स्ट्रेट ऑफ होर्मुज एक बार फिर सुर्खियों में है। इजरायल के साथ तनाव बढ़ने पर ईरान ने हाल ही में धमकी दी है कि वो इस जलमार्ग को बंद कर देगा। होर्मुज कोई साधारण रास्ता नहीं है। ये तेल के लिए संकरा पर उन सबसे महत्वपूर्ण जलमार्गों में से एक है जहाँ से रोजाना दुनिया के 20% तेल की खपत यानी लगभग 2.1 करोड़ बैरल का आवागमन होता है।
इजरायल- ईरान संघर्ष के चलते होर्मुज जलडमरूमध्य का रास्ता बंद होता है तो तेल की कीमतें आसमान छू सकती हैं और वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर भी काफी असर पड़ेगा। असल में फारस की खाड़ी से बाहर निकलने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। ऐसे में हर टैंकर को होर्मुज जलडमरूमध्य से होकर ही गुजरना पड़ता है। इससे उन देशों को भी तेल की भारी कीमतों का खामियाजा भुगतना पड़ता है जो खाड़ी देशों से तेल लेते भी नहीं।
हालाँकि ये पहली बार नहीं है कि ईरान ने होर्मुज जलडमरूमध्य को युद्ध में मोहरा बनाया हो। 1980 के दशक में ‘टैंकर युद्ध’ के दौरान, ईरान और इराक ने तेल के जहाजों को निशाने पर लिया, लेकिन उस समय भी रास्ता पूरी तरह से बंद नहीं हुआ था। अब ऐसा करने से ईरान को भी अपने निर्यात पर नुकसान झेलना पड़ेगा और जाहिर तौर पर अमेरिकी सेना इस पर हस्तक्षेप करेगी। गौरतलब है कि बेहरीन में स्थित अमेरिका का पाँचवाँ बेड़ा इन जल क्षेत्रों की निगरानी करता है।
फिर भी, धमकी एक बहुत बड़ा हथियार है। ईरान के लिए जहाज के रास्तों को अपना निशाना बनाना महज एक रणनीतिक चाल है। इसके जरिए वह किसी भी युद्ध पर सीधे दबाव बना सकता है और ईरान प्रॉक्सी वार्स (छद्म युद्ध) में माहिर है। इस बिनाह पर दुनिया को याद दिलाया जाता है कि ये एकलौता रास्ता है जिसके कुछ किलोमीटर में ही दुनियाभर के व्यापार को बंधक बनाया जा सकता है । होर्मुज की स्थिति ऐतिहासिक सच्चाई की तरफ इशारा करती है जो समुद्री रास्तों के चोकप्वाइंट्स पर पैसे और ताकत के बल पर नियंत्रण रखता है। ये सच्चाई सदियों से युद्ध के लिए साम्राज्यों को भड़काती रही है।
कालीकट पर वास्को डि गामा – साम्राज्य के लिए बंदरगाह की ताकत
बंदरगाहों की रणनीतिक ताकत कोई नई बात नहीं है। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने दुनिया की दिशा को बदलकर रख दिया। 500 साल पहले, एक समुद्री रास्ते ने भारत का इतिहास ही बदल दिया। 1498 में, वास्को डि गामा भारत के मालाबार तट पर कालीकट पहुँचे। वे पहले यूरोपीय व्यक्ति थे जिन्होंने अरब और तुर्कों पर बिना निर्भर हुए भारत का समुद्री मार्ग खोज निकाला। उनके जरिए दुनिया को आने वाले समय में दुनिया को पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर भारत में यूरोपीय ताकतों के उपनिवेशवाद के लिए एक नया रास्ता मिला।

सदियों तक यूरोप में मसालों का व्यापार वेनिस और मिडिल ईस्ट के साझेदारों के साथ होता था जिन्होंने जमीन के रास्ते पर अपना नियंत्रण कर रखा था। हालाँकि वास्को डि गामा के समुद्री रास्ते के आने से वेनिस की पकड़ कमजोर हो गई। इससे पुर्तगाल को मिर्च, दालचीनी और लौंग जैसे मसालों के लिए सीधे व्यापार करने का मौका मिला। उससे उन्हें मुनाफा भी हुआ। यहाँ पर ये बताना जरूरी है कि पुर्तगाल एक बहुत छोटा सा देश था जिसकी जनसंख्या सिर्फ 15 लाख ही थी।
पुर्तगालियों को ये बात बहुत जल्दी समझ में आ गई थी कि बंदरगाहों पर अपना नियंत्रण करने से अपने साम्राज्य को भी बढ़ाया जा सकता है। उनके रणनीतिकार एडमिरल अल्फोंसो द अल्बुकर्क ने इस बात को समझा कि हिंद महासागर ट्रेड पर नियंत्रण पाने के लिए कुछ स्ट्रैटजिक (रणनीतिक) बंदरगाहों और समुद्री मार्गों (चोकप्वाइंट्स) की ओर ध्यान देने से व्यापार को बढ़ाया जा सकता है।
इसके बाद संधि और दबाव बना कर, पुर्तगालियों ने एक एक के बाद एक कई बंदरगाहों पर अपना कब्जा जमा लिया। भारत में गोवा (1510), होर्मुज की खाड़ी के मुहाने पर और दक्षिण एशिया में मलक्का (1511) पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इनका असल मकसद सभी मसालों के व्यापार को लिस्बन की ओर ले जाना था।
हालाँकि यह योजना कुछ समय के लिए सफल हो पाई, पर काम कर गई। 1500 के दशक की शुरुआत में, वेनिस के मसाला व्यापार का राजस्व एक-तिहाई तक गिर गया, क्योंकि व्यापार पुर्तगाली बंदरगाहों की ओर चला गया था। वैसे तो पुर्तगाल का पूर्वी साम्राज्य काफी फैला और फिर उसका पतन हो गया, लेकिन इससे एक बात साफ हो गई कि अगर बंदरगाह पर कब्जा कर लिया जाए तो पैसे और ताकत को अपने वश में किया जा सकता है।
अन्य यूरोपीय शक्तियों ने इस बात का सबक लिया। लगभग एक सदी बाद ब्रिटिश भारत पहुँचे और उन्होंने भी इसी तरह तटीय क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य जमाकर व्यापार की शुरुआत की। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1649 में मद्रास, 1660 के दशक में बॉम्बे, और 1690 में कलकत्ता जैसे प्रमुख बंदरगाहों पर अपने व्यापार के लिए चौकियाँ स्थापित की। ये सभी बंदरगाह स्थानीय शासकों से लिए गए थे।
यहीं से अंग्रेज अपनी सैन्य ताकत को भी अंदर तक ले गए। 18वीं सदी के मध्य में, जब मुगल साम्राज्य तितर- बितर हो रहा था, तब ब्रिटिशों ने इन बंदरगाहों का उपयोग किया और भारतीय राज्यों को एक-एक कर हड़पना शुरू किया। इसके जरिए उन्होंने पूरे उपमहाद्वीप पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
सेवास्तोपोल- पानी के जरिए रूस की व्यापारिक जीवनरेखा
बंदरगाह न केवल औपनिवेशिक व्यापारियों की ताकत थे बल्कि उन उभरती महाशक्तियों के लिए भी अहम थे जिनके पास समुद्री रास्तों का अभाव था। इसका एक उदाहरण है क्रीमिया प्रायद्वीप पर स्थित रूस का सबसे जरूरी बंदरगाह सेवास्तोपोल।
जार के काल से लेकर पुतिन तक, सेवास्तोपोल को विश्व के महासागरों तक पहुँच की जीवनरेखा माना जाता रहा है। यह रूस का एकमात्र गर्म जल वाला नौसैनिक बंदरगाह है। इसका उपयोग साल के उन दिनों तक में भी किया जाता है जब उत्तर और पूर्व के बंदरगाह बर्फ से ढक जाते हैं।

कैथरीन द ग्रेट ने 1783 में सबसे पहले क्रीमिया पर कब्जा किया ताकि इस गर्म पानी की निकासी को सुरक्षित कर सके। इसके कारण रूस की सालभर काम में आने वाले बंदरगाह की तलाश को खत्म किया। तभी से,सेवास्तोपोल का काला सागर बंदरगाह रूस के लिए भूमध्यसागर और उससे आगे तक जाने का अहम जरिया बन गया। इसी वजह से क्रीमिया सदियों से संघर्ष का केंद्र रहा है।
1853–1856 के क्रीमियाई युद्ध में, ब्रिटेन और फ्रांस ने रूस के विस्तार को रोकने और ओटोमन तुर्की की रक्षा के लिए युद्ध किया। सहयोगियों को ये पता था कि सेवास्तोपोल का काला सागर रूस की नौसेना का केंद्र है। 1854 में विशेष तौर पर सेवास्तोपोल पर कब्जा जमाने के लिए क्रीमिया पर आक्रमण किया। यहाँ पर जार की ब्लैक सी फ्लीट तैनात थी।
ये बंदरगाह रणनीतिक रूप से इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि ये जार के ब्लैक सी फ्लीट का मुख्य बिंदू था। यहीं से रूस भू-मध्यसागर में अपने युद्धपोत भेज सकता था। लगभग एक साल तक चले खूनी संघर्ष और घेराबंदी के बाद सेवास्तोपोल ध्वस्त हो गया और कुछ समय के लिए रूस की नौसैनिक शक्ति भी निष्क्रिय हो गई। तब के बाद अब 2014 की बात करें जब सेवास्तोपोल एक बार फिर संकट में आ गया था।
कीव में रूस के समर्थक राष्ट्रपति को जब सत्ता से हटाया गया तो मॉस्को को डर सताया कि सेवास्तोपोल में लीज पर लिया गया उसका नौसैनिक अड्डा विरोधी सरकार के हाथ में जा सकता है। इसके जवाब में क्रेमलिन की नाटकीय प्रतिक्रिया सामने आई। रूसी सेना ने क्रीमिया पर सीधे कब्जा कर लिया और सेवास्तोपोल के बंदरगाह पर अपना नियंत्रण फिर से स्थापित कर दिया। राष्ट्रपति पुतिन ने यह कदम खुलेआम उठाया, इसके कारण उसे G-8 देशों की सूची से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालाँकि इससे रूस का काला सागर बेड़ा सुरक्षित हो गया।
रूस के लिए सेवास्तोपोल में नौसैनिक अड्डा बनाए रखना रणनीतिक तौर पर ही अहम नहीं था बल्कि आत्म-सम्मान का विषय भी था। सेवास्तोपोल रूस का एकमात्र गर्म जल वाला बंदरगाह है। वहाँ लगभग 15,000 सैन्यकर्मी तैनात थे और रूस के पास असल में इसका कोई विकल्प चुन पाना असंभव था। ऐसे में अगर सेवास्तोपोल हाथ से जाता तो रूस की नौसेना को सागर में ही रह जाती। सेवास्तोपोल ही एकमात्र रास्ता है जिससे रूस अपने युद्धपोतों को तुर्की के जलडमरूमध्य से होकर भूमध्यसागर में भेज सकता है।
सेवास्तोपोल को बचाए रखने की जरूरत के कारण ही रूस ने 2014 में क्रीमिया पर कब्जा किया। उसी तरह जैसे 1783 में कैथरीन ने किया था। ये बंदरगाह राष्ट्रीय गौरव और नौसैनिक रणनीति का प्रतीक बन गया।
काला सागर पर तुर्की का नियंत्रण
जिस तरह सेवास्तोपोल रूस के लिए समुद्री रास्ते का द्वार है, उसी तरह तुर्की के पास दो अहम जलमार्ग हैं- बॉस्फोरस और डार्डानेल्स। ये ही काला सागर से भूमध्यसागर के बीच का एकमात्र निकास मार्ग हैं। तुर्की के इन जलडमरूमध्यों ने कभी कुस्तुनतुनिया कहे जाने वाले वर्तमान के इस्तांबुल को समुद्र के गेटकीपर के तौर पर काफी रणनीतिक शक्ति दी है। 1936 की मॉन्ट्रे संधि के बाद से तुर्की का इन स्ट्रेट्स पर पूरा नियंत्रण है। वह शांति और युद्ध दोनों में नौसैनिक यातायात को नियंत्रित कर सकता है।

शांति के दिनों में, कॉमर्शियल जहाज इन जलडमरूमध्यों से आराम से निकल जाते हैं। लेकिन, मॉन्ट्रे संधि विदेशी युद्धपोतों के साइज (आकार) और काला सागर में रुकने की अवधि पर सख्त सीमा लगाती है ताकि कोई बाहरी ताकत काला सागर में हमेशा के लिए न बस सके।
केवल 6 काला सागर देशों जिनमें तुर्की, रूस, यूक्रेन, जॉर्जिया, रोमानिया और बुल्गारिया शामिल हैं, को ही पानी में अपनी पूरी नौसेना को रखने की अनुमति है। असल में, इस व्यवस्था से काला सागर तुर्की-रूस की लगभग साझा झील बन गई है।
युद्ध के दिनों में तुर्की इसका फायदा उठाता है। मॉन्ट्रे संधि, अंकारा को युद्ध कर रहे किसी भा देश के युद्धपोतों के लिए जलमार्ग बंद करने की ताकत देती है। फरवरी 2022 में, जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तब तुर्की ने यह संधि लागू करते हुए अपने देश को लौटने वाले युद्धपोतों के अलावा सभी के लिए बॉस्पोरस और डार्डानेल्स को बंद कर दिया।
हालाँकि तुर्की ने उदासीन रहने का नाटक किया था, पर असल में तो इसके कारण कई रूसी नौसैनिक जहाज काला सागर के बाहर ही फँसे रह गए थे क्योंकि यूक्रेन की नौसेना रूस के मुकाबले काफी छोटी थी। इसने ये बात दुनिया के सामने रखी कि जलमार्गों पर कुछ किलोमीटर की जलसंधि भी ताकतवर देशों के बड़े से बड़े ऑपरेशन को भी बदलने का दम रखती है।
ऐतिहासिक तौर पर तुर्की के जलडमरूमध्य पर आधिपत्य के लिए कई संघर्ष होते रहे हैं। 19वीं शताब्दी में रूस ने ओटोमन साम्राज्य के साथ कई युद्ध लड़े ताकि कुस्तुनतुनिया और जलडमरूमध्यों पर आधिपत्य जमा सके।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1915 में मित्र राष्ट्रों ने गैलीपोली अभियान शुरू किया ताकि डार्डानेल्स पर आक्रमण कर ओटोमन साम्रज्या पर नियंत्रण किया जा सके और रूस को समुद्री आपूर्ति के लिए रास्ता दिया जा सके। लेकिन यह अभियान आर्थिक मोर्चे पर असफल हो गया।
आज, अपने भौगोलिक और कई देशों के साथ संधियों के दम पर तुर्की विश्व के सबसे महत्वपूर्ण नौसैनिक चौराहों में से एक पर काबिज है। वह तय करता है कि काला सागर में कौन आ सकता है और कौन नहीं। उसका कूटनीतिक प्रभाव उसके आकार से कहीं बड़ा है। नाटो और रूस, दोनों को इन संकरे जलमार्गों में तुर्की के नियमों का पालन करना पड़ता है।
सिंगापुर से जिब्राल्टर तक के वैश्विक चोकप्वाइंट्स
होर्मुज़ और तुर्की के जलडमरूमध्य के अलावा और भी कई समुद्री चोकप्वाइंट्स हैं जो वैश्विक व्यापार और सुरक्षा के लिए मायने रखते हैं। ये संकीर्ण रास्ते और महत्वपूर्ण बंदरगाह वैश्विक वाणिज्य को सुचारू रूप से चलाने में वाल्व का काम करते हैं। संघर्ष और युद्ध के समय ये रास्ते एक तरह से दबाव बिंदु का काम करते हैं।
सिंगापुर में मलक्का जलडमरूमध्य
मलक्का जलडमरूमध्य सिंगापुर और मलेशिया के पास स्थित है जो हिंद महासागर को दक्षिण चीन सागर से जोड़ती है। यह धरती पर सबसे व्यस्त समुद्री मार्गों में से एक है। वैश्विक स्तर पर 30% से अधिक वस्तुओं का व्यापार इसी रास्ते से होता है। इसके अलावा मध्य-पूर्व के तेल से लेकर चीन के सामान तक सब कुछ सुमात्रा और सिंगापुर के द्वीप के बीच से होकर इसी संकरे जलमार्ग से होकर जाता है।

ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सिंगापुर ‘पूर्व का जिब्राल्टर’ था। ये एक ऐसा किला था जो साम्राज्य के रास्तों की रक्षा करता था। आज भी सिंगापुर का बंदरगाह और यह जलडमरूमध्य एशियाई व्यापार के लिए काफी अहम है। इसी के साथ ये कमजोरी भी है। अगर इस रास्ते पर कोई भी व्यवधान आता है तो इसका सीधा असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इस रास्ते की क्षमता सीमित है और विशेषज्ञों का कहना है कि दशक के अंत तक ये अपने अधिकतम ट्रैफिक तक पहुँच जाएगा। इसके विकल्प के तौर पर थाईलैंड के एक नहर या रेलवे की ‘लैंड ब्रिज’ के जरिए मलक्का जलडमरूमध्य से ट्रैफिक को मोड़ने की संभावना पर विचार किया जा रहा है।
जिबूटी में बाब-एल-मंडेब
बाब-एल-मंडेब जलडमरूमध्य लाल सागर और स्वेज नहर को हिंद महासागर से जोड़ती है। यह अफ्रीका के हॉर्न में यमन और जिबूटी के बीच में है। हालाँकि ये उतना मशहूर नहीं है लेकिन फिर भी वैश्विक व्यापार का लगभग 10% हिस्सा यहाँ से गुजरता है। इसमें यूरोप की ओर से एशिया के लिए की जा रही तेल की आपूर्ति भी शामिल है। इसकी सामरिक और रणनीतिक स्थिति के चलते अब इस क्षेत्र में अमेरिका, चीन, फ्रांस समेत कई देशों ने अपने सैन्य अड्डे स्थापित कर लिए हैं।

वर्तमान में यमन में चल रहे संघर्ष ने इस जलडमरूमध्य की कमजोरी सामने लाई है। 2023 के अंत में हूती गुट के आतंकियों ने लाल सागर में जहाजों पर हमला और व्यापारिक पोतों को धमकाना शुरू किया। किसी हमले या अन्य कारण से अगर यह रास्ता बंद होता है तो जहाजों को अफ्रीका के चक्कर काटने पड़ेंगे। ये वैसे ही होगा जैसे स्वेज नहर में किसी व्यवधान के आने पर होता है। असल में तो यूरोप-एशिया मार्ग के लिए तो बाब-अल-मंडेब और स्वेज नहर दो बेहद महत्वपूर्ण अंग हैं। जिबूटी में ताकतवर देशो की नौसेनाओं की मौजूदगी 21वीं सदी की वह गूँज है जो 19वीं सदी की कोयलों को भरने वाले अड्डों के लिए होती थी। ये याद दिलाता है कि एक चोकप्वाइंट का महत्व किसी रणनीतिक भूमिका में भी नजरों से नहीं छूटता।
इजरायल और अमेरिकी जहाजों पर हो रहे हूती के हमलों से बचने के लिए कई व्यापारिक जहाज लाल सागर और बाब-अल-मंडेब जलडमरूमध्य का रास्ता छोड़कर अफ्रीका से होकर गुजर रहे हैं। इससे ईंधन और समय दोनों की लागत बढ़ गई है।
स्वेज नहर
स्वेज नहर मिस्र (इजिप्ट) से 1869 में निकाली गई थी। यह कृत्रिम रूप से विकसित किया गया एक ऐसा संकरा रास्ता है जो विश्व के सर्वाधिक रणनीतिक जलमार्गों में से एक बन गया है। स्वेज नहर भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है। यह जहाजों को अफ्रीका के ‘केप ऑफ गुड होप’ के इर्दगिर्द 7,000 किलोमीटर का चक्कर लगाने से बचाती है। 1950 के दशक तक यूरोप के दो तिहाई तेल की ढुलाई स्वेज के रास्ते से होने लगी थी।

इस नहर से साल भर में 20,000 से अधिक जहाजों की आवाजाही होती है। जब यह नहर बंद होती है तब इसकी महत्ता और अधिक महसूस होने लगती है। फिर चाहे 1956 का स्वेज संकट हो या फिर अरब-इजरायल युद्ध के बाद 1967-75 के बीच का दौर, इस मार्ग पर गतिरोध के चलते जहाजों के लिए फिर से केप का चक्कर काटने का दौर शुरू हो गया था, जिससे लागत में खासी बढ़ोतरी हुई थी। वर्ष 2021 में ही एक कंटेनर शिप (एवरगिवन) के फँसने से ही स्वेज में छह दिनों तक आवाजाही बाधित रही, जिसके चलते रोजाना 84,000 करोड़ रुपए (10 अरब डॉलर) के व्यापार का नुकसान हुआ।
स्वेज की केंद्रीय स्थिति भी इसे भू-राजनीतिक बिसात का एक अहम मोहरा बना देती है। इस नहर पर नियंत्रण का पहलू इतना अहम है कि वह 1956 में आक्रमण का कारण बन गया। सिनाई में आतंकियों के हमले या फिर लाल सागर में टकराव जैसे जोखिमों को देखते हुए मिस्र सरकार इस जलमार्ग की सुरक्षा को लेकर काफी सतर्क हो गई है।
पनामा नहर
पनामा नहर भी एक मानव निर्मित जलमार्ग है, जिसने लंबी दूरी को पाटने से लेकर समय एवं संसाधनों की बचत में बड़ी अहम भूमिका निभाई है। वर्ष 1914 में खुली यह नहर मध्य अमेरिका के जरिये अटलांटिक एवं प्रशांत महासागर को जोड़ती है। यह जहाजों को उस खतरनामक केप हॉर्न रूट का चक्कर लगाने से बचाती है, जो ‘नाविकों के कब्रिस्तान’ के रूप में कुख्यात है। पनामा नहर के बनने से न केवल वाणिज्यिक जहाजों, बल्कि समग्र नौ-परिवहन की सुगमता बढ़ी है। यह नहर 170 देशों के तकरीबन 2,000 बंदरगाहों को जोड़ती है। इन नहर की महत्ता को समझने के लिए महज एक ही तथ्य काफी होगा कि अकेले 2023 में ही इसके जरिये 14,000 जहाजों की आवाजाही हुई।

देखा जाए तो वर्ष 1903 से 1999 के बीच एक लंबे समय तक नहर पर अमेरिका का नियंत्रण रहा। फिर भी, उसके लिए अपनी तटस्थता एक अहम पहलू बनी हुई है। हालांकि, अब भीमकाय जहाज और अमेरिकी नौसेना के विमानवाहक पोत इसकी क्षमताओं की परीक्षा लेने लगे हैं। अनाज निर्यात, एलएनजी खेप और अमेरिकी नौसेना द्वारा विभिन्न महासागरों में एकाएक तैनाती के लिहाज से पनामा नहर एक अहम कड़ी बनी हुई है। इस बीच, हालिया सूखे और घटे जलस्तर ने पनामा नहर की प्राधिकारी संस्था को मजबूर किया है कि बड़े जहाजों की आवाजाही सीमित की जाए। यह पहलू दुनिया को यही दर्शाता है कि उत्कृष्ट इंजीनियरिंग उपलब्धियां को भी अपनी एक सीमा होती है।
गौरतलब ये है कि दोबारा सत्ता में लौटने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पनामा नहर पर एक बार फिर अमेरिकी नियंत्रण की मंशा जाहिर की थी, जिसके चलते दोनों देशों के बीच कूटनीतिक तल्खी कुछ बढ़ गई थी।
स्ट्रेट ऑफ जिब्राल्टर
जिब्राल्टर जलडमरूमध्य (स्ट्रेट ऑफ जिब्राल्टर) भूमध्यसागर के मुहाने पर स्थित भौगोलिक संरचना है। ऐतिहासिक आख्यानों में भी इसका व्यापक उल्लेख मिलता है। पुरातन काल से ही इसका खासा रणनीतिक महत्व रहा है। यह मात्र 12 किलोमीटर चौड़ा है और अटलांटिक महासागर एवं भूमध्यसागर के बीच एक द्वार की भूमिका निभाता है। इसके एक ओर रॉक ऑफ जिब्राल्टर (जिब्राल्टर की चट्टान) है, जो 1707 से ही ब्रिटिश नियंत्रण वाला एक गढ़ रहा है। जबकि दूसरी ओर मोरक्को और स्पेन के तटीय इलाके हैं।

जिब्राल्टर की स्थिति ऐसी है कि इस पर जिसका नियंत्रण होगा वह भूमध्यसागर में नौ-परिवहन (naval traffic) पर उसका वर्चस्व स्थापित हो सकता है। अंग्रेजों ने इसकी महत्ता को समझ लिया था और स्पेन और फ्रांस की ओर से दी गई तमाम चुनौतियों के बावजूद वह जिब्राल्टर चट्टान को लेकर अडिग रहे। यह इतना महत्वपूर्ण रहा कि नेपोलियन युद्धों के दौरान जहां फ्रांसीस नौसेना को भूमध्यसागर में ही मात देने के लिए निर्णायक साबित हुआ तो उसी दौरान भारत के लिए व्यापार मार्ग को भी खोले रखा।
यहां तक कि आज भी भूमध्यासागरीय और उत्तरी अटलांटिक में शक्ति संतुलन के लिहाज से ब्रिटिश नौसेना का ठिकाना अपनी भूमिका निभा रहा है। टैंकर्स और कार्गो शिप की सुगम आवाजाही के लिहाज से भी यह स्ट्रेट महत्वपूर्ण है। इसके बंद होने से कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। इस कारण इसकी रणनीतिक हैसियत और बढ़ जाती है। एक तरह के स्थिर विमानवाहक पोत के रूप में यह ब्रिटिश (और नाटो) प्रभाव की एक अहम चोकप्वाइंट है।
इस कड़ी में अगर पनामा जैसी मानव निर्मित या मलक्का जैसे प्राकृतिक स्ट्रेट पर नजर डालें तो इससे वही सिद्धांत प्रदर्शित होता है कि सामुद्रिक मार्गों पर नियंत्रण एक व्यापक प्रभाव का पहलू बनता है। ये वैश्वीकरण के दबाव बिंदुओं की भूमिका निभाते हैं। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इतिहास ऐसी मिसालों से भरा हुआ है कि प्रतिद्वंद्वी शक्तियों ने या तो इन पर नियंत्रण के लिए योजनाएं बनाईं या उन तक सुगम पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बेड़े तैयार किए।
लहरों के लिए लड़ाई: जिब्राल्टर, सिंगापुर, स्वेज और अन्य मामले
चूंकि ये स्ट्रेट और बंदरगाह अपना विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए सामुद्रिक वर्चस्व के लिए अक्सर युद्ध का कारण भी बनते रहे हैं। इतिहास महाशक्तियों की ऐसी लड़ाइयों से भरा हुआ है, जो सामुद्रिक मार्गों और पत्तनों को लेकर लड़ी गईं। उन्हें यह मालूम था कि इसमें जो विजयी होगा, वही व्यापार से लेकर शक्ति संतुलन के लिहाज से आगे रहेगा।
वर्ष 1853 से 1856 तक चला क्रीमिया का युद्ध
जैसा कि ऊपर भी बताया गया कि ये युद्ध बुनियादी रूप से पूर्व में यथास्थिति को चुनौती देने के साथ ही रूस की नौसैन्य शक्ति पर अंकुश लगाने की एंग्लो-फ्रेंच मुहिम की काट के लिए एक प्रकार की रूसी कार्रवाई थी। इसमें रूसी नौसेना बेस सेवस्तोपोल संघर्ष का अखाड़ा बन गया। सेवस्तोपोल की घेराबंदी के लिए अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने 1854-55 में सेना और नौसैनिक बेड़ा भेजा। इसके पीछे काला सागर में रूसी बेड़े को तबाह करना था ताकि भूमध्यसागर में रूसी खतरा पूरी तरह से खत्म हो जाए।
यह इतिहास की बड़ी लड़ाइयों में दर्ज है। लाइट ब्रिगेड के हमलों ने शहर को खंडहर में तब्दील कर दिया। रूस का ऐसा मानमर्दन हुआ कि उसे समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। युद्ध के बाद हुई अस्थायी संधि में रूस को काला सागर में अपना बेड़ा तात्कालिक रूप से हटाने पर सहमति जतानी पड़ी। इस युद्ध के नतीजे ने यही दर्शाया कि एक बंदरगाह पर नियंत्रण की लड़ाई कैसे अखिल-यूरोपीय युद्ध का आकार ले सकती थी। सेवस्तोपोल की यह कहानी 2014 में फिर दोहराई गई जब अपनी नौसैनिक पैठ को गंवाने के लिए कतई तैयार नहीं दिखने वाले रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। 21वीं सदी में हुआ यह कब्जा असल में 19वीं सदी के भूराजनीतिक समीकरणों से ही प्रेरित था। एक तरह से देखा जाए तो क्रीमिया पर उस कब्जे ने ही मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध के बीज बोने का काम किया, जो लड़ाई पिछले तीन साल से ही थमने का नाम नहीं ले रही।
1779 से 1783 के बीच जिब्राल्टर की व्यापक घेराबंदी
जिस दौरान अटलांटिक महासागर की लहरों से परे अमेरिका में क्रांति की लौ धधक रही थी तो उसी दौरान भूमध्यसागर में भी एक उतनी ही अहम घेराबंदी देखी जा रही थी। उस समय फ्रांस की मदद से स्पेन ने जिब्राल्टर को ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त कराकर अपने कब्जे में लेने का प्रयास किया। उस लड़ाई में कई वर्षों तक जिब्राल्टर चट्टान की नाकाबंदी के साथ ही बमबारी की गई। असहज स्थितियों के बावजूद ब्रिटेन ने 1783 में घेराबंदी हटाए जाने तक लड़ाई जारी रखी। उस जीत के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। जिब्राल्टर की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि उसे अपने नियंत्रण में रखने के लिए ब्रिटेन को अमेरिका में तैनात अपने बेड़े को वहां लगाने से भी परहेज नहीं था, जो दर्शाता है कि यह लंदन की व्यापक रणनीति के केंद्र में था।
इतिहासकारों की दलील है कि जिब्राल्टर को अपने पाले में बनाए रखने के लिए अपने संसाधन झोंकने की कीमत ब्रिटेन को अमेरिका में लड़ाई हारने के रूप में चुकानी पड़ी। हालांकि, कालांतर के नेपोलियनिक युद्धों में जिब्राल्टर ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की। इसने नेपोलियनिक फ्रांसीसी नौसेना की काट के लिएजहां एक बेस प्रदान किया, वहीं पूर्व से ब्रिटेन के व्यापार को भी सुचारु बनाए रखा।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘चंद किलोमीटर लंबी एक बंजर चट्टान’ ब्रिटेन के वैश्विक साम्राज्य के लिए निर्णायक सिद्ध हुई। उसके लिए हुआ संघर्ष ब्रिटिश इतिहास के सबसे लंबे टकरावों में से एक है जो यह भी दर्शाता है कि रणनीतिक महत्व के किसी बिंदु के लिए कोई साम्राज्य कितनी शिद्दत से लड़ाई के लिए तत्पर रहता है।
1942 की सिंगापुर की लड़ाई
कभी-कभी एक बंदरगाह यानी पत्तन का पतन इतिहास को बदलने का पड़ाव बन जाता है। दिसंबर 1941 में जापानी सेना ने मलेशिया प्रायद्वीप पर कब्जे के बाद सिंगापुर पर हमला कर दिया। सिंगापुर उस समय एशिया में ब्रिटेन का मजबूत नौसैनिक ठिकाना था। सिंगापुर का पतन जितनी जल्दी हुआ उतना ही चौंकाने वाला भी था। ब्रिटिश सैन्य बलों ने 15 फरवरी, 1942 को आत्मसमर्पण कर दिया। उसमें करीब 80,000 से अधिक सैनिकों को बंदी बनाया गया। यह ब्रिटिश सैन्य इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण था।
चर्चिल ने इसे ब्रिटिश सैन्य इतिहास की सबसे बड़ी विपदा बताया था। सिंगापुर आखिर इतना महत्वपूर्ण क्यों था? यह दक्षिण पूर्व एशिया में ब्रिटेन का सबसे बड़ा सैन्य ठिकाना और आर्थिक बंदरगाह था, जो इस क्षेत्र में उसकी सामरिक रणनीतियों के पड़ाव की भूमिका भी निभाता था।
इसे ‘पूर्व का जिब्राल्टर’ का कहा जाता था। यह एशिया में किसी भी चुनौती का दमन करने के लिहाज से बहुत मददगार था। ब्रिटेन से इसे हासिल कर जापान को न केवल मलक्का स्ट्रेट और एक शानदार बंदरगाह पर नियंत्रण प्राप्त हो गया, बल्कि इससे पश्चिमी औपनिवेशिक शक्तियों की दुर्जेयता का मिथक भी टूट गया। इसके अनुलग्नक प्रभाव भी दिखने लगे थे। सिंगापुर में जापानी जीत ने स्वतंत्रता संग्रामों को मुखर करने का काम किया, जिससे एशिया में ब्रिटिश शासन की समाप्ति का उद्घोष जैसा हुआ।
इस बंदरगार पर नियंत्रण ने एशिया में ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत किया तो उसे गंवाने से इस क्षेत्र पर उसकी पकड़ कमजोर होती गई। इस लड़ाई ने दर्शाया कि सामुद्रिक शक्ति और औपनिवेशिक शक्ति कैसे एक दूसरे की पूरक रहीं। जब पूर्वी किनारों से शाही नौसेना के तंबू उखड़ते गए तो ब्रिटेन के एशियाई उपनिवेश भी उसके हाथ से फिसलने लगे।
1956 का स्वेज संकट
मिस्र के राष्ट्रपति नासिर द्वारा स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण करने के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने नहर पर वापस नियंत्रण के उद्देश्य से युद्ध छेड़ दिया। यह 20वीं सदी में एक संकरे रास्ते के लिए लड़ाई का बड़ा उदाहरण था। असल में स्वेज नहर यूरोपीय शक्तियों के लिए आर्थिक जीवनरेखा (तेल और औपनिवेशिक व्यापार के लिए छोटा रास्ता) होने के साथ ही उनके बचे-खुचे साम्राज्यवादी प्रभुत्व का प्रतीक थी।
अक्टूबर 1956 में ब्रिटेन और फ्रांस ने इजरायल के साथ मिलकर मिस्र के खिलाफ सैन्य अभियान छेड़कर नासिर को सत्ता से बेदखल कर नहर पर वापस नियंत्रण हासिल कर लिया। ब्रिटिश-फ्रांस सैन्य जुगलबंदी ने बड़ी तेजी से नहर क्षेत्र को कब्जा लिया, लेकिन भू-राजनीतिक मोर्चे पर यह दांव उलटा पड़ गया। अमेरिका और सोवियत संघ ने उन पर दबाव डालकर उन्हें कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया।
डूबे हुए जहाजों के कारण स्वेज नहर महीनों तक बंद रही। इस मामले ने यही दर्शाया कि किसी चोकपॉइंट को कितनी आसानी से बाधित किया जा सकता है। यह संकट दुनिया के दारोगा के रूप में ब्रिटेन और फ्रांस की भूमिका की समाप्ति और नई महाशक्तियों के उदय का पड़ाव बना। इसने स्वेज नहर की महत्ता को भी रेखांकित किया।
जिस दौर में यूरोपीय साम्राज्यों की आभा कमजोर पड़ रही थी, वहीं स्वेज तेल आवाजाही का हाईवे बन गई थी। वर्ष 1955 तक नहर से होने वाली आवाजाही में आधी हिस्सेदारी पेट्रोलियम की होती थी। स्वेज पर नियंत्रण का मोह ऐसा था कि महाशक्तियां उसके लिए युद्ध करने को भी तैयार थीं। उनके नियंत्रण की समाप्ति के साथ उनके दौर की विदाई के संकेत भी मिल गए। उसके बाद से स्वेज का मामला अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनता गया। मिस्र को इसकी सुरक्षा पर फख्र महसूस होता है और स्वाभाविक रूप से वह टोल्स के जरिये मुनाफा भी कमाता है।
स्वेज प्रकरण दर्शाता है कि यहां तक की आधुनिक युग में भी देश किसी महत्वपूर्ण आवाजाही मार्ग के लिए लड़ने से संकोच नहीं करेंगे। भले ही इसके लिए कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े या फिर उसमें लाभ से अधिक नुकसान ही क्यों न हो।
इसी कड़ी में 1600 के आंग्ल-डच युद्ध को भी जोड़ा जा सकता है, जिसमें सामुद्रिक मार्गों एवं व्यापारिक चौकियों पर कब्जे के लिए इंग्लैंड और नीदरलैंड में एक के बाद एक नौसैनिक टकराव होते गए। ट्राफलगर की 1805 की लड़ाई को भी इसमें शामिल किया जा सकता है, जहां एडमिरल नेल्सन के नेतृत्व में नेपोलोनिक नौसैन्य शक्ति के दमन से समुद्र पर ब्रिटिश वर्चस्व सुनिश्चित हुआ जिसने वैश्विक व्यापारिक साम्राज्य को बड़ा सहारा दिया।
चाहे एथेंस बनाम स्पार्टा की लड़ाई हो या ब्रिटिश महान बेड़ा बनाम जर्मन हाई सीज फ्लीट का संघर्ष या चेकपॉइंट्स की गश्त लगाते आधुनिक पोत, सभी में एकसमान तत्व यही सामने आएगा कि समुद्र की लहरों पर राज ही शक्ति संतुलन में निर्णायक पहलू बनता है।
निष्कर्ष
2025 का होर्मुज जलडमरूमध्य हो या फिर 31 ईसा पूर्व का एक्टियम, भूगोल ने हर बार साम्राज्यों की नियति तय की है। बंदरगाह, जलडमरूमध्य और नहरें केवल भौगोलिक जगहें ही नहीं हैं बल्कि ये व्यापार और मतभेदों की जीवनरेखा भी हैं। जो साम्राज्य व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित करता है, वह उभर कर सामने आता है और जो उन्हें खो देता है, उसका पतन होता है।
रूस का सेवास्तोपोल पर अधिकार हो या ब्रिटेन का सिंगापुर को खोना, चोकप्वाइंट वैश्विक शक्ति संतुलन तय करते हैं। आधुनिक युद्ध भले ही मिसाइलों और साइबरस्पेस तक पहुँच गया हो, पर समुद्री रास्ते अब भी प्रभुत्व निर्धारित करती है। जैसे-जैसे संकट सामने आते हैं वैसे- वैसे इतिहास हमें याद दिलाता है कि जिब्राल्टर से मलक्का तक लहरों पर नियंत्रण आज भी सदियों पहले जितना ही निर्णायक स्थिति में है।