आजकल भारतीय उपमहाद्वीप की जगह दक्षिण एशिया शब्द ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा है। यह बदलाव कोई संयोग नहीं था, बल्कि 1940 से 1970 के बीच अमेरिकी विदेश विभाग के नीति-नियामक संस्थाओं ने इसे जानबूझकर बढ़ावा दिया। इसका मकसद ऐसा शब्द देना था जो भारत समेत आस पास के पूरे क्षेत्र को एक साथ दर्शाए।
असल में इसमें एक और छुपा हुआ उद्देश्य था- पूरे क्षेत्र की भारतीय विरासत और सांस्कृतिक जड़ों को कमजोर कर उसे उसके सनातन (प्राचीन) इतिहास से अलग करना। धीरे-धीरे यह एजेंडा काम भी करता गया।
अब हालात ये हैं कि दिवाली जैसे खास भारतीय त्योहार को दक्षिण एशियाई त्योहार कहा जाने लगा है और ओलंपिक विजेता नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ियों को दक्षिण एशियाई ओलंपियन कहा जाता है, न कि भारतीय।
भारतीय पहचान और हिंदू संस्कृति से समझौता करना एक कड़वा घूँट तो था ही, पर बात अगर गलत एजेंडे पर ही खत्म हो जाती तो शायद इतनी चिंता नहीं होती। लेकिन हालात इसके बिल्कुल उलट निकले। ऐसा लगा जैसे यह योजना पूरी नहीं हुई हो, क्योंकि बाद में दक्षिण एशिया शब्द का गलत इस्तेमाल किया गया।
इसका उपयोग कुछ खास धर्म, देश और विचारधारा से जुड़े लोगों के बड़े अपराधों को छिपाने के लिए किया गया और इन अपराधों का दोष पूरे क्षेत्र, खासकर भारत पर गलत तरीके से डाला गया।
दक्षिण एशिया शब्द के इस दुरुपयोग को कई बार बढ़ावा मिला। कई भारतीयों ने इसके विरोध में आवाज तो उठाई मगर इस गलत प्रथा को रोकने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया गया। यह बात खासकर तब साफ तौर पर दिखी जब यूनाइटेड किंगडम में कई दशकों से नाबालिग ब्रिटिश लड़कियों के बलात्कार, उत्पीड़न और जघन्य अपराधों में शामिल पाकिस्तानी ग्रूमिंग गिरोहों का खुलासा हुआ। फिर भी, उनकी असली पहचान और पृष्ठभूमि को छुपाने के लिए उन्हें दक्षिण एशियाई कहकर एक बड़े समूह में डाल दिया गया।
इस तरह दक्षिण एशिया शब्द का इस्तेमाल न केवल क्षेत्र की असली पहचान को कमजोर करने के लिए हुआ, बल्कि अपराधों के दोष को भी गलत जगह पर ले जाने के लिए किया गया।
मैं अपनी पहचान का इस तरह का अनादर बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकती, खास तौर पर तब जब यह उन लोगों की ओर से हो जो असली मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय, सब कुछ दक्षिण एशिया के नाम पर छिपाने की कोशिश करते हैं। ये लोग उन अपराधों को नजरअंदाज कर देते हैं जो उनके पसंदीदा समूहों द्वारा किए जाते हैं, लेकिन राजनीतिक शुद्धता की आड़ में उन्हें ढकने की कोशिश करते हैं।
उदाहरण के लिए, अगर कोई पाकिस्तानी कुछ अच्छा करता है, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो, तो उसका नाम, देश और धर्म खुलकर बताया जाता है, ताकि उसकी पहचान उससे जोड़ी जा सके। लेकिन अगर कोई भारतीय किसी छोटी गलती का भी दोषी पाया जाता है, तो उसके साथ ऐसा नहीं होता। उसकी राष्ट्रीयता और पहचान को दक्षिण एशिया कहकर नहीं छिपाया जाता, बल्कि उसे पूरी तरह उजागर किया जाता है।
इस तरह, भारतीयों को वो समान व्यवहार नहीं मिलता जो दूसरों को मिलता है। उनकी राजनीतिक शुद्धता उस समय अचानक गायब हो जाती है और भारतीयों की पहचान को ही निशाना बना लिया जाता है।
ठीक इसी तरह, जब कोई भारतीय या भारत कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करता है, तो उसका पूरा श्रेय भारत को नहीं दिया जाता। इसके बजाय, इसे दक्षिण एशिया की उपलब्धि बताकर पेश किया जाता है। जैसे इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे बाकी देशों ने भी अपना योगदान दिया हो।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को न सिर्फ अपनी उपलब्धियों का श्रेय दूसरों के साथ बाँटना पड़ता है, बल्कि कई बार उसे उन देशों के साथ दोष भी साझा करना पड़ता है, जिनका भारत से कोई सीधा लेना-देना नहीं होता। कभी-कभी तो हालात इतने कठिन हो जाते हैं कि असल हकीकत भी मजाक जैसी लगने लगती है।
प्रधानमंत्री कीर स्टारमर पर भड़के ब्रिटिश-भारतीय
मेरी तरह, कई भारतीयों और ब्रिटिश भारतीयों ने भी प्रधानमंत्री कीर स्टारमर पर नाराजगी जताई है। 2008 से 2013 तक जब वे लोक अभियोजन निदेशक (DPP) थे, तब उनके लिए गए फैसलों में खुद का बचाव करते हुए उन्होंने एशियाई ग्रूमिंग गैंग जैसे शब्द का इस्तेमाल किया, जिसकी वजह से विवाद और बढ़ गया।
यह मामला इतना बढ़ा कि एलन मस्क तक को कहना पड़ा कि ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे पर हमेशा टालमटोल करती है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि स्टारमर अपने कार्यकाल के दौरान ग्रूमिंग गैंग से जुड़ी गंभीर और संस्थागत समस्याओं को भी ठीक से निपटा नहीं सके।
सिख और ब्रिटिश भारतीय नेताओं ने भी इस शब्दावली पर आपत्ति जताई। उनका कहना था कि एशियाई शब्द का इस्तेमाल करके श्रीलंकाई, भारतीय और अन्य समुदायों को भी बदनाम किया जाता है, जबकि ये ज्यादातर मामले पाकिस्तानी मूल के लोगों से जुड़े होते हैं। उनकी वजह से पूरे एशियाई समुदाय पर बेवजह दाग लगता है।
यूके हिंदू परिषद के अध्यक्ष कृष्ण भान ने निराशा जताई कि प्रधानमंत्री ने इन गंभीर मामलों को छुपाने के लिए ‘एशियन’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि जब हिंदू और सिख लड़कियाँ भी इन ग्रूमिंग गिरोहों की शिकार बनी हैं, तो ऐसे अस्पष्ट शब्द का इस्तेमाल करना सभी एशियाई समुदायों का अपमान है।
फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल यूके के प्रवक्ता जय शाह ने भी इस दोहरे मापदंड पर सवाल किया कि हमें इस ग्रूमिंग गैंग्स की श्रेणी में क्यों रखा जाता है? उन्होंने कहा कि जब ग्रूमिंग गैंग्स की बात होती है, तो हमें एशियाई कह दिया जाता है। लेकिन जब कश्मीर जैसे मुद्दों की बात आती है, तो हमें खास तौर पर भारतीय बना दिया जाता है।
शाह ने कहा कि यह भेदभाव और पक्षपात बहुत अपमानजनक है। दोनों नेताओं ने साफ तौर पर कहा कि सभी एशियाई लोगों को एक ही रंग में रंगना गलत है, खासकर जब हकीकत में जिम्मेदार केवल कुछ खास समूह होते हैं।
समुदाय के नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि एशियाई जैसे शब्दों का इस्तेमाल न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि इससे समाज में पूर्वाग्रह भी बढ़ते हैं और अलग-अलग जातियों और समुदायों के बीच के भरोसे को भी खत्म करता है।
सिख फेडरेशन यूके ने राजनेताओं की आलोचना की कि वे राजनीतिक शुद्धता की आड़ में असली मुद्दों को नजरअंदाज कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं, लेकिन सरकार और मीडिया लगातार इनसे मुँह मोड़ते रहे हैं।
हालाँकि इन अपराधों में मुस्लिम पाकिस्तानी पुरुषों की भूमिका साफ तौर पर सामने आई है, फिर भी ब्रिटिश सरकार और मीडिया ने इस मुद्दे को सीधे तौर पर उठाने से हमेशा परहेज किया है।
‘गैर-इस्लामी जानवर हैं’ इस बयान से मशहूर हुए पत्रकार मेहदी हसन एक बार फिर पाकिस्तानी अपराधियों का बचाव करते नजर आए और उनको हैवान बताने पर अपना प्रलाप जारी रखा।
हसन ने टेस्ला के सीईओ एलन मस्क पर यह भी आरोप लगाया कि वे H1B वीजा को लेकर हुए टकराव के बाद दक्षिणपंथियों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि असल में मस्क ने अमेरिका में उच्च कौशल वाले भारतीय पेशेवरों का समर्थन किया था।
पाकिस्तानी अपराधियों को उनकी असली पहचान से बुलाना जहाँ एक तरह से अस्वीकार्य माना जाता है, वहीं उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों के लिए पूरे दक्षिण एशिया या एशिया को जिम्मेदार ठहराना सेक्युलरिज्म और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का आदर्श माना जाता है, यह साफ तौर पर दोहरापन है।
जो कोई भी इस एकतरफा सोच से हटकर कुछ कहता है, उसे तुरंत इस्लामोफोब या कट्टरपंथी कहकर चुप कराने की कोशिश की जाती है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि मुख्यधारा की मीडिया बार-बार सच्चाई को नजरअंदाज करती है। ये अपराधियों को बचाने की कोशिश करती है और पॉलिटिकल करेक्टनेस के नाम पर पूरे एशियाई महाद्वीप की छवि को नुकसान पहुँचाती है।
एशियाई ग्रूमिंग गैंग जैसे शब्दों का लगातार इस्तेमाल होता रहा है, जबकि कई रिपोर्टें और यूके के सिटी काउंसिल्स स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि ज्यादातर मामलों में अपराधी पाकिस्तानी मूल के थे। इसके बावजूद पूरे महाद्वीप को इस एक शब्द से बदनाम कर दिया जाता है, जो न सिर्फ गलत है, बल्कि गहराई से अनुचित भी।
सबसे दुखद बात यह है कि यूके सरकार और उसके अधिकारियों ने कई बार आरोपितों पर सख्त कार्रवाई से नजरअंदाज कर दिया ताकि वे नस्लवादी न लगें। ऐसे में न्याय, सच्चाई और पीड़ित लड़कियों की सुरक्षा जैसे सतही प्रथमिकताओं पर ही चिंता दिखी।
दक्षिण एशिया कह कर भारत की उपलब्धियों को कमतर दिखाना
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने 2023 में चंद्रयान-3 मिशन का तीसरा चरण सफलतापूर्वक पूरा किया और चंद्रमा के अब तक अनछुए दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग की। यह भारत के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, जिस पर पूरे देश ने गर्व महसूस किया। हालाँकि इस खुशी के बीच भारतीयों को अपने जहरीले पड़ोसी मुल्क की सोच की एक और झलक देखने को मिली।
पाकिस्तानी खेल पत्रकार फरीद खान ने सोशल मीडिया पर लिखा, “चंद्रयान-3 के 23 अगस्त की शाम 5:47 बजे भारतीय समयानुसार चंद्रमा पर उतरने की उम्मीद है। दक्षिण एशिया और तीसरी दुनिया के देशों के लिए यह एक बड़ा पल है।”
इस टिप्पणी ने कई भारतीयों को नाराज कर दिया। उनका मानना था कि यह उपलब्धि पूरी तरह भारत की है और इसे दक्षिण एशिया के नाम पर पेश करना गलत है। सोशल मीडिया पर फरीद खान के बयान को लेकर मीम्स बने औरल उन्हें खूब ट्रोल किया गया।
गौरतलब बात ये है कि जब चंद्रयान-2 अपने तय लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया था, तब पाकिस्तान के नेताओं और खासकर उस समय के मंत्री फवाद चौधरी ने इसरो, प्रधानमंत्री मोदी और भारत के अंतरिक्ष मिशन का खूब मजाक उड़ाया था।
ये वही लोग हैं जिनका खुद का अंतरिक्ष कार्यक्रम लगभग न के बराबर है, फिर भी वे भारत की असफलता पर खूब हँसे। लेकिन जब चंद्रयान-3 ने सफलता हासिल की, तो इन्हीं लोगों ने उसे दक्षिण एशिया की जीत बताने में एक पल भी नहीं गँवाया ताकि भारत की मेहनत का श्रेय खुद के नाम भी बाँटा जा सके। विलियम शेक्सपियर के हेमलेट से कहें तो, “बेशर्मी, तेरा नाम पाकिस्तान है।”
यह पूरा घटनाक्रम इस बात की साफ मिसाल है कि भारत की असफलताओं का मजाक उड़ाया जाता रहा है, लेकिन उसकी कामयाबियों में हिस्सेदार बनने की होड़ लग जाती है और सबसे आगे होता है यही पड़ोसी देश जो भारत को दुश्मन राष्ट्र कहता है और आतंकवाद के जरिए उसे हजार घावों से लहूलुहान करने की हर कोशिश में रहता है।
दुख की बात ये है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई लोग इस दोगले नैरेटिव को बढ़ावा देते हैं और ऐसी भ्रामक बातें फैलाते हैं, जो भारत की असली तस्वीर को छुपा देती है।
पाकिस्तानियों ने भारतीयों के खिलाफ फैले नस्लवाद को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। ये बात अब सोशल मीडिया पर भी साफ दिखाई देने लगी है। वे भारतीयों को तरह-तरह की गालियाँ देते हैं, हिंदू धर्म पर निशाना साधते हैं और भारतीयों के खिलाफ झूठ और अपमानजनक बातें फैलाते हैं, जो अब उनके लिए एक आम आदत बन चुकी है।
ये लोग अक्सर भारत को गलत तरीके से दिखाते हैं। भारतीयों द्वारा किए गए किसी भी अपराध को पूरे देश से जोड़ देते हैं और सोशल मीडिया पर उन लोगों का साथ देते हैं जो भारतीयों के प्रति नफरत फैलाते हैं। खासकर वे उन पश्चिमी नस्लवादी विचारों के साथ दिखाई देते हैं जो भारतीय अमेरिकियों की कामयाबी और भारत के तेजी से बढ़ते विकास को पचा नहीं पाते।
फिर जब कोई उनके इस व्यवहार की सच्चाई सामने लाता है तो ये लोग उल्टे नाराज हो जाते हैं और खुद को पीड़ित बताने लगते हैं, जबकि असल में वे खुद दूसरों के खिलाफ जहर फैला रहे होते हैं।
निष्कर्ष
दक्षिण एशिया शब्द को अमेरिकी शिक्षाविदों ने इस क्षेत्र के लिए एक राजनीतिक तौर पर उदासीन रहने के तौर पर गढ़ा था। उद्देश्य ये था कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों के राजनेता, नीति निर्माता और शिक्षाविद् बिना किसी देश, खासकर गैर-भारतीय देशों, की संवेदनशीलता को ठेस पहुँचाए भारतीय उपमहाद्वीप पर चर्चा कर सकें ।
इस शब्द का इस्तेमाल इसलिए बढ़ गया कि इससे उन देशों को संतुष्ट रखा जा सके जो भारतीय उपमहाद्वीप शब्द से असहज महसूस करते हैं और इनमें सबसे ऊपर पाकिस्तान का नाम आता है। पाकिस्तान हमेशा इस बात से परेशान रहा है कि पूरा क्षेत्र भारत के नाम से जुड़ा हुआ है, इसलिए दक्षिण एशिया जैसे शब्दों को बढ़ावा देना उसके लिए फायदेमंद रहा है।
अब, पाकिस्तान से बाहर बसे प्रवासी समुदायों, खासकर अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में रहने वालों ने इस शब्द को और ज्यादा लोकप्रिय बना दिया। इसका नतीजा ये हुआ है कि आज वैश्विक स्तर पर दक्षिण एशिया एक आम शब्द बन गया है, जिससे भारत की ऐतिहासिक और भौगोलिक भूमिका को धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में धकेला जा रहा है।
जैसा कि अब साफ होता जा रहा है, पाकिस्तानियों में एक अजीब सी मानसिकता बन गई है, एक तरफ वे भारत से जुड़ी हर अच्छी खबर से खुद को जोड़ना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ उसी भारत से जलते और नफरत करते भी हैं।
भारत की कोई भी उपलब्धि हो, उसे दक्षिण एशिया की सफलता बताकर पेश किया जाता है, ताकि पाकिस्तान जैसे देशों को भी उसका श्रेय मिल सके। वहीं जब पाकिस्तानियों द्वारा कोई अपराध होता है, तो उसके लिए पूरे क्षेत्र या पूरे एशियाई महाद्वीप को दोषी ठहरा दिया जाता है।
पाकिस्तान की स्थिति बिल्कुल वैसी है जैसे कोई केक रखना भी चाहता है और खा भी लेना चाहता है, यानी वह भारत की कामयाबियों में हिस्सा भी चाहता है और भारत के खिलाफ नफरत फैलाना भी नहीं छोड़ता।
फिर भी एक भारतीय होने के नाते, यह जरूरी है कि हम पाकिस्तान और उसके समर्थक उदार पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा हमारी पहचान के लगातार हो रहे उल्लंघन के खिलाफ खुलकर आवाज उठाएँ। अब और यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान की गलतियों और हरकतों के लिए पूरे दक्षिण एशिया या एशिया को दोषी ठहराया जाए।
चाहे उन्हें राजनीतिक शुद्धता, इस्लामोफोबिया के डर या नस्लवाद-विरोधी के नाम पर कितना भी समर्थन मिल जाए चाहे वो मीडिया से हो, अंतरराष्ट्रीय राजनीति से या अन्य देशों के संस्थानों से। यह बात साफ है कि यही समर्थन भारतीयों को शायद ही कभी उसी इज्जत या सहानुभूति के रूप में मिलता है।
सच तो यह है कि पाकिस्तान जैसे एक मतलबी मुल्क के साथ भारत को न सिर्फ महाद्वीप और क्षेत्र, बल्कि सीमाएँ भी साझा करनी पड़ती हैं। लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि भारत को उसकी गलतियों का जिम्मेदार ठहराया जाए। भारत की पहचान, उसका सम्मान और उसकी उपलब्धियाँ खुद की हैं और हमें उन्हें किसी और के नाम पर नहीं बाँट सकते।
मूल रूप से यह रिपोर्ट अंग्रेजी में रुकमा राठौड़ ने लिखी है, जिसको पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करे।