भारत में ‘सहमति से सेक्स’ करने की उम्र 18 से कम करके 16 करने को लेकर चर्चा लंबे समय से चल रही थी। मामला इतना गंभीर था कि देश की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा सिंह ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक में उठाया और कोर्ट ने भी सुनवाई करते हुए इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब माँग लिया।

केंद्र हाल में इसी मामले पर अपना जवाब दिया और कहा है कि किसी कीमत पर सेक्स करने की आयु 18 से 16 नहीं हो सकती। सरकार ने इसके पीछे कई तर्क दिए। बताया कि कैसे इस कदम से अपराध होने पर बच्चों को दोषी बताया जा सकता है। कैसे बच्चों के खिलाफ अपराध करने वाले को को संरक्षण मिल सकता है आदि-आदि।

केंद्र सरकार ने यह जवाब देश में युवाओं की स्थिति को देखकर दिया है, लेकिन प्रश्न यह है कि उन्हें ये जवाब देने की जरूरत पड़ी ही क्यों और ये विचार कि सहमति से सेक्स की उम्र 18 से भी कम की जाए ये जहन में आया ही कैसे? क्या जिसने ये सवाल उठाया उनके लिए किशोरों के शिक्षित होने के अधिकार से ज्यादा जरूरी कम उम्र में सेक्स करने का अधिकार पाना लगता है?

हो सकता है बुद्धिजीवी वर्ग इसे भी मौलिक अधिकार बताकर जस्टिफाई कर लें और अंतर पूछ लें कि शिक्षा और सेक्स का आखिर क्या लेना-देना होता है? तो चलिए उनके इस प्रश्न का उत्तर देते हैं लेकिन उससे पहले ये समझते हैं कि जिन युवाओं को ये लोग शिक्षा लेने की उम्र में सेक्स का अधिकार दिलवा रहे हैं, उनके सामने चुनौतियाँ क्या हैं।

बात सिर्फ भारतीय परिदृश्य को मद्देनजर में रखकर आगे करेंगे।

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था के अनुसार, एक लड़का-लड़की अगर रेगुलर स्कूल जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करता है तो उसकी 10वीं पूरी होते-होते उसकी उम्र 15 हो जाती है। फिर 12वीं करते-करते वो 17 साल के होते हैं और इसके बाद आती है वो 18 की उम्र, जो सरकार ने लड़की को बालिग मानने के लिए तय कर रखी है।

अब जो लोग इस उम्र से नीचे वाले लड़के/लड़कियों के लिए चाहते हैं कि उन्हें कैसे भी करके कम उम्र में सहमति से सेक्स करने का अधिकार मिले, उन्हें ये बात तो बतानी पड़ेगी कि उनके लिए शिक्षा ऊपर है या सेक्स। ये तुलना सिर्फ इसलिए क्योंकि सेक्स और प्रोफेशनल लाइफ एक उम्र के बाद जरूरत समांतर चल सकती है मगर किशोरवस्था में इसके दुष्परिणाम होते हैं।

आमतौर पर एक किशोर के भीतर हार्मोनल बदलाव 12-13 साल की उम्र से आता है। लड़का और लड़की दोनों ही इस समय में अपने शरीर से जूझ रहे होते हैं। अपने भीतर होने वाले बदलावों को समझ रहे होते हैं। उनके सामने बॉलीवुड की वो फिल्में होती हैं जो उन्हें बताती हैं कि वो बचपन में पढ़ाई में मन न भी लगे तो ठीक, लेकिन प्रेम समय से हो जाना चाहिए।

इसके बाद कभी दोस्ती के नाम पर उनको ठगा जाता है तो कभी आकर्षण को प्रेम का नाम देकर धोखा होता है। कुछ लोग इस उम्र में गलत राह पर जाने से बच जाते हैं, मगर कुछ को इसके अलावा कुछ नहीं समझ नहीं आता।

अगर खासतौर पर लड़कियों को देखते हुए बात की जाए, तो ये मानना होगा कि हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ कुछ लोग अब भी मानते हैं ‘माहवारी’ आते ही लड़की जवान हो जाती है और जल्द से जल्द उसका विवाह/निकाह करवा देना चाहिए…. ये समाज अगर किसी से थोड़ा बहुत डरता है तो वो वही कानून है जो 18 की उम्र के बाद किशोरों को बालिग करार देता है और उसके बाद हुई शादी को ही वैध मानता है।

अगर बुद्धिजीवियों की लड़ाई आज ये ही रह गई है कि सहमति से सेक्स करने की उम्र 18 से 16 होनी चाहिए तो क्या मान लिया जाए कल को उन्हें इस बात से भी समस्या नहीं होगी कि छोटी उम्र में बच्चों की शादी क्यों हो रही है? क्योंकि जब सेक्स का अधिकार मिल सकता है तो शादी कर लेने का क्यों नहीं।

लड़कियों की शादी की उम्र आज के समय में सरकार 18 से बढ़ाकर 21 करना चाहती है ताकि लड़कियाँ सामाजिक, मानसिक और शारीरिक तीनों तरह से परिपक्व हो सकें। उनके पास अकादमिक क्षेत्र में हासिल की गई तमाम डिग्रियों के साथ उन अनुभवों का भी अंबार हो, जो उन्हें इतना समझदार बना सके कि वो अपने लिए फैसले लेने में समर्थ दिखें। उन्हें पता रहे कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत है। वो किसके साथ सहज हैं और किसके साथ नहीं। उन्हें क्या पसंद करना है और क्या नहीं। उन्हें क्या ग्रहण करना है क्या नहीं।

कायदे से ये सारे साल लड़के या लड़की के निजी विकास के होने चाहिए, जिसमें वो खुद को समझें। अगर ये समझने के बाद उसे लगता है कि उसके लिए सेक्स ही है तो वो उसे चुने। लेकिन ये निर्णय उनका तब खुद का हो, जब उन्हें ये पता हो कि शिक्षा लेकर समृद्ध हुआ जा सकता है या सेक्स के नाम पर डिस्ट्रैक्ट होकर… इस मामले में उन्हें ऐसे वर्ग से इन्फ्लुएंस नहीं होना चाहिए जो माने कम उम्र में सेक्स कर पाना ही आजादी की शुरुआत है।

हम चाहे मानें न मानें लेकिन कम उम्र में यौन इच्छाओं का भीतर प्रबल होना ‘डिस्ट्रैक्शन’ के अलावा कुछ नहीं है। अगर ये बात मनगढ़ंत लगती हैं तो लोगों को इंटरनेट पर पड़े युवाओं के उन सवालों को पढ़ना चाहिए जहाँ वो साफ तौर पर सेक्स और स्टडी के बीच उलझे दिखते हैं।

पूरा इंटरनेट आज ऐसे सवालों से भरा पड़ा है जहाँ छोटे बच्चे किसी आभासी मेंटर से सवाल करते हैं कि उनके भीतर यौन इच्छाएँ इतनी प्रबल हो रही हैं कि वो पढ़ाई नहीं कर पाते, अपने लक्ष्य से भटकते हैं… उन्हें क्या करना चाहिए।

कोरा जैसी सवाल-जवाब वाली साइट पर यदि आप जाएँगे तो ऐसे सवालों की वहाँ भरमार देखने को मिलेगी। युवा वहाँ अपनी स्थिति खुलकर बताते है। साफ-साफ सवाल पूछा जाता है कि वो ऐसी स्थिति में क्या करे…।

तमाम ऐसी साइट्स हैं, ऐसी स्टडीज हैं जिसका आधार सिर्फ यही है कि ऐसी स्थिति में फोकस को कैसे सही जगह पर लगाए। अगर आज के युवा के लिए ये चुनौती नहीं होती तो इंटरनेट पर ऐसे सवाल नहीं होते।

हमारे समाज में युवा वर्ग के जीवन में चैलेंज पहले से ज्यादा व्यापक हो चुके हैं। उन्हें अब सिर्फ रूढ़िवादी सोच और समाज की पिछड़ी मानसिकता से नहीं लड़ना, उन्हें अब खुद की अस्मिता बचाने के लिए अश्लीलता करने को उकसाने वाले तत्वों से भी लड़ना है और साथ ही लड़ना है उस बुद्धिजीवी वर्ग से भी जो शिक्षा के ऊपर सेक्स को बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

अंत में, जिस उम्र में बच्चों को सेक्स का अधिकार देने की बात हो रही है, उस उम्र को लेकर बुद्धिजीवियों को थोड़ा शोध भी करना चाहिए और समझना चाहिए कि इस उम्र में होने वाली गलतियों को सुधारने के लिए क्या बच्चे तैयार हैं? क्या उन्हें पता है कि यौन शोषण और प्रेम के स्पर्श में अंतर क्या है? क्या उन्हें पता है कि 18 से कम उम्र में सेक्स की आजादी मिलने का फायदा कभी कोई अपराधी नहीं उठाएगा? क्या एक 16 की लड़की जानती है कि गर्भवती होने पर उसे क्या करना है? क्या 18 साल के लड़के को पता है कि ऐसी स्थिति से डील करना है…. या सिर्फ यौन इच्छाओं की पूर्ति ही बच्चों के लिए क्रांति माना जाएगा।

सहमति से सेक्स का अधिकार मिल भी जाए तो होगा क्या?

बता दें कि एक ऐसे समाज में, जहाँ लोग यौन संबंधों पर खुलकर बात भी न करते हों, इसे पर्दे के पीछे रखने का विषय माना जाता हो… उसमें कम उम्र में सहमति से सेक्स की आजादी देना लड़के-लड़की दोनों पर बुरा प्रभाव डालेगा। वो भावनात्मक तौर पर कभी परिपक्व नहीं हो पाएँगे। एक समय आए शायद उन्हें ग्लानि में जीवन गुजारना पड़े, उन्हें डिप्रेशन से गुजरना पड़े या आत्महत्या तक के ख्याल आएँ।

इसके अलावा अनचाही प्रेगनेंसी, यौन संबंधी रोग, शारीरिक विचार में रोक वो स्वास्थ्य पहलू हैं जिन्हें ये अधिकार माँगने से पहले नकारा जा रहा है। साथ ही वो माहौल को भी नजरअंदाज कर रहे हैं जो ऐसा करने पर एक आम भारतीय के घर में देखा जा सकता है। हो सकता है कि बुद्धिजीवी वर्ग किशोरों को कानूनी रूप से आजादी दिलवा भी दें, लेकिन क्या उनके परिवार इसे स्वीकार कर पाएँगे। नतीजा यहाँ तक हो सकता है कि बच्चों को अपनी शिक्षा तक से समझौता करना पड़े। इसके बाद वो स्थिति भी न भूली जाए जिसमें ये समझना मुश्किल हो जाएगा कि बच्चे ने सच में सहमति से संबंध बनाया या फिर वो किसी यौन अपराध का शिकार हुआ है।

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