सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और राज्यपालों के विधेयकों पर फैसला लेने के लिए डेडलाइन लागू करने के मामले पर सुनवाई चल रही है। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संवैधानिक पीठ इस मामले की सुनावई कर रही है। गुरुवार (21 अगस्त) को तीसरे दिन भी इस मामले पर सुनवाई जारी रही जिसमें सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने विधेयकों से जुड़ी दिक्कतों के न्यायिक समाधान के बजाय राजनीतिक समाधान तलाशने की बात कही है।

यह मामला तमिलनाडु से शुरू हुआ था जहाँ राज्यपाल के बिल रोककर रखने पर राज्य सरकार ने अदालत का रुख किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा था कि राज्यपाल के पास पॉकेट वीटो नहीं है। इस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रपति को भी राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शीर्ष अदालत ने 14 सवाल पूछे थे जिस पर यह पीठ विचार कर रही है।

बिलों की दिक्कतों के राजनीतिक समाधान तलाशने होंगे: सरकार

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा था कि अगर राज्यपाल बिलों को अनुमति देने में देरी कर रहे हैं तो इससे निपटने का उपाय क्या हो सकता है। इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा है कि अगर राज्यपाल ऐसा करते भी हैं तो राज्यों को न्यायिक समाधान के बजाय राजनीतिक समाधान तलाशने होंगे।

तुषार मेहता ने कहा है, “अगर कोई राज्यपाल विधेयकों में देरी कर रहा है तो राजनीतिक समाधान हो सकते हैं। ऐसे समाधान हो भी रहे हैं और हर बार राज्य को सुप्रीम कोर्ट जाने की जरूरत नहीं होती। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री से मिलकर बात करते हैं, कभी राष्ट्रपति से जाकर मिलते हैं। कई बार नेताओं का दल जाकर कहता है कि ये बिल अटके पड़े हैं, राज्यपाल से इस पर कार्रवाई करने के लिए कहें। कई बार फोन पर ही बात करके मामला सुलझा लिया जाता है। कभी-कभी मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राज्यपाल की बैठक होती है और रोकटोक दूर हो जाती है।”

उन्होंने कहा, “अब सवाल ये है कि क्या अदालत कोई तय समय-सीमा तय कर सकती है? संविधान में जब कोई समय-सीमा दी ही नहीं है। ये दिक्कत कई दशकों से हर राज्य में कभी-न-कभी सामने आती रही हैं। जब नेता समझदारी और राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हैं, तो आपस में बैठकर ही हल निकाल लेते हैं। यही असली समाधान है। देश की हर समस्या का समाधान यहाँ (सुप्रीम कोर्ट) नहीं हो सकता। कुछ समस्याएँ ऐसी भी हैं जिनका समाधान आपको सिस्टम में ही मिल जाएगा।”

कानून की व्याख्या में खुद से कुछ नहीं जोड़ सकता SC: सॉलिसिटर

CJI गवई ने कहा कि अगर कुछ चीज गलत है तो उसका समाधान भी होना चाहिए। इस पर मेहता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट सभी समस्याओं के लिए समाधान नहीं हो सकता है। कोर्ट ने जब कहा कि ‘कानून की व्याख्या’ न्यायालय द्वारा की जानी चाहिए तो इस पर मेहता ने कहा कि व्याख्या के दौरान संविधान में शब्द जोड़ना बिल्कुल अलग बात है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर हम डेडलाइन नहीं तय कर सकते हैं तो ऐसे मामलों का समाधान क्या होना चाहिए। मेहता ने कहा, “आपकी आपत्ति समय-सीमा तय करने के औचित्य पर है लेकिन इससे अदालत को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह खुद समय-सीमा तय करे। कभी–कभार 1-2 राज्यों से ऐसे मामले आते हैं। अगर यही समस्या है तो उसका हल संसद के पास है। सुप्रीम कोर्ट संसद से अनुरोध कर सकता है लेकिन आप सीधे संसद को आदेश नहीं देते। एक संवैधानिक संस्था दूसरी संवैधानिक संस्था को आदेश नहीं देती, यही संवैधानिक मर्यादा है।”

संविधान में 31 जगहों पर है समय-सीमा: मेहता

मेहता ने कहा कि संविधान में कम से कम 31 जगह ऐसी हैं जहाँ समय-सीमा स्पष्ट रूप से लिखी गई है, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने माना कि कुछ काम समयबद्ध तरीके से होने चाहिए। जहाँ समय-सीमा नहीं दी गई, वहाँ यह जान-बूझकर छोड़ा गया है। उन्होंने कहा, “संविधान निर्माताओं ने सोच-समझकर तय किया था कि कुछ कार्यों में समय-सीमा होनी चाहिए और कुछ में नहीं।”

संविधान का कोई अंग ऊपर नहीं: मेहता

मेहता ने तर्क दिया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 200 या 201 के तहत लिया गया फैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है क्योंकि यह मूल रूप से विधायी काम है। उन्होंने कहा, “सहमति की शक्ति एक विधायी कार्य है और चूँकि राज्यपाल/राष्ट्रपति भी संविधान के समान स्तर के संवैधानिक अंग हैं, इसलिए इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।” मेहता ने कहा कि भारत में संवैधानिक सर्वोच्चता का सिद्धांत लागू होता है और संविधान का कोई भी अंग यह दावा नहीं कर सकता कि वही सबसे ऊपर है।

न्यायिक आतंकवाद ना बने न्यायिक सक्रियता: CJI

CJI गवई ने मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि न्यायिक सक्रियता कभी भी न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलनी चाहिए। तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि हमें निर्वाचित लोगों को कभी कमतर नहीं आँकना चाहिए। इस पर CJI ने कहा, “हमने निर्वाचित लोगों के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। मैंने हमेशा कहा है कि न्यायिक सक्रियता कभी भी न्यायिक आतंकवाद या न्यायिक दुस्साहस नहीं बननी चाहिए।”

मेहता ने कहा कि निर्वाचित लोग सीधे तौर पर जनता का सामना करते हैं। अब लोग जनप्रतिनिधियों से सवाल करते हैं। अब मतदाता जागरूक हैं और उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता है।

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