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हिंदी नहीं… हकीकत में उर्दू है बाहरी भाषा: वोटबैंक की लालच में कब तक नजरअंदाज करेंगे कॉन्ग्रेस से जुड़े द्रविड़-कन्नड़-मराठा नेता, कब तक चलती ये राजनीति?


भाषाई कट्टरता और हिंसक प्रवृत्ति एक बार फिर भारतीय सामाजिक और राजनीतिक दृश्य को तब कलंकित करती दिखी जब 29 जून 2025 को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के कार्यकर्ताओं ने मुंबई के मीरा रोड उपनगर में एक मिठाई की दुकान के 48 वर्षीय मालिक बाबूलाल खिमजी चौधरी पर केवल इसलिए हमला कर दिया कि उन्होंने मराठी में बातचीत करने से इनकार कर दिया था।

बाबूलाल खिमजी चौधरी की ‘जोधपुर स्वीट्स और नमकीन’ नाम की दुकान है। उन पर तब हमला हुआ जब मनसे के कार्यकर्ता करण कंडांगीरे (मनसे उप शहर प्रमुख), पामोद नीलेकट (वाहतुक सेना जिला आयोजक), अक्षय दलवी, सचिन सालुंखे और अमोल पाटिल समेत 7 लोग दुकान में आकर मराठी में लेनदेन की माँग करने लगे।

बातचीत जल्द ही बहस में तब्दील हो गई। ये टकराव तब और उग्र हो गया जब पीड़ित ने उनके उस झूठे दावे पर आपत्ति जताई कि महाराष्ट्र विधानसभा ने व्यवसायों में मराठी भाषा के प्रयोग और मराठी भाषी कर्मचारियों की नियुक्ति को अनिवार्य कर दिया है।

यह घटना न केवल भाषा के नाम पर की जा रही गुंडागर्दी को दिखाता है, बल्कि उन क्षेत्रीय दलों की रणनीति पर भी सवाल उठाता है, जो राजनीतिक गलियारों में चर्चा में बने रहने के लिए इस तरह से गुंडागर्दी का सहारा ले रहे हैं। इस तरह की घटनाएँ न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को चोट पहुँचाती हैं, साथ ही यह पूरे राज्य में गुस्सा और समाज में आपसी झगड़े को भी बढ़ावा देती हैं।

भाषा की लड़ाई से राजनीति हुई फिर जिंदा

महाराष्ट्र में हाल ही में भाषा के नाम पर गैर-मराठी बोलने वालों को परेशान किया गया। एमएनएस के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेकर जल्दी ही जमानत पर छोड़ दिया गया।

एमएनएस और शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) जैसे दल लंबे समय से मराठी अस्मिता की बात करते आ रहे हैं, लेकिन यह ज्यादातर दूसरों को डराने और परेशान करने तक ही सीमित रहा है।

कुछ ही दिनों पहले, जब राज्य सरकार ने स्कूलों में हिंदी शुरू करने का फैसला वापस लिया, तो उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने ‘मराठी मानुष’ की एकता की बात की। इसके विरोध में उद्धव ठाकरे और संजय राउत ने सरकारी आदेश की प्रतियाँ जला दीं थी।

महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहाँ कई भाषाएँ बोलने वाले लोग रहते हैं। यहाँ बॉलीवुड जैसी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी है। आम मराठी लोग गैर-मराठी बोलने वालों के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन MNS जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ भाषा के नाम पर झगड़े और डर का माहौल बना रही हैं।

राज्य की बीजेपी सरकार ने इसे लेकर साफ और सख्त रुख अपनाया है। शुक्रवार (4 जुलाई 2025) को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि मराठी भाषा पर गर्व करना गलत नहीं है, लेकिन भाषा के नाम पर गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। जो लोग भाषा के आधार पर मारपीट करेंगे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने यह भी कहा कि हमें सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान करना चाहिए।

हिंदी को लेकर विवाद करना और अंग्रेजी को अपनाना समझ से बाहर है। कानून हाथ में लेने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। एक अहम बात यह भी है कि जहाँ हिंदी, गुजराती और दूसरी भाषाएँ बोलने वालों को निशाना बनाया जाता है, वहीं उर्दू भाषा को इस गुस्से से अछूता रखा गया है।

हिंदी और मराठी एक जैसी लिपि और जड़ों से जुड़ी हैं, फिर भी हिंदी को ‘उत्तर भारतीय थोपाव’ कहा जाता है, जबकि उर्दू पर कोई सवाल नहीं उठता।

देश के कई राज्यों में भाषा को लेकर भेदभाव और राजनीतिक विवाद बढ़ती जा रही है। तमिलनाडु में DMK सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) का यह कहकर विरोध किया कि यह तमिल भाषियों पर हिंदी थोपने का प्रयास है।

हालाँकि नीति में हिंदी अनिवार्य नहीं थी और छात्र इसके विकल्प के तौर पर अपनी पसंद की कोई भी भाषा चुन सकते थे। मार्च 2024 में महाराष्ट्र के पुणे के भूषण मंडलिक को तमिलनाडु में सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योंकि वह तमिल नहीं बोल पाते थे।

इसी तरह कर्नाटक में एक ओड़िया रेस्टोरेंट को स्थानीय भाषा कन्नड़ के नाम पर अपनी ओड़िया नेमप्लेट हटाने के लिए मजबूर किया गया, जबकि पहले से कन्नड़ में नाम का बोर्ड लगा हुआ था।

झारखंड में 2022 में JMM सरकार ने भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से बाहर कर दिया, जबकि उर्दू को बनाए रखा और हिंदी को किसी भी जिले में क्षेत्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया गया, जिससे भारी विरोध हुआ।

शिवसेना (UBT) ने भी मुस्लिम बहुल इलाकों में उर्दू में पोस्टर लगाकर उद्धव ठाकरे को ‘अली जनाब’ बताया, लेकिन हिंदी को अक्सर विरोध का सामना करना पड़ता है। पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में भी उर्दू को बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि हिंदी का विरोध किया जाता है।

यूपी में उर्दू अनुवाद की माँग पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि इसका मकसद बच्चों को मौलवी बनाना है, वैज्ञानिक नहीं। इन सभी घटनाओं से साफ है कि कुछ राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के लिए भाषा को हथियार बना रहे हैं, जहाँ खासकर हिंदी को निशाना बनाया जा रहा है और उर्दू को विशेष छूट दी जा रही है।

हिंदी से नफरत लेकिन वोट के लिए उर्दू और अंग्रेजी भाषा स्वीकार्य

देश में भाषाओं को लेकर विवाद लगातार बढ़ रहा है, लेकिन यह विवाद भाषा की असली चिंता से ज्यादा राजनीति से जुड़ा है। कुछ क्षेत्रीय और मुस्लिम-तुष्टिकरण करने वाली पार्टियाँ हिंदी का विरोध हमेशा से करती रही हैं और इसे थोपने का आरोप भी लगाती हैं।

जबकि उर्दू को बढ़ावा देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती तो सवाल ये है कि भाषा के साथ इस तरह का राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव आखिर क्यों हो रहा है। उत्तर प्रदेश में 1989 में कॉन्ग्रेस सरकार ने सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा बना दिया था।

यही हाल पश्चिम बंगाल, दिल्ली, बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों में भी देखा गया, जहाँ उर्दू को विशेष दर्जा मिला। लेकिन हिंदी, जो संस्कृत से निकली है और देश की जमीन से जुड़ी है, उसे ‘उत्तर भारतीय थोपाव’ कहकर बदनाम किया जाता है। उर्दू की उत्पत्ति इस्लामी आक्रमणों के समय हुई थी, जब विदेशी शासकों को स्थानीय जनता से संवाद के लिए एक मिली-जुली भाषा की जरूरत थी।

उर्दू में फारसी और अरबी के शब्द शामिल हैं, लेकिन इसकी व्याकरण हिंदी की है। मुगलों और उनके बाद कई शासकों ने इसे बढ़ावा दिया, जिससे यह शासन और प्रशासन की भाषा बनी। बॉलीवुड में भी उर्दू को खास बढ़ावा मिलात रहा है।

गीतकारों और लेखकों ने उर्दू के शब्दों और इस्लामिक शब्दावली (जैसे जन्नत, खुदा, काफिर आदि) को फिल्मों में खूब इस्तेमाल किया, जिससे हिंदी को कमतर और उर्दू को ज्यादा शिष्ट भाषा की तरह पेश किया गया।

इसने उर्दू की एक खास छवि बना दी और आम हिंदी को हाशिए पर डाल दिया। इसका नतीजा ये रहा कि आज भी कुछ राजनीतिक दल उर्दू को विशेष दर्जा देते हैं, उसके लिए फंड जारी करते हैं जबकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को नजरअंदाज किया जाता है।

महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में हिंदी बोलने वाले आम लोगों को निशाना बनाया जाता है, जबकि उर्दू बोलने वाले मुसलमानों पर कोई सवाल नहीं उठाता। मुसलमानों से कोई यह नहीं पूछता कि वे मराठी या कन्नड़ में बात क्यों नहीं करते।

हाल ही में महाराष्ट्र में एमएनएस का एक कार्यकर्ता मुस्लिम इलाके में मराठी थोपने गया तो उसे माफी तक माँगनी पड़ी और वो भी हिंदी में। इसके बावजूद हिन्दी को सम्मान नहीं मिल पा रहा है, लोग उसी का विरोध कर रहे है।

अगर इसे ठीक तरह से समझने की कोशिश की जाए, तो ये भाषा की लड़ाई नहीं बल्कि एकतरफा राजनीति है जिसमें मुस्लिम समुदाय और उर्दू को छूने से सभी पार्टियाँ डरती हैं क्योंकि विरोध का डर होता है, जबकि हिंदुओं और हिंदी के खिलाफ बोलना ‘सुरक्षित’ माना जाता है। यही कारण है कि उर्दू, जो सच में एक बाहरी और थोपी गई भाषा थी, आज विशेष दर्जा पाती है और हिंदी को बदनाम किया जाता है।

भाषा पर गर्व करना गलत नहीं है और जो लोग किसी राज्य में रहते हैं, अगर वे वहाँ की भाषा सीखें तो यह एक अच्छा कदम है। लेकिन जबरदस्ती करना, डराना और दुकान या संस्थानों को अपनी मातृभाषा में बोर्ड न लगाने देना गलत है।

इससे भाषाओं का सम्मान नहीं होता, बल्कि नफरत और दूरी बढ़ती है। सच तो ये है कि यह पूरा भाषा विवाद कुछ नेताओं द्वारा केवल मोदी सरकार का विरोध करने और क्षेत्रीय गर्व के नाम पर राजनीतिक फायदा उठाने का एक तरीका है, न कि भाषाओं को बचाने या बढ़ाने की कोई सच्ची कोशिश।

मूल रूप से यह रिपोर्ट अंग्रेजी में श्रद्धा पांडे ने लिखी है, इस लिंक पर क्लिक कर विस्तार से पढ़ें।

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