बिहार में राहुल गाँधी की वोटर अधिकार यात्रा 16 दिन तक चली और अब खत्म हो चुकी है। ये यात्रा बिहार के 23 जिलों, 1300 किलोमीटर और 67 विधानसभा सीटों से होकर गुजरी। वैसे तो इस यात्रा का मकसद था बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वोट चोरी का मुद्दा उठाकर जनता का समर्थन हासिल करना और इंडी गठबंधन को मजबूत करना। लेकिन नतीजा उल्टा रहा।

इस यात्रा की अगुवाई करने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी न तो जनता का भरोसा जीत पाई गया, न ही गठबंधन के भीतर एकजुटता दिख पाई। यात्रा के दौरान विवाद, आपसी मतभेद और स्थानीय लोगों की उदासीनता ने इसे चर्चा का विषय बना दिया। आइए, इस यात्रा के हर पहलू को विस्तार से समझते हैं।

वोटर अधिकार यात्रा का मकसद और उसकी विफलता

राहुल गाँधी ने वोटर अधिकार यात्रा की शुरुआत सासाराम से की थी, जिसमें आरजेडी नेता तेजस्वी यादव उनके साथ थे। इसका लक्ष्य था वोट चोरी को बड़ा मुद्दा बनाना और बिहार की जनता को यह बताना कि उनके वोटिंग अधिकार खतरे में हैं। साथ ही इंडी गठबंधन को एकजुट दिखाकर तेजस्वी यादव को बिहार में मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाना भी इसका उद्देश्य था। लेकिन ये दोनों ही लक्ष्य पूरे नहीं हो सके।

स्थानीय लोगों ने इस यात्रा को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। दैनिक भास्कर से बातचीत में सीनियर जर्नलिस्ट संजय कौशिक कहते हैं, “यात्रा का सबसे बड़ा नुकसान मुद्दे के चयन में हुआ। वोट चोरी का मुद्दा बिहार की जनता के बीच गूँज नहीं सका। लोग SIR (स्पेशल इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन) को जरूरी मानते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि वोटर लिस्ट में बाहरी लोग, घुसपैठिए और मृत वोटरों के नाम हटाए जाने चाहिए।” इस वजह से राहुल गाँधी को स्थानीय समर्थन नहीं मिला।

राहुल गाँधी की वोटर अधिकार यात्रा की कवरेज ऑपइंडिया ने भी की। इस दौरान हमारी टीम ने लोगों से बातचीत की। लोगों ने राहुल गाँधी की इस यात्रा तो न सिर्फ खारिज किया, बल्कि उन्होंने बिहार SIR को बेहद जरूरी बताया। स्थानीय लोग तो घुसपैठियों की समस्या से परेशान भी दिखे।

यात्रा का रूट मैप भी मुस्लिम बहुल इलाकों को ध्यान में रखकर बनाया गया था, ताकि इस समुदाय को इंडी गठबंधन की ओर आकर्षित किया जा सके। सासाराम, रोहतास से निकली यात्रा औरंगाबाद, गया, वजीरगंज, शेखपुरा, मुंगेर से होकर भागलपुर, कटिहार, पूर्णिया, सुपौल होते हुए दरभंगा, सीतामढ़ी, बेतिया, फिर गोपालगंज, छपरा, भोजपुर होते हुए पटना में खत्म हुई। लेकिन यह रणनीति भी कारगर नहीं रही। आरा जैसे इलाकों में वामपंथी दलों को जोड़ा गया, लेकिन वहाँ भी भीड़ जुटाने में नाकामी मिली।

गठबंधन में खटास और तेजस्वी की छवि पर असर

इंडी गठबंधन में शामिल आरजेडी को उम्मीद थी कि यह यात्रा तेजस्वी यादव को बिहार में मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यात्रा के दौरान राहुल गाँधी ने सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया, जिससे तेजस्वी की छवि को नुकसान हुआ। दैनिक भास्कर से बातचीत में सीनियर जर्नलिस्ट नचिकेता नारायण कहते हैं, “राहुल गाँधी ने तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से बचकर गठबंधन की अंदरूनी खटास को उजागर कर दिया।”

इसके अलावा आरजेडी और कॉन्ग्रेस के बीच सीट बँटवारे को लेकर भी तनाव सामने आया। यात्रा से पहले चर्चा थी कि कॉन्ग्रेस को महागठबंधन में 40 सीटें भी नहीं मिलेंगी। लेकिन यात्रा के बाद लगता है कि कॉन्ग्रेस कुछ ज्यादा सीटें हासिल कर सकती है। फिर भी जमीनी स्तर पर इसका कोई खास फायदा नहीं दिखता।

विवादों ने डुबोई वोटर अधिकार यात्रा की नैया

यात्रा के दौरान कई विवादों ने इसे और कमजोर किया। सबसे बड़ा विवाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के शामिल होने पर हुआ। स्टालिन 27 अगस्त को मुजफ्फरपुर में यात्रा में शामिल हुए। लेकिन उनकी पार्टी डीएमके के नेताओं के पुराने बयान लोगों को याद आ गए।

डीएमके सांसद दयानिधि मारन ने बिहार और यूपी के लोगों को ‘टॉयलेट साफ करने वाला’ कहा था, जबकि स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने सनातन धर्म को बीमारी बताया था। बीजेपी प्रवक्ता प्रभात मालाकार ने कहा, “यह यात्रा बिहार और बिहारियों के अपमान की यात्रा थी। राहुल और तेजस्वी उन लोगों के साथ घूमे, जिन्होंने बिहार के डीएनए पर सवाल उठाए।”

दूसरा बड़ा विवाद दरभंगा में हुआ, जहाँ मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपशब्द कहे गए। मोहम्मद रिजवी को इस मामले में गिरफ्तार किया गया। इस घटना का वीडियो वायरल हो गया और बीजेपी ने इसे पूरे देश में मुद्दा बनाया।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने असम दौरे में कहा, “राहुल गाँधी को पीएम मोदी और उनकी दिवंगत माँ के लिए कहे गए अपशब्दों पर माफी माँगनी चाहिए।” खुद पीएम मोदी ने भी इस मुद्दे को जनता के सामने रखा। ऐसे में इस विवाद ने यात्रा की साख को और नुकसान पहुँचाया।

पप्पू यादव और कन्हैया कुमार का रोल सीमित, बैकफुट पर रहे

यात्रा में पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को भी शामिल किया गया, लेकिन इनका रोल भी विवादों से अछूता नहीं रहा। पप्पू यादव को पूर्णिया में इस्तेमाल किया गया, लेकिन बाद में उन्हें मंच पर जगह तक नहीं दी गई। पटना में वे मंच के पीछे बैठे दिखे, जबकि उन्होंने तेजस्वी यादव को ‘जननायक’ तक कह दिया था। कन्हैया कुमार शुरुआत में यात्रा में दिखे, लेकिन बाद में गायब हो गए।

पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसों को अभी भी आरजेडी कबूल करने को तैयार नहीं है। ऐसे में आरजेडी ने इन दोनों को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया, जिससे गठबंधन में आपसी अविश्वास की खाई और गहरी हो गई।

तेजस्वी के मुद्दों का गायब होना

आरजेडी को उम्मीद थी कि इस यात्रा से तेजस्वी यादव को बिहार में इंडी गठबंधन का फ्रंट चेहरा बनाया जाएगा, लेकिन हुआ उल्टा। सारा फुटेज खा गए राहुल गाँधी। इसकी वजह से कॉन्ग्रेस और आरजेडी के बीच मतभेद भी सामने आ गई कि राहुल गाँधी तेजस्वी यादव पर हावी हो गए। इसकी वजह से यात्रा के समापन को बदल दिया गया और बेहद निराशा भरे माहौल में पटना में यात्रा को खत्म कर दिया गया।

बिहार में एक वर्ग है- जिसने सिर्फ जंगल राज की कहानियों को पढ़ा है, उस समय के बारे में सिर्फ सुना है, उन्होंने जंगलराज को जिया नहीं है। मतदाताओं के ऐसे वर्ग ने 20 सालों से नीतीश कुमार को ही सत्ता में बने देखा है। जंगलराज को न जानने वाले इस मतदाता वर्ग में एंटी इन्कमबेंसी फैक्टर बना हुआ था। यही वर्ग मजबूरी के विकल्प के तौर पर तेजस्वी यादव की तरफ भी देख रहे थे। 2020 में भी देख रहे थे, अभी भी देख रहे हैं।

यही वजह है कि तेजस्वी यादव कलम, रोजगार इन सब चीजों की बात भी करते थे। लेकिन कॉन्ग्रेस ने अपने वोट चोरी का जो फर्जी एजेंडा थोप दिया। उससे तेजस्वी यादव के मुद्दे खो गए। साफ है – कॉन्ग्रेस के वोट चोरी के एजेंडे ने तेजस्वी के इन मुद्दों को दबा दिया।

इन सब की वजह से जो नए मतदाताओं के बीच कलम-रोजगार जैसे मजबूरी के मुद्दों के बीत तेजस्वी उभर रहे थे, वो सब भी तेजस्वी और इंडी गठबंधन के हाथों से फिसल गए। नचिकेता नारायण कहते हैं, “कॉन्ग्रेस खुद को RJD के बराबर खड़ा करने में कामयाब रही। इसके अलावा उसे बहुत ज्यादा फायदा नहीं हुआ। वोट चोरी का मुद्दा लोगों ने नकार दिया। यात्रा के दौरान दिखाए गए सबूत या तो गलत निकले या जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।”

क्या मिला इंडी गठबंधन को?

यात्रा से इंडी गठबंधन को मिला-जुला फायदा हुआ। कॉन्ग्रेस के लिए यह संगठन को मजबूत करने का मौका था। संजय कौशिक कहते हैं, “बिहार में कॉन्ग्रेस का संगठन लगभग खत्म हो चुका था। इस यात्रा ने कार्यकर्ताओं में नई जान फूँकी।” लेकिन वोटों में इसका कितना फायदा होगा, यह साफ नहीं है।

आरजेडी के लिए यात्रा फायदे का सौदा नहीं रही। दैनिक भास्कर से बातचीत में सीनियर जर्नलिस्ट मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “RJD के लिए यह यात्रा फायदे का सौदा साबित नहीं हुई। उसे इकलौता फायदा मुस्लिम वोटों का बंटवारा रोकने का मिला। रणनीतिक रूप से उसे नुकसान ही हुआ।” हालाँकि, नचिकेता नारायण का मानना है कि राहुल और तेजस्वी की केमिस्ट्री से सीट बँटवारे और वोट ट्रांसफर में आसानी हो सकती है।

भाकपा (माले) जैसी छोटी पार्टियों को इस यात्रा से कुछ फायदा हुआ। पार्टी के जनरल सेक्रेटरी दीपांकर भट्टाचार्य पूरे 16 दिन राहुल के साथ दिखे, जिससे उनकी पार्टी की अहमियत बढ़ी।

क्या बदला बिहार का सियासी माहौल?

यात्रा के रूट में शामिल 67 विधानसभा सीटों में से 2020 में एनडीए ने 39 सीटें जीती थीं, जबकि कॉन्ग्रेस को सिर्फ 9 सीटें मिली थीं। राहुल गाँधी के सामने इन सीटों पर एनडीए की मजबूती को तोड़ने की चुनौती थी, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। यात्रा के समापन में पटना के गाँधी मैदान में बड़ी रैली की योजना थी, लेकिन भीड़ न जुटने की वजह से इसे रोडशो में बदल दिया गया। राहुल गाँधी जल्दी ही बिहार से निकल गए।

खोया ज्यादा, पाया कम

कुल मिलाकर इस यात्रा से पहले जो चर्चा थी कि इंडी गठबंधन में कॉन्ग्रेस को 40 सीटें भी नहीं मिलेंगी, वो इस यात्रा के बाद बदल गया है। अब लगता है कि शायद कॉन्ग्रेस कुछ ज्यादा सीट झटक ले। हालाँकि इस यात्रा से ये भी साफ हो गया है कि कॉन्ग्रेस भले ही कुछ सीटें इंडी गठबंधन में ज्यादा ले ले, लेकिन जमीन पर उसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला। क्योंकि सालों तक विपक्ष में रहने के बावजूद न तो कॉन्ग्रेस के पास कोई मुद्दा है और न ही आरजेडी के पास। ऐसे में राहुल गाँधी की वोटर अधिकार यात्रा का जमीन पर कोई खास फर्क पड़ा हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं दिखता है।

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