जा रहे हैं, जिससे स्थानीय आबादी और सुरक्षा दोनों पर असर पड़ रहा है।

केंद्र सरकार ने इन अवैध प्रवासियों का पता लगाने, उन्हें हिरासत में लेने और वापस भेजने के लिए ‘ऑपरेशन पुशबैक‘ शुरू किया है। इसी बीच यह नया जनसांख्यिकी मिशन इस संकट के प्रति सरकार की गंभीरता को दर्शाता है।

प्रधानमंत्री ने यह भी संकेत दिया कि यह खतरा सिर्फ बाहरी घुसपैठियों तक सीमित नहीं है। भारत के भीतर भी कुछ संगठन और समूह देश की धार्मिक बनावट को बदलने में लगे हुए हैं। जैसे, कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मांतरण के लिए विदेशी पैसों से काम कर रहे हैं। छांगुर पीर जलालुद्दीन जैसे लोग इसमें शामिल पाए गए हैं। वहीं, कुछ ईसाई मिशनरी भी ‘प्रार्थना सभा‘ के नाम पर गरीब लोगों को धर्म बदलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने इन सब बातों को जोड़ते हुए देश को चेतावनी दी कि अब समय आ गया है कि इस तरह की साजिशों को रोका जाए। वरना जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई मुश्किल होगी।

असम और बंगाल में बढ़ते घुसपैठिए

जनसंख्या में यह बदलाव सिर्फ गैर-कानूनी तरीके से आए लोगों की वजह से नहीं हो रहा है। इसके पीछे कुछ स्थानीय कारण भी हैं, जैसे कि अलग-अलग मजहबों के लोगों के बीच बच्चे पैदा करने की दर में अंतर।

असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों पर कार्रवाई– असम में भारत और बांग्लादेश की सीमा खुली है, जिसकी वजह से बहुत से अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम गैर-कानूनी तरीके से भारत में घुस पाते हैं। ये लोग आधार कार्ड, राशन कार्ड आदि जैसे नकली कागजात बनवाकर भारत में ही रहने लगते हैं।

ऐसे में भाजपा सरकार असम में अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासियों की पहचान करने, उन्हें हिरासत में लेने और देश से बाहर भेजने के लिए सख्त कदम उठा रही है। साल 2019 में, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) की प्रक्रिया में असम के 19 लाख लोगों को रजिस्टर से बाहर कर दिया गया था। इसका मतलब है कि ये लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए थे।

2011 की जनगणना के मुताबिक, असम में मुस्लिमों की आबादी 2001 के 30.9% से बढ़कर 34% हो गई है। इसी कारण, धुबरी, बारपेटा और गोलपाड़ा जैसे जिले मुस्लिम-बहुल बन गए हैं।

पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में अवैध घुसपैठियों की समस्या- पश्चिम बंगाल में भी बांग्लादेशी की अवैध घुसपैठ एक बड़ी समस्या है। इस घुसपैठ के कारण उत्तर 24 परगना, मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे जिलों में मुस्लिम आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ी है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल की तृणमूल कॉन्ग्रेस सरकार (TMC) पर आरोप लगते रहे हैं कि वह राजनीतिक फायदे के लिए इन अवैध मुस्लिम घुसपैठियों के साथ सख्ती से पेश नहीं आती है। पश्चिम बंगाल के अलावा, त्रिपुरा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे अन्य सीमावर्ती राज्यों में भी अवैध प्रवासियों के आने की समस्या देखी गई है।

भारत में धार्मिक जनसंख्या में बदलाव पर रिचर्स

एक रिसर्च पेपर के अनुसार, भारत की धार्मिक पॉपुलेशन की संरचना में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए हैं। इस स्टडी को इकोनॉमिस्ट और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य प्रोफेसर शमिका रवि और उनके साथियों ने मिलकर किया है। इस स्टडी में 2001 से 2011 तक की जनगणना के आँकड़ों का विश्लेषण किया गया, जिसमें भारत के 640 जिलों की धार्मिक स्ट्रक्चर को देखा गया।

2001 से 2011 के बीच भारत की जनसंख्या में महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए हैं। इस दौरान देश की कुल जनसंख्या 17.7% बढ़ी। इस वृद्धि के बावजूद, धार्मिक-मजहबी समूहों की जनसंख्या बढ़ने की गति अलग-अलग रही। सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला समूह मुस्लिमों का था, जिनकी जनसंख्या 24.6% बढ़ी। वहीं, जैन समुदाय की जनसंख्या सबसे धीमी गति से बढ़ी, जो केवल 5.4% थी।

इस दशक में, भारत की कुल आबादी में हिंदुओं का हिस्सा थोड़ा कम हो गया। यह 2001 में 80.46% से घटकर 2011 में 79.8% हो गया। इसके विपरीत, मुस्लिमों का हिस्सा 13.43% से बढ़कर 14.23% हो गया। एक और दिलचस्प बात यह सामने आई कि जिन लोगों ने जनगणना में अपना धर्म नहीं बताया, उनकी संख्या तीन गुना से ज़्यादा बढ़ गई। इससे पता चलता है कि समाज में कुछ और बदलाव भी हो रहे हैं, जिनका संबंध धार्मिक पहचान बताने से नहीं है।

पश्चिम बंगाल में अवैध घुसपैठ और कुछ जिलों में मुस्लिम पॉपुलेशन में बढ़ोतरी के कारण जनसांख्यिकी में बदलाव देखा गया है। मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे जिलों में मुस्लिम पॉपुलेशन हिंदू पॉपुलेशन की तुलना में तेजी से बढ़ी है। यह सिर्फ एक प्राकृतिक बढ़ोतरी नहीं है, बल्कि सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ भी इसमें एक बड़ा कारण है।

इस बदलाव के कारण, कुछ जिलों में हिंदुओं की आबादी एक प्रतिशत से ज़्यादा घट गई है, जो राष्ट्रीय स्तर पर आबादी में होने वाले बदलाव की तुलना में काफी ज़्यादा है। यह स्थिति राज्य के इन हिस्सों में सामाजिक और राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर रही है।

असम के कई जिलों में मुस्लिमों की आबादी पहले से ज़्यादा हो गई है। खासकर वे जिले जो बांग्लादेश की सीमा के पास हैं, वहाँ यह बढ़ोतरी साफ देखी गई है। धुबरी, बारपेटा, ग्वालपाड़ा और मोरीगाँव जैसे जिलों में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है, बल्कि कई कारणों से धीरे-धीरे हुआ है।

एक बड़ा कारण अवैध प्रवासन है। बांग्लादेश से लोग बिना अनुमति के सीमा पार करके असम में आते रहे हैं। इनमें ज़्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय से होते हैं। इसके अलावा कुछ जगहों पर धर्मांतरण भी हुआ है, जिससे मुस्लिम आबादी और बढ़ी है।

इस बदलाव से स्थानीय लोगों में चिंता बढ़ी है। उन्हें लगता है कि इससे उनकी पहचान और जीवनशैली पर असर पड़ेगा। बहुत से लोगों को डर है कि कहीं उनकी संस्कृति और धर्म खतरे में न पड़ जाए। साथ ही, रोज़गार और ज़मीन जैसे संसाधनों पर दबाव बढ़ने की भी आशंका है। इस वजह से लोगों में नाराज़गी और असुरक्षा की भावना बढ़ी है।

अगर हम भारत के अलग-अलग जिलों में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई आबादी के बढ़ने की रफ्तार देखें, तो हमें कुछ खास बातें पता चलती हैं। एक शोध में यह पाया गया कि 458 जिलों में मुस्लिमों की जनसंख्या में बढ़ोतरी की दर 18% से ज़्यादा थी। यह देश के कुल जिलों का 72% है।

इसके मुकाबले, हिंदुओं की जनसंख्या में बढ़ोतरी की दर 268 जिलों (42%) में 18% से ज़्यादा थी, जबकि ईसाइयों की जनसंख्या में बढ़ोतरी की दर 417 जिलों (65%) में 18% से ज़्यादा पाई गई।

यह भी देखा गया कि 79 जिलों में ईसाइयों की आबादी कम हुई, जबकि हिंदुओं के मामले में यह संख्या 50 और मुस्लिमों के लिए 28 थी। इसके अलावा, शोध में यह भी पता चला कि 238 जिलों में ईसाई आबादी 50% से भी ज़्यादा बढ़ी। हिंदुओं के लिए यह संख्या केवल 23 और मुस्लिमों के लिए 55 थी।

एक अध्ययन में 2001 से 2011 तक के बीच ईसाइयों, हिंदुओं और मुस्लिमों की आबादी में आए बदलावों को ध्यान से देखा गया। इस दौरान यह देखा गया कि देश के ज़्यादातर जिलों में मुस्लिम आबादी का हिस्सा बढ़ा है। कुल 80% जिलों में मुस्लिमों की जनसंख्या का अनुपात पहले से ज़्यादा हो गया है।

हिंदुओं की बात करें तो केवल 27% जिलों में ही उनकी आबादी का हिस्सा बढ़ा है। ईसाई आबादी का हिस्सा 69% जिलों में बढ़ा। यानी ईसाई और मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या ज़्यादातर जिलों में बढ़ी है, जबकि हिंदुओं की अपेक्षाकृत कम जिलों में।

अगर आबादी के हिस्से में बढ़ोतरी को थोड़ा गहराई से देखें, तो पाया गया कि 150 जिलों में मुस्लिम आबादी का हिस्सा 0.8% से ज़्यादा बढ़ा है। हिंदुओं के लिए यह बढ़त केवल 60 जिलों में हुई और ईसाइयों के लिए सिर्फ 50 जिलों में। इसका मतलब है कि सबसे तेज़ बढ़ोतरी मुस्लिम आबादी में हुई है।

अब गिरावट की बात करें तो 227 जिलों में हिंदुओं की आबादी का हिस्सा 0.7% से ज़्यादा घट गया है। वहीं, मुस्लिमों की आबादी में ऐसी गिरावट सिर्फ 24 जिलों में और ईसाइयों की सिर्फ 32 जिलों में दर्ज की गई है।

पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्यों में ईसाई आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ी है। नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में यह बदलाव साफ देखा गया है। 2001 से 2011 के बीच, देश के 238 जिलों में ईसाई आबादी में 50% से ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है। इन इलाकों में ईसाई मिशनरियाँ काफी सक्रिय रही हैं। कहा जाता है कि वे गरीब और गैर-ईसाई जनजातीय लोगों को आर्थिक मदद, नौकरी, शिक्षा और इलाज का वादा देकर धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित कर रही हैं।

दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में हिंदुओं की आबादी में गिरावट देखी गई है। यही हाल उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में भी है। महाराष्ट्र, कर्नाटक के तटीय जिले और केरल का मालाबार क्षेत्र भी इस बदलाव का हिस्सा रहे हैं। यहाँ भी हिंदू आबादी कम हुई है। इसके अलावा, महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच के जिलों में भी हिंदू आबादी में कमी आई है।

पेपर में यह भी बताया गया है कि कुछ खास इलाकों में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है, जैसे- महाराष्ट्र के बीच के जिले, कर्नाटक और मालाबार के तटीय इलाके और पश्चिम बंगाल व असम के पूर्वी जिले। यहाँ मुस्लिम आबादी के अनुपात में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

इन सब बातों को अगर एक नक्शे में देखें तो भारत में धर्म के आधार पर जनसंख्या में जो बदलाव आ रहे हैं, वो चिंता पैदा करने वाले हैं। यह दिखाता है कि कुछ जगहों पर जनसंख्या का संतुलन तेजी से बदल रहा है और इससे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ सकते हैं।

इस विश्लेषण में यह बताया गया है कि भारत में धार्मिक बदलाव सिर्फ राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर देखने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती। जिला स्तर पर जो बदलाव हो रहे हैं, वे कई बार नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। जबकि असली बदलाव वहीं से शुरू होते हैं।

धार्मिक जनसंख्या में जो परिवर्तन होता है, वह केवल यह नहीं दिखाता कि कितने लोग बढ़े हैं। यह भी देखना जरूरी होता है कि किस धर्म की आबादी कितनी तेजी से बढ़ रही है। यानी बात केवल कुल संख्या की नहीं, बल्कि बढ़ने की रफ्तार की भी है।

साथ ही, यह बात भी मायने रखती है कि किसी जिले में किसी धर्म की शुरूआती हिस्सेदारी कितनी थी। अगर किसी धर्म की जनसंख्या पहले से कम थी, लेकिन वह तेजी से बढ़ी तो उसका असर ज्यादा दिखाई देगा। इसलिए धार्मिक बदलाव को समझने के लिए सिर्फ बड़ी तस्वीर नहीं, बल्कि छोटे-छोटे इलाकों की स्थिति को भी ध्यान से देखना जरूरी है।

जनवरी 2025 में एक रिपोर्ट आई थी जिसे सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ (CPS) नाम के थिंक-टैंक ने जारी किया था। इसमें बताया गया कि भारत के कई राज्यों में धर्म के आधार पर जनसंख्या का संतुलन बदल रहा है। खासकर केरल में यह बदलाव साफ दिखता है। केरल में मुस्लिमों की जनसंख्या 2011 में 27% थी, लेकिन 2015 के बाद पैदा होने वाले बच्चों में उनकी हिस्सेदारी हिंदुओं से ज़्यादा हो गई।

2019 में केरल में जितने बच्चों का जन्म हुआ, उनमें 44% मुस्लिम थे और 41% हिंदू। यह बदलाव अचानक नहीं आया। 2008 से 2021 के बीच मुस्लिमों की हिस्सेदारी धीरे-धीरे बढ़ती गई। कई सालों में तो उनकी हिस्सेदारी हिंदुओं से ज़्यादा हो गई। वहीं, ईसाइयों की हिस्सेदारी भी कम होती गई।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 2008 से 2019 के बीच मुस्लिमों की हिस्सेदारी 36% से बढ़कर 44% हो गई। इसी दौरान हिंदुओं की हिस्सेदारी 45% से घटकर 41% और ईसाइयों की 17% से घटकर 14% रह गई। इसका मतलब है कि जन्म के आँकड़ों में मुस्लिमों की संख्या, उनकी कुल जनसंख्या से कहीं ज्यादा है। यानी उनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है।

एक और अध्ययन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने किया था। इसमें बताया गया कि 1950 से 2015 के बीच, भारत में हिंदुओं की हिस्सेदारी 84% से घटकर 78% हो गई। वहीं, मुस्लिमों की हिस्सेदारी 9.8% से बढ़कर 14% हो गई। यानी मुस्लिमों की आबादी में बहुत तेज बढ़ोतरी हुई है। इसके साथ ही ईसाई और सिख आबादी भी थोड़ी बढ़ी है।

ये सारे आँकड़े दिखाते हैं कि मुस्लिमों की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। जबकि हिंदुओं की कुल मिलाकर घट रही है। भारत की कुल प्रजनन दर अब 2 से भी कम हो गई है और कुछ राज्यों में यह और भी नीचे है। यह जनसंख्या संतुलन के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है।

इस बदलाव के पीछे धर्मांतरण, लालच और अन्य सामाजिक दबावों की भूमिका पर भी सवाल उठे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह केवल जनसंख्या नहीं, बल्कि सोच-समझकर किया गया एक रणनीतिक बदलाव है। इसलिए यह विषय सिर्फ आँकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा हुआ है।

बदलती जनसांख्यिकी: भारत की संस्कृति, सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता पर गहराता संकट

यह बात शायद बार-बार सुनने को मिलती है, लेकिन सच यही है कि ‘जनसांख्यिकी’ यानी लोगों की संख्या और उनकी बनावट बहुत मायने रखती है। इतिहास में देखा गया है कि जहाँ भी हिंदू लोग कम हो गए, वहाँ धर्मनिरपेक्षता यानी सभी धर्मों को समान मानने की नीति खत्म हो गई। भारत का जो धर्मनिरपेक्ष स्वभाव है, वह इसलिए बना हुआ है क्योंकि यहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं।

जब जनसंख्या में बदलाव होता है, जैसे सीमाओं के पास अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठिए आने लगते हैं या मुस्लिमों की संख्या जल्दी बढ़ने लगती है तो इससे देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। कई बार ये अवैध लोग सीमा पार तस्करी करते हैं, हिंसा फैलाते हैं और धर्म परिवर्तन भी कराते हैं। साथ ही, वे स्थानीय लोगों की नौकरियाँ, आजीविका और संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं। इससे भारत के अपने लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ जाती हैं और उनका भविष्य खतरे में आ जाता है।

इसके अलावा, जिन इलाकों में मुस्लिम ज्यादा हैं, वहाँ हिंदू मंदिरों को नुकसान पहुँचाने की कई घटनाएँ हुई हैं। इन घटनाओं में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ा गया और मंदिरों के पास गायों के सिर और बाकी हिस्से भी फेंके गए। जैसे, जून 2025 में धुबरी में हनुमान मंदिर में बकरीद के बाद गाय का कटा हुआ सिर मिला था।

जनसंख्या में इन बदलावों से भारत की संस्कृति को भी खतरा है। त्रिपुरा में देखा गया है कि वहाँ की हिंदू जनजातीय आबादी, मुस्लिमों के मुकाबले कमजोर हो गई है। इन बदलावों के कारण हिंदुओं के खिलाफ हिंसा भी बढ़ रही है। अपनी ताकत दिखाने के लिए मस्लिम मंदिरों को नुकसान पहुँचा रहे हैं, गोहत्या कर रहे हैं और भीड़ बनाकर हिंदुओं पर हमला कर रहे हैं।

कई जगहों पर ऐसा देखा गया है कि जहाँ मुस्लिम आबादी बहुत अधिक है, वहाँ हिंदू और अन्य गैर-मुस्लिम लोग खुलकर अपने त्योहार या परंपराएँ नहीं निभा पाते। ऐसे इलाके ‘मुस्लिम क्षेत्र’ जैसे बन जाते हैं, जहाँ बाकी समुदायों को डर लगता है।

कई बार ऐसा हुआ है कि हिंदू लोग जब अपने धार्मिक जुलूस लेकर मुस्लिम इलाकों से गुजरे तो उन पर पथराव हुआ। कुछ मामलों में तो मस्जिदों से ऐलान कर लोगों को जमा किया गया और फिर भीड़ ने हमला किया। सिर्फ त्योहार ही नहीं, अगर कोई हिंदू क्रिकेट मैच जीतने की खुशी मना रहा हो, तब भी उस पर हमला कर दिया गया।

ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग कई बार हुई है। रामनवमी, हनुमान जयंती, कावड़ यात्रा जैसे धार्मिक कार्यक्रमों के समय हिंसा की घटनाएँ सामने आईं। यहाँ तक कि जब देश ने क्रिकेट विश्व कप जीता या किसी फिल्म में इस्लामी हमलावरों को सच दिखाया गया, तब भी प्रतिक्रिया हिंसक रही। इन घटनाओं से पता चलता है कि कुछ लोगों को दूसरों की धार्मिक अभिव्यक्ति या जीत की खुशी भी सहन नहीं होती।

धार्मिक जनसंख्या में बदलाव धीरे-धीरे होता है। लेकिन इसके असर बहुत गहरे और दूरगामी होते हैं। कई जगहों पर देखा गया है कि जहाँ मुस्लिमों की संख्या ज़्यादा हो गई, वहाँ हिंदू त्योहारों को खुलेआम मनाने में दिक्कत आने लगी। जैसे होली, दिवाली, दुर्गा पूजा, गणेशोत्सव जैसे त्योहारों पर आपत्ति जताई गई। कई बार हिंदुओं को धमकाया गया, मारा गया या दबाव डाला गया कि वे अपने त्योहार न मनाएँ।

ऐसा सिर्फ मुस्लिम बहुल इलाकों में ही नहीं, बल्कि मिली-जुली आबादी वाले क्षेत्रों में भी हुआ है। ये घटनाएँ बताती हैं कि कुछ इलाकों में धार्मिक असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि लोग डरकर जीने लगे हैं।

उत्तर प्रदेश के संभल जिले में एक बड़ा उदाहरण मिला। वहाँ एक मस्जिद के सर्वे को लेकर बड़ा हंगामा हुआ। कहा गया कि वह मस्जिद असल में एक पुराना हरिहर मंदिर था। उस इलाके में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। वहाँ के कई हिंदू मंदिर अब सुनसान और बंद पड़े हैं। वजह ये है कि मुस्लिमों ने उन इलाकों में धीरे-धीरे कब्जा कर लिया और हिंदू समुदाय को या तो वहाँ से हटना पड़ा या चुपचाप रहना पड़ा।

जब किसी जगह पर मुस्लिमों की आबादी ज़्यादा हो जाती है, तो वहाँ की राजनीति भी बदलने लगती है। मुस्लिम आमतौर पर एकजुट होकर वोट करते हैं। इसलिए कई राजनीतिक पार्टियाँ उनका समर्थन पाने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति करने लगती हैं। इससे इस्लामवादियों को ताकत मिलती है। उन्हें लगता है कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि उनके पीछे राजनीतिक ताकत खड़ी है।

हिंदू या दूसरे गैर-मुस्लिम समुदाय इतनी एकता से वोट नहीं करते। इसलिए उनका असर धीरे-धीरे कम होने लगता है। जैसे-जैसे जनसंख्या में बदलाव होता है, वैसे-वैसे चुनाव के नतीजे भी बदल जाते हैं। जो समुदाय ज़्यादा होता है, उसका प्रतिनिधित्व बढ़ जाता है और बाकियों की आवाज दब जाती है।

ऐसा पहले भी हो चुका है। आजादी से पहले बंगाल और पंजाब जैसे इलाकों में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी। वहाँ सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ने लगे। इस माहौल का फायदा मुस्लिम लीग ने उठाया। उन्होंने माँग की कि मुसलमानों को अलग से चुनाव में सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवारों को ही वोट देने का अधिकार मिले।

अंग्रेजों ने इस माँग को मान लिया। उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई। 1909 में मॉर्ले-मिंटो सुधारों के जरिए मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचिकाएँ बन गईं। फिर 1935 में भारत सरकार अधिनियम के जरिए इन्हें और बढ़ा दिया गया। इस तरह मुस्लिमों को खास राजनीतिक अधिकार मिल गए, जबकि हिंदुओं को ऐसा कुछ नहीं मिला। यही चीज़ें बाद में भारत के बँटवारे की वजह बनीं।

1876 में सैयद अहमद खान ने ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ का विचार सामने रखा था। इसका मतलब था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। यानी वे एक साथ नहीं रह सकते। यह सोच मुस्लिमों के बीच अलगाव की भावना को जन्म देती गई। जब बाद में मुस्लिमों को पृथक निर्वाचिका यानी अलग से सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देने का अधिकार मिला तो इस सोच को और मजबूती मिली।

इस्लाम में गैर-मुस्लिमों को खास सम्मान नहीं दिया जाता। मूर्ति पूजने वाले हिंदुओं को तो ‘मुशरिक’ यानी सबसे बड़ा पापी कहा गया है। इसलिए अगर कुछ मुस्लिम हिंदुओं, सिखों या दूसरे गैर-मुस्लिमों को पसंद नहीं करते तो यह बहुत चौंकाने वाली बात नहीं है। मुस्लिम लीग ने इस सोच का फायदा उठाया। उन्हें जो राजनीतिक अधिकार मिले थे, उनका इस्तेमाल भारत को बाँटने की माँग करने में किया गया। इससे देश में अलगाव की भावना और बढ़ गई।

आज कई लोग कहते हैं कि 1947 में भारतीय मुस्लिमों ने भारत को चुना, पाकिस्तान को नहीं। लेकिन सच्चाई यह है कि 1946 के चुनावों में ज़्यादातर मुस्लिमों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया था। मुस्लिम लीग उस समय एक अलग इस्लामी देश की माँग कर रही थी। उनका कहना था कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए मुसलमानों को आजादी के बाद अपना अलग देश चाहिए। यही माँग बाद में पाकिस्तान के निर्माण की वजह बनी।

1946 में जब भारत आज़ादी की दहलीज पर खड़ा था, तब मुस्लिम लीग ने एक बड़ा राजनीतिक फैसला लिया। उस साल हुए प्रांतीय चुनावों में उन्होंने कुल 87% मुस्लिम सीटें जीत लीं। यह दिखाता है कि ज़्यादातर मुसलमान उस समय लीग के साथ थे, जो भारत को धर्म के आधार पर बाँटकर एक अलग इस्लामी देश की माँग कर रही थी।

इसी सोच के तहत जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया। इसके बाद देश में हिंसा भड़क गई। जगह-जगह खून बहा, बलात्कार हुए, आगजनी हुई और चारों तरफ अराजकता फैल गई। लाखों निर्दोष लोग मारे गए और इन्हीं लाशों के ऊपर पाकिस्तान बना।

इस इतिहास को याद करना जरूरी है क्योंकि आज भी कई जगह वही सोच फिर से दिखने लगी है। जहाँ कहीं मुस्लिमों की आबादी ज़्यादा हो जाती है, वहाँ वे अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश करते हैं। चाहे वह कोई छोटी बस्ती हो या कोई पूरा इलाका। कई बार वे सरकार पर दबाव बनाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं, जैसा हाल ही में वक्फ विधेयक के विरोध के दौरान देखा गया, जहाँ हिंदुओं को निशाना बनाया गया। कुछ जगहों पर वे आरक्षण जैसी विशेष माँगें भी करने लगते हैं।

विभाजन का घाव आज भी भारत के मन में ताजा है। खासकर हिंदू समाज अब ऐसी किसी भी सोच या योजना को स्वीकार नहीं कर सकता, जो भारत की एकता और अखंडता को चोट पहुँचाए। देश के कुछ मुस्लिम बहुल इलाके अब ‘मिनी पाकिस्तान’ जैसे बनते जा रहे हैं, जहाँ देश की मुख्यधारा से अलग सोच हावी होती दिखती है। यही चिंता का विषय है।

जब भारत कोई बड़ा क्रिकेट मैच जीतता है, तो देशभर में लोग खुशी मनाते हैं। लेकिन कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में जब हिंदू लोग जीत का जश्न मनाते हैं तो उन पर हमला किया जाता है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहाँ मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं पर हिंसा की। इसी तरह, कई जगहों पर जब हिंदू अपने त्योहार जैसे दीवाली, होली या रामनवमी मनाते हैं तो मुस्लिम समुदाय उसका विरोध करता है। लेकिन इसके बावजूद, अक्सर यह दिखाया जाता है कि मुस्लिम ही पीड़ित हैं, जबकि सच्चाई उलटी होती है।

प्रधानमंत्री मोदी ने जनसंख्या में हो रहे बदलाव को लेकर जो चिंता जताई है, वह सही है। 2021 में एक सर्वे हुआ था जिसमें 74% भारतीय मुस्लिमों ने कहा था कि वे भारत के कानूनों से ज़्यादा शरिया कानून को मानते हैं। यह दिखाता है कि बहुत से मुस्लिम भारत की न्याय व्यवस्था से खुद को नहीं जोड़ते। उनकी सोच मुख्य समाज से अलग है। अगर मुस्लिम आबादी तेज़ी से बढ़ती रही तो इसका सबसे बुरा असर हिंदुओं पर पड़ेगा।

बांग्लादेश में जब हाल ही में सरकार बदली और चरमपंथी ताकतें मज़बूत हुई तो वहाँ हिंदुओं पर हमले शुरू हो गए। यही हाल भारत के कुछ हिस्सों में भी देखने को मिला, जैसे मुर्शिदाबाद, जहाँ वक्फ कानून का विरोध करते समय हिंदुओं पर हमला हुआ। इन सभी घटनाओं में एक बात साफ है कि ‘जब मुस्लिम प्रभुत्व बढ़ता है तो सबसे पहले हिंदू समुदाय को ही उसका शिकार बनना पड़ता है।’

भारत का विभाजन सिर्फ जमीन का बँटवारा नहीं था, यह सोच और विचारधारा का भी टकराव था। उस समय, कई मुस्लिमों ने हिंदुओं और सिखों पर अत्याचार किए, लेकिन खुद को दुनिया के सामने पीड़ित बताने की कोशिश की। यह सब इस्लामी सोच से प्रेरित था, जिसमें वे अपने मजहब को दूसरों से ऊँचा मानते थे। दुर्भाग्य से, उस समय भारत के धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने इस कट्टरपंथी सोच के सामने झुकाव दिखाया। इसी झुकाव के कारण भारत का बँटवारा हुआ।

अब भारत अपनी आज़ादी की 79वीं सालगिरह मना रहा है। इतने सालों में भारत ने हर क्षेत्र में प्रगति की है और तकनीक, शिक्षा, सेना, अर्थव्यवस्था, हर जगह आगे बढ़ा है। दूसरी ओर, पाकिस्तान एक असफल देश बनकर रह गया, जिसका 1971 में खुद ही बँटवारा हो गया और बांग्लादेश बना।

लेकिन चिंता की बात यह है कि अगर भारत की जनसंख्या की बनावट यानी जनसांख्यिकी बदली गई तो हमारी सारी तरक्की व्यर्थ हो जाएगी। अगर मुस्लिम आबादी कुछ इलाकों में बहुत ज़्यादा बढ़ती गई और अवैध प्रवासियों को समय पर रोका नहीं गया तो देश का सामाजिक संतुलन बिगड़ जाएगा।

सरकार ने इस पर ध्यान देना शुरू किया है। एक जनसांख्यिकी मिशन की शुरुआत की गई है। इसके साथ-साथ जरूरी है कि अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर निकाला जाए। साथ ही, जो लोग हिंदुओं, सिखों या अन्य गैर-मुस्लिमों का जबरन धर्मांतरण कराना चाहते हैं, उनके खिलाफ सख्त कानून बने और लागू हों।

आज भारत धर्मनिरपेक्ष है, यानी हर धर्म को बराबरी दी जाती है। लेकिन यह इसलिए संभव है क्योंकि यहाँ हिंदू बहुसंख्या में हैं। अगर हिंदू ही कम हो गए तो भारत का चेहरा भी बदल जाएगा। फिर यह देश वैसा नहीं बचेगा, जैसा आज है, बल्कि यह एक और पाकिस्तान बनने की दिशा में बढ़ सकता है।

मूल रूप से ये रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा में श्रद्धा पाण्डेय ने लिखी है। मूल रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें



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