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लिव इन ‘हराम’, इस्लाम में ‘जिना’ की सजा 100 कोड़े: जानिए हाई कोर्ट को क्यों कहना पड़ा- धर्मांतरण विरोधी कानून से बचने के लिए हो रहा इस्तेमाल


हाई कोर्ट लिव इन

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मुस्लिम पुरुष और दलित महिला के उस जोड़े को राहत देने से इनकार किया है, जिसने ‘लिव इन’ में रहने की बात करते हुए गिरफ्तारी पर रोक की गुहार लगाई थी। हाई कोर्ट ने कहा है कि इस्लामी कानून के अनुसार हिंदू और मुस्लिम का लिव इन में रहना ‘हराम’ है।

अदालत ने कहा कि इस्लामी कानून में ‘जिना’ की सजा 100 कोड़े हैं। मोटे तौर पर जिना का अर्थ निकाह के बगैर कामुक रिश्तों से है। अदालत ने कहा कि इस्लाम में निकाह से पहले ‘किस’ और ‘टच’ जैसी किसी भी प्रकार की यौन गतिविधि ‘हराम’ बताई गई है।

29 जुलाई 2025 के अपने इस आदेश में जस्टिस संगीता चंद्रा और ​जस्टिस बृज राज सिंह की खंडपीठ ने यह भी कहा है कि उत्तर प्रदेश में जबरन धर्मांतरण रोकने के लिए बनाने गए कानून से बचने के लिए भी लिव इन का दुरुपयोग हो रहा है।

इस मामले में युवती के पिता ने BNS और SC/ST एक्ट के तहत FIR दर्ज कराई है। कोर्ट में युवक-युवती लिव इन में रहने से जुड़े पूरे सबूत भी नहीं दे पाए। इसके बाद कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर गिरफ्तारी पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। अदालत ने कहा कि ऐसे रिश्तों को धर्मांतरण के कानून या पर्सनल लॉ के तहत नैतिकता से बचने का बहाना नहीं बनाया जा सकता।

याचिकाकर्ताओं का कहना था कि वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं। बालिग हैं। इसके कारण अपनी मर्जी से किसी के भी साथ रहने को स्वतंत्र हैं। लेकिन युवती के पिता और पुलिस उन्हें परेशान कर रही है। इस दलील को मानने से इनकार करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि कपल को साथ रहने के लिए उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण विरोधी ऐक्ट के हिसाब से कानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए।

क्या है इस्लाम का जिना, इस पर हाई कोर्ट ने क्या कहा?

इलाहाबाद हाई कोर्ट कहा, “इस्लामी कानून में निकाह के बिना यौन संबंध को मान्यता नहीं दी जा सकती। मियाँ-बीवी बीच के यौन संबंध के अलावा किसी भी अन्य यौन संबंध को ‘जिना’ माना गया है। इसमें निकाह से पहले या निकाह के बाद किसी गैर मर्द/औरत से संबंध भी शामिल है। इस तरह निकाह से पहले यौन संबंध इस्लाम में जायज़ नहीं है।”

हाई कोर्ट ने आगे कहा, “निकाह से पहले किसी भी प्रकार की यौन, कामुक, स्नेहपूर्ण क्रिया जैसे चुंबन, स्पर्श, घूरना जैसी चीजें इस्लाम में ‘हराम’ है क्योंकि इन्हें ‘ज़िना’ का हिस्सा माना जाता है। कुरान के अनुसार ऐसे अपराध की सजा व्यभिचार सौ कोड़े मारने की है। ‘सुन्नत’ में इसकी सज़ा पत्थर से मार-मारकर जान लेने की है।”

हाईकोर्ट के आदेश का हिस्सा

हाई कोर्ट ने आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता अपनी रिश्ते को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं पेश कर पाए। वे अपनी उम्र और अन्य जरूरी तथ्यों की जाँच कराए बगैर रिश्ते पर अदालत की मुहर चाहते थे। हाई कोर्ट ने इस दौरान लिव इन से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों का हवाला भी दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि कुछ फैसले बालिगों के सहमति से बनाए संबंधों के पक्ष में हैं, लेकिन इन्हें सभी लिव इन रिलेशनशिप पर लागू नहीं माना जा सकता।

मुस्लिमों को लिव इन में रहने का अधिकार नहीं: हाई कोर्ट

इससे पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक अन्य फैसले में कहा ​था कि इस्लाम को मानने वाला व्यक्ति लिव इन रिलेशनशिप में रहने का दावा नहीं कर सकता। खासकर तब जब उसका जीवन साथी जीवित हो। यह फैसला जस्टिस अताउ रहमान मसूदी और जस्टिस अजय कुमार श्रीवास्तव की खंडपीठ ने सुनाया था।

लिव इन रिलेशनशिप पर क्या कहता है भारत का कानून?

भारतीय कानून में लिव इन रिलेशनशिप को खास तौर पर परिभाषित करने वाला कोई अधिनियम नहीं है। लेकिन इन संबंधों को संविधान के अनुच्छेद 21 से कानूनी अधिकार मिलता है। सुप्रीम कोर्ट यह मानता है कि वयस्कों को अपनी पसंद के साथी के साथ रहने का मौलिक अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा शर्मा बनाम वीएवी शर्मा 2013 के मामले में लिव इन रिलेशनशिप को लेकर गाइडलाइंस दी हैं। इनमें ‘लिव-इन में रहने वालों का व्यस्क होना, एक तय अवधि तक साथ रहना, एक घर में साथ रहना, एक ही घर की वस्तुओं का इस्तेमाल करना, बच्चों को प्रेम से रखना और लोगों को यह जानकारी होना कि दोनों साथ रहते हैं’ जैसी चीजें शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) मामले में कहा है कि दो बालिगों के बीच सहमति से लिव इन संबंध कोई अपराध नहीं है, भले ही इसे अनैतिक माना जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में कट्टुकंडी एडथिल कृष्णन बनाम वाल्सन मामले में कहा कि लंबे समय के लिव इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों को वैध माना जा सकता है। यदि कोई पुरुष और महिला सहमति से लंबे समय तक एक साथ रहते हैं तो उनके बच्चे को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित नहीं किया जा सकता है।

अखिलेश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2020) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि यदि कोई पक्षकार पहले से विवाहित है तो लिव इन रिलेशनशिप अवैध मानी जा सकती है।

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