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राहुल गाँधी ने वैचारिक दिवालियेपन में RSS-वामपंथियों की कर दी तुलना, INDI गठबंधन में पड़ गई दरार: बिहार चुनाव से पहले कॉन्ग्रेस डुबाने को आतुर हैं कन्फ्यूज आइडियोलॉजी वाले युवराज


राहुल गाँधी

बिहार में विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होते ही सियासी हलचल तेज हो गई है। लेकिन इस बार चर्चा का केंद्र कोई नीतिगत मुद्दा या विकास का एजेंडा नहीं, बल्कि कॉन्ग्रेस सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी का एक बयान है।

केरल के कोट्टायम में एक कार्यक्रम में राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPM को एक ही तराजू में तौलते हुए कहा, “मैं RSS और CPM दोनों से वैचारिक रूप से लड़ता हूँ। मेरी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि इन दोनों में लोगों के लिए भावनाएँ नहीं हैं।” इस बयान ने न सिर्फ सत्तारूढ़ बीजेपी को हमला करने का मौका दिया, बल्कि इंडी गठबंधन के सहयोगी वामपंथी दलों को भी नाराज कर दिया।

यह बयान बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में… जहाँ वामपंथी पार्टियाँ इंडी गठबंधन का हिस्सा हैं, एक बड़े सियासी तूफान का कारण बन सकता है। इस लेख में हम राहुल गाँधी के इस बयान के बिहार में इंडी गठबंधन पर प्रभाव, उनकी वैचारिक उलझन और भारतीय राजनीति में विचारधाराओं के टकराव को समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही यह भी देखेंगे कि राहुल गाँधी की राजनीतिक सोच आखिर है क्या और क्यों वह बार-बार ऐसी स्थिति में फँस जाते हैं, जहाँ उनकी अपनी पॉलिटिकल अप्रोच को ही नुकसान पहुँचता है।

सोचने की बात तो ये भी है कि आखिर वो क्या वजह है कि राहुल गाँधी अक्सर वैचारिक सोच के मुद्दे पर मतिभ्रम का शिकार हो जाते हैं और ऐसी उल-जलूल हरकत कर बैठते हैं कि उन्हें पूरे देश में कोई गंभीरता से नहीं लेता… बस, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को छोड़ दें तो, क्योंकि वो पार्टी चीफ अगर गधा है, तब भी उसे ‘सुप्रीम हाई कमान’ ही मानते हैं। फिर चाहे वो 52 साल का युवा हो, या 10वीं फेल ‘उत्तराधिकारी’…

भारतीय राजनीति में विचारधाराओं का बारीक विभाजन

भारतीय राजनीति को समझने के लिए पहले हमें विचारधाराओं का मूल ढांचा समझना होगा। दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में, राजनीति मुख्य रूप से दो धुरियों पर टिकी होती है: दक्षिणपंथ और वामपंथ। इसके अलावा तीसरा रास्ता है मध्यमार्गी या समाजवादी विचारधारा, जो दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करती है। और चौथी धारा है पॉपुलिस्ट या अवसरवादी, जो जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे मुद्दों पर आधारित होती है। आइए, पहले तो यही बात समझते हैं-

  1. दक्षिणपंथ (Right-Wing): यह विचारधारा राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक गौरव और परंपराओं को बढ़ावा देती है। भारत में बीजेपी, शिवसेना जैसी पार्टियाँ और RSS जैसे राष्ट्रवादी संगठन इस विचारधारा के प्रमुख प्रतीक हैं। ये दल राष्ट्रवाद, आर्थिक उदारीकरण और मजबूत केंद्रीकृत शासन की वकालत करते हैं। हालाँकि शिवसेना जैसी पार्टियाँ अतीत में दक्षिणपंथी भले ही रही हों, लेकिन वो स्थान विशेष, राज्य विशेष, भाषा विशेष जैसे एजेंडे में बंधकर भी खुद को सीमित करती रही हैं। फिर भी, ये आम तौर पर दक्षिणपंथी अंब्रेला संगठनों में गिने जाते रहे हैं।
  2. वामपंथ (Left-Wing): वामपंथी विचारधारा सामाजिक समानता, मजदूरों और किसानों के अधिकार और धर्मनिरपेक्षता पर जोर देती है। भारत में CPM, CPI और CPIML जैसे दल इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दल पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं और समाजवादी ढाँचे की वकालत करते हैं। इनके कई सहयोगी चरमपंथी भी रहे हैं और वो सशस्त विद्रोह का रास्ता अपना कर देश विरोधी कार्यों में लगे हुए हैं। प्रतिबंधित माओवादी-नक्सलवादी संगठन इसके उदाहरण हैं।
  3. मध्यमार्गी या समाजवादी (Centrist/Socialist): यह विचारधारा दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच संतुलन बनाती है। भारत में कॉन्ग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से इस मध्यमार्गी रास्ते को अपनाया है, जिसमें धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक कल्याण और आर्थिक सुधारों का मिश्रण शामिल है। एनसीपी जैसी पार्टियाँ, जिनके नेता कॉन्ग्रेस से ही निकले रहे हैं, वो भी इसी मार्ग पर चलने के लिए जानी जाती हैं, हालाँकि एनसीपी जैसी पार्टियाँ पूँजीवाद की समर्थक रही हैं।
  4. पॉपुलिस्ट या अवसरवादी: यह धारा किसी ठोस विचारधारा पर नहीं टिकी होती। यह जाति, धर्म, क्षेत्रीय अस्मिता जैसे मुद्दों पर आधारित होती है और तात्कालिक लाभ के लिए नीतियाँ बनाती है। भारत में कई क्षेत्रीय दल जैसे DMK, RJD, SP, BSP और कुछ हद तक AAP इस श्रेणी में आते हैं।

कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी स्थापना से लेकर अब तक मध्यमार्गी और पॉपुलिस्ट विचारधारा का मिश्रण रही है। यह कभी समाजवादी नीतियों (जैसे इंदिरा गाँधी के दौर में राष्ट्रीयकरण) तो कभी आर्थिक उदारीकरण (1991 के सुधार) की वकालत करती रही है। लेकिन राहुल गाँधी की व्यक्तिगत विचारधारा इस मिश्रण को और जटिल बनाती है, क्योंकि वह न तो पूरी तरह समाजवादी हैं, न दक्षिणपंथी और न ही वामपंथी। उनकी सोच एक ऐसी उलझन में फँसी है, जो बार-बार उनके बयानों में झलकती है।

राहुल गाँधी का वैचारिक भटकाव

राहुल गाँधी की राजनीति को समझना आसान नहीं है, क्योंकि उनकी कोई स्पष्ट वैचारिक लाइन नहीं दिखती। वह एक तरफ RSS और बीजेपी को निशाना बनाते हैं, दूसरी तरफ अपने ही गठबंधन के सहयोगियों जैसे वामपंथी दलों को उसी श्रेणी में रख देते हैं। यह बयानबाजी उनकी वैचारिक अस्पष्टता को उजागर करती है। आइए, इसे कुछ बिंदुओं के जरिए समझें-

RSS और CPM की तुलना: राहुल गाँधी का यह कहना कि RSS और CPM में लोगों के प्रति भावनाओं की कमी है, न सिर्फ तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि सियासी तौर पर भी आत्मघाती है। RSS और CPM की विचारधाराएँ ध्रुवीय रूप से विपरीत हैं। RSS जहाँ हिंदू राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक एकरूपता की बात करता है, वहीं CPM की कम्युनिष्ट विचारधारा मूल रूप से भारत भूमि की है ही नहीं। ये आर्थिक बराबरी और धर्म विरोध की वकालत करता है। हालाँकि भारत में ये इस्लामी तुष्टिकरण में शामिल रहता है।

दोनों को एक ही खाँचे में रखना न सिर्फ वैचारिक अज्ञानता को दर्शाता है, बल्कि गठबंधन की एकता को भी कमजोर करता है। केरल में कम्युनिष्टों और संघ में लंबा संघर्ष चला है और सहयोगी होने के नाते राहुल का बयान वामपंथियों के लिए बेहद अपमानजनक है।

AI जनित प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो साभार: Dall-E)

केरल और बिहार का विरोधाभास: केरल में कॉन्ग्रेस और CPM प्रतिद्वंद्वी हैं। वहाँ कॉन्ग्रेस UDF (यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट) का नेतृत्व करती है, जबकि CPM LDF (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) की अगुवाई करता है। लेकिन बिहार में दोनों इंडी गठबंधन में साथ हैं। राहुल का केरल में दिया गया बयान बिहार के संदर्भ में गलत संदेश देता है, जहाँ वामपंथी पार्टियों का ग्रामीण इलाकों में प्रभाव है। यह बयान गठबंधन के कार्यकर्ताओं में भ्रम पैदा कर सकता है और वोटों के बँटवारे का खतरा बढ़ा सकता है।

पॉपुलिस्ट बयानबाजी: राहुल गाँधी की बयानबाजी अक्सर पॉपुलिस्ट होती है, जिसमें वह बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन उनमें ठोस वैचारिक आधार नहीं होता। उदाहरण के लिए – राहुल गाँधी “नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान” की बात करते हैं, लेकिन यह नारा भावनात्मक होने के बावजूद कोई स्पष्ट नीतिगत दिशा नहीं देता। उनकी यह सोच कि “लोगों की भावनाएँ” ही नेतृत्व का आधार हैं, राजनीति को एक सतही स्तर पर ले जाती है, जहाँ ठोस नीतियों और योजनाओं की जगह भावनात्मक नारे ले लेते हैं।

गठबंधन के साथ अवसरवाद: राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस का गठबंधन रणनीति भी उनकी वैचारिक उलझन को दर्शाती है। महाराष्ट्र में वह शिवसेना (UBT) के साथ गठबंधन में हैं, जो कभी बीजेपी की सहयोगी थी और अब भी कई मायनों में दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित है। वहीं बिहार में वह RJD और वामपंथी दलों के साथ हैं, जो समाजवादी और वामपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। पश्चिम बंगाल में कॉन्ग्रेस ने पहले CPM के साथ गठबंधन किया, फिर तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) के खिलाफ लड़ा। यह अवसरवादी रवैया उनकी वैचारिक अस्पष्टता को और उजागर करता है।

बिहार में इंडी गठबंधन पर प्रभाव

बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 में होने वाले हैं और यह चुनाव इंडी गठबंधन के लिए एक बड़ा इम्तिहान है। बिहार में गठबंधन में RJD, कॉन्ग्रेस और वामपंथी दलों (CPI, CPM, CPIML) के साथ कई छोटे-मोटे जातीय-क्षेत्रीय दल शामिल हैं। लेकिन राहुल गाँधी के बयान ने गठबंधन की एकता पर सवाल उठा दिए हैं। आइए- इसके प्रभावों को विस्तार से समझते हैं…

वामपंथी दलों की नाराजगी: CPM और CPI के नेताओं ने राहुल के बयान की कड़ी आलोचना की है। CPM महासचिव एम.ए. बेबी ने इसे ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया और कहा कि यह बयान केरल और भारत की राजनीतिक वास्तविकताओं की समझ की कमी को दर्शाता है।

CPI नेता डी. राजा ने भी गठबंधन की वर्चुअल बैठक में इस मुद्दे को उठाया और कहा कि ऐसी टिप्पणियाँ कार्यकर्ताओं में भ्रम पैदा करती हैं। बिहार में वामपंथी दलों का वोट बैंक भले ही सीमित हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों, खासकर सीमांचल और मगध क्षेत्र में, उनकी संगठनात्मक ताकत अहम है। अगर यह नाराजगी बढ़ती है, तो गठबंधन के लिए सीट-बँटवारे और संयुक्त रणनीति में मुश्किलें आ सकती हैं।

कार्यकर्ताओं में भ्रम: बिहार में गठबंधन के कार्यकर्ताओं के बीच पहले से ही समन्वय की कमी रही है। RJD और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ता अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ काम करते देखे गए हैं। अब राहुल के बयान से वामपंथी कार्यकर्ताओं में भी असंतोष फैल सकता है। यह जमीनी स्तर पर गठबंधन की एकजुटता को कमजोर कर सकता है, जिसका फायदा NDA को मिल सकता है।

AAP की दूरी और गठबंधन की कमजोरी: आम आदमी पार्टी (AAP) पहले ही इंडी गठबंधन से बाहर हो चुकी है। इससे गठबंधन पहले से ही कमजोर स्थिति में है। अब अगर वामपंथी दल भी दूरी बनाते हैं, तो बिहार में गठबंधन की संभावनाएँ और कम हो जाएंगी। बिहार में RJD और कॉन्ग्रेस की ताकत सीमित है और वामपंथी दलों की संगठनात्मक क्षमता गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण है।

BJP को हमला करने का मौका: राहुल के बयान ने बीजेपी को एक नया हथियार दे दिया है। बीजेपी पहले से ही राहुल को ‘अपरिपक्व’ और ‘वैचारिक रूप से खाली’ बताती रही है। अब वह इस बयान का इस्तेमाल करके यह साबित करने की कोशिश करेगी कि राहुल न तो अपने सहयोगियों को संभाल सकते हैं और न ही एक मजबूत विपक्षी नेतृत्व दे सकते हैं। खैर, ये अब कहने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि राहुल गाँधी अपनी हरकतों से ये बात बार-बार साबित भी कर रहे हैं।

राहुल गाँधी की वैचारिक उलझन की पड़ताल

राहुल गाँधी की वैचारिक अस्पष्टता कोई नई बात नहीं है। उनकी राजनीति में कई बार ऐसे बयान और कदम देखे गए हैं, जो उनकी समझ और रणनीति पर सवाल उठाते हैं। आइए, इसे कुछ उदाहरणों के जरिए समझते हैं-

संस्थानों पर हमला: राहुल गाँधी ने कई बार कहा है कि वह न सिर्फ बीजेपी और RSS से लड़ रहे हैं, बल्कि ‘भारतीय राज्य‘ (Indian State) से भी लड़ रहे हैं। यह बयान उनकी समझ की कमी को दर्शाता है। भारतीय राज्य यानी संवैधानिक संस्थाएँ जैसे चुनाव आयोग, न्यायपालिका और प्रशासन, लोकतंत्र का आधार हैं। इन्हें सीधे निशाना बनाना न सिर्फ खतरनाक है, बल्कि यह भी दिखाता है कि राहुल की सोच में स्पष्टता का अभाव है।

आर्थिक नीतियों में भटकाव: राहुल एक तरफ पूँजीपतियों जैसे अंबानी और अडानी पर हमला करते हैं, लेकिन उनकी पार्टी की सरकारें (जैसे तेलंगाना में) इन्हीं पूँजीपतियों के साथ बड़े सौदे करती हैं। यह दोहरा रवैया उनकी आर्थिक सोच की उलझन को दर्शाता है। वह न तो पूरी तरह समाजवादी हैं और न ही उदारीकरण के समर्थक। क्योंकि एक तरफ वो देश में इंडस्ट्री की बात करते हैं, चीनी सामानों पर बोलते हैं, तो दूसरी तरफ वो गिग वर्कर्स के पास पहुँचते हैं। कभी खलासी बन जाते हैं, कभी किसान तो कभी मैकेनिक।

जाति और सामाजिक मुद्दों पर अस्पष्टता: राहुल गाँधी जातिगत जनगणना की वकालत करते हैं, लेकिन उनकी पार्टी की कर्नाटक सरकार इस मुद्दे पर टालमटोल करती रही है। यह दिखाता है कि उनकी बातें और कदम एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। फिर, कॉन्ग्रेस ने सत्ता में रहते हुए जो जनगणना कराई थी, जिसमें जाति आधारित डाटा भी अलग से सर्वे के तौर पर जुटाया गया था, लेकिन उसे सार्वजनिक ही नहीं किया गया।

वैचारिक विरोधियों की पहचान में फेल: राहुल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने वैचारिक विरोधियों को ठीक से परिभाषित नहीं कर पाते। वह एक तरफ RSS जैसे स्वदेशीय राष्ट्रवादी संगठनों को निशाना बनाते हैं, दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा आधारिक वामपंथियों को भी उसी श्रेणी में रख देते हैं। यह न सिर्फ गठबंधन की एकता को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाता है।

बिहार में इंडी गठबंधन की चुनौतियाँ

बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले इंडी गठबंधन कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। 2020 के चुनाव में गठबंधन का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था, जब RJD, कॉन्ग्रेस और वामपंथी दलों ने मिलकर भी NDA को सत्ता से हटा नहीं पाए। इस बार भी कई मुश्किलें सामने हैं, खासकर राहुल गाँधी के हालिया बयान के बाद, जिसने गठबंधन की एकता पर सवाल उठा दिए हैं।

सीट बँटवारे को लेकर बढ़ेगा तनाव: बिहार में गठबंधन के भीतर सीट बंटवारा हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। इंडी गठबंधन का सबसे बड़ा दल RJD अधिकांश सीटों पर दावा करता है। 2020 में कॉन्ग्रेस को 70 सीटें मिली थीं, लेकिन उसका प्रदर्शन कमजोर रहा, जिससे RJD और अन्य सहयोगी नाराज हुए।

इस बार वामपंथी दलों (CPI, CPM, CPIML) की माँग है कि उन्हें उनकी संगठनात्मक ताकत के आधार पर अधिक सीटें दी जाएँ। राहुल गाँधी के CPM और RSS को एक समान बताने वाले बयान ने वामपंथी दलों में नाराजगी पैदा की है, जिससे सीट बँटवारे की बातचीत और जटिल हो सकती है। अगर वामपंथी दल गठबंधन से अलग होने का फैसला करते हैं, तो यह गठबंधन की रणनीति को बड़ा झटका देगा।

बिहार के गठबंध में RJD का दबदबा: बिहार में RJD गठबंधन का नेतृत्व करता है और तेजस्वी यादव की लोकप्रियता और संगठनात्मक क्षमता इसे मजबूत बनाती है। लेकिन कॉन्ग्रेस की सीमित लोकप्रियता और राहुल के बयानों से उत्पन्न तनाव RJD के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। RJD चाहता है कि गठबंधन में एकजुटता बनी रहे, लेकिन वामपंथी दलों की नाराजगी और कॉन्ग्रेस की कमजोर स्थिति इसे मुश्किल बना रही है।

NDA की मजबूत स्थिति: बीजेपी और जेडीयू की अगुवाई वाली NDA बिहार में मजबूत स्थिति में है। नीतीश कुमार की प्रशासनिक क्षमता और बीजेपी की संगठनात्मक ताकत गठबंधन के लिए बड़ी चुनौती है। नीतीश की सामाजिक समीकरणों को साधने की क्षमता और बीजेपी का हिंदुत्व कार्ड विपक्ष के लिए मुश्किलें पैदा करता है। राहुल का बयान गठबंधन की एकता को कमजोर करता है, जिससे NDA को और मजबूती मिल सकती है।

वोटों का बँटवारा: बिहार में वामपंथी दलों का वोट बैंक भले ही सीमित हो, लेकिन सीमांचल और मगध जैसे क्षेत्रों में उनकी गहरी पैठ है। अगर राहुल के बयान से वामपंथी कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ता है या वे गठबंधन से अलग होते हैं, तो विपक्षी वोटों का बँटवारा तय है। यह NDA के लिए फायदेमंद होगा, क्योंकि विपक्ष का बिखरा वोट उनकी जीत को आसान बना सकता है।

बिहार में कॉन्ग्रेस का बेड़ा गर्क करेंगे राहुल गाँधी

राहुल गाँधी का ताजा बयान उनकी वैचारिक अस्पष्टता और सियासी अपरिपक्वता को उजागर करता है। उनकी सोच में स्पष्टता का अभाव न सिर्फ उनकी व्यक्तिगत छवि को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि इंडी गठबंधन की एकता को भी कमजोर करता है। बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य में, जहाँ गठबंधन को पहले से ही कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, यह बयान एक बड़ा झटका साबित हो सकता है।

राहुल गाँधी को अगर विपक्ष का नेतृत्व करना है, तो उन्हें अपनी वैचारिक स्थिति स्पष्ट करनी होगी। उन्हें यह तय करना होगा कि वह किस विचारधारा के साथ खड़े हैं और किसके खिलाफ। बिना किसी ठोस वैचारिक आधार के उनकी बयानबाजी केवल भ्रम और विवाद पैदा करती है। बिहार चुनाव में अगर इंडी गठबंधन को सफल होना है, तो उसे एकजुट होकर एक स्पष्ट रणनीति के साथ मैदान में उतरना होगा। लेकिन राहुल के बयानों से यह एकजुटता खतरे में पड़ रही है।

कुल मिलाकर राहुल गाँधी का बयान गठबंधन की पहले से ही नाजुक स्थिति को और कमजोर कर रहा है। अगर गठबंधन को बिहार में NDA को टक्कर देनी है, तो उसे तुरंत आपसी मतभेदों को सुलझाना होगा और एकजुट रणनीति बनानी होगी। आने वाले दिन यह तय करेंगे कि क्या गठबंधन इस संकट से उबर पाएगा, या राहुल गाँधी का वैचारिक भटकाव बिहार में विपक्ष की हार का कारण बनेगा।



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