काँवड़ यात्रा और शांति समिति की बैठक की प्रतीकात्मक तस्वीर

हर साल की तरह इस बार भी मुहर्रम और काँवड़ यात्रा का समय एक साथ आ रहा है। हिंदू भगवान शिव को जल चढ़ाने के लिए काँवड़ यात्रा निकालते हैं, तो मुस्लिम समुदाय मुहर्रम में इमाम हुसैन की शहादत को याद करता है। ये दोनों धार्मिक-मजहबी आयोजन अपने आप में बहुत खास हैं, लेकिन जब ये एक साथ होते हैं, तो कई बार तनाव और हिंसा की खबरें सामने आती हैं।

इसे रोकने के लिए पुलिस और प्रशासन पहले से ही शांति समितियों (पीस कमेटी) की बैठकें आयोजित कर रहा है, खासकर उन इलाकों में जहाँ हिंदू और मुस्लिम आबादी मिली-जुली है। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल बार-बार उठता है – हिंसा हो या न हो, दोष ज्यादातर हिंदुओं पर ही क्यों डाला जाता है? आखिर यह खेल क्या है?

शांति समितियों की कहाँ-कहाँ हो रही हैं बैठकें?

इसका जवाब है – देश के कई हिस्सों में… जहाँ हिंदू और मुस्लिम आबादी साथ-साथ रहती है, शांति समितियाँ बनाई गई हैं। इनका मकसद है कि मुहर्रम और काँवड़ यात्रा के दौरान शांति बनी रहे। कुछ जगहों पर ये बैठकें हो चुकी हैं-

  • दिल्ली: सीलमपुर, जहाँगीरपुरी और मंडावली जैसे इलाकों में पुलिस ने शांति समितियों के साथ बैठकें कीं। इनमें काँवड़ यात्रा के रास्तों, लाउडस्पीकर की आवाज और सुरक्षा पर बात हुई।
  • उत्तर प्रदेश: गाजियाबाद, मुजफ्फरनगर, मेरठ, मुरादाबाद, सीतापुर और रायबरेली में जिला प्रशासन ने दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं को बुलाकर बैठकें कीं।
  • पश्चिम बंगाल: मुर्शिदाबाद जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में भी शांति समितियाँ सक्रिय हैं, खासकर हाल की वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 के विरोध के बाद।
  • बिहार और झारखंड: कुछ संवेदनशील इलाकों में भी ऐसी बैठकें हुईं, जहाँ दोनों समुदायों के लोग शामिल हुए।

इन बैठकों में पुलिस, प्रशासन और दोनों समुदायों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। मकसद होता है कि रास्तों का बँटवारा हो, समय का ध्यान रखा जाए और कोई विवाद न हो। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये समितियाँ वाकई निष्पक्ष हैं या इनका इस्तेमाल सिर्फ हिंदुओं को कटघरे में खड़ा करने के लिए होता है?

हिंदुओं को दोषी ठहराने की आदत

बीते सालों में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जहाँ हिंसा के बाद हिंदुओं को ही दोषी ठहराया गया, भले ही शुरुआत दूसरी ओर से हुई हो। कुछ उदाहरण देखिए—

  • जहाँगीरपुरी-2022 (दिल्ली): हनुमान जयंती की शोभा यात्रा पर पथराव हुआ। कई लोग घायल हुए, जिनमें पुलिसकर्मी भी शामिल थे। जाँच में पता चला कि पथराव मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने किया। लेकिन शांति समिति की बैठकों और कुछ मीडिया में यह नैरेटिव बनाया गया कि हिंदुओं ने ‘उकसावे’ वाली हरकत की।
  • खरगोन-2022 (मध्य प्रदेश): रामनवमी के जुलूस पर पथराव हुआ। दुकानें और घर जले। जाँच में मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को दोषी पाया गया। लेकिन प्रशासन और कुछ मीडिया ने हिंदुओं पर इल्जाम लगाया कि उन्होंने भड़काऊ नारे लगाए।
  • मुजफ्फरनगर-2016 (उत्तर प्रदेश): काँवड़ यात्रा के दौरान एक छोटा-सा विवाद हिंसा में बदल गया। बाद में पुलिस और स्थानीय नेताओं ने काँवड़ियों पर ही इल्जाम लगाया कि उन्होंने हंगामा किया।

इन घटनाओं में एक पैटर्न दिखता है – हिंसा की शुरुआत चाहे कोई भी करे, दोष ज्यादातर हिंदुओं पर ही डाला जाता है। शांति समितियों की बैठकों में भी हिंदुओं को ही सलाह दी जाती है कि वे ‘सावधानी’ बरतें, लाउडस्पीकर न बजाएँ या जुलूस में भीड़ न करें, ताकि मुस्लिम समुदाय ‘उत्तेजित’ न हो। लेकिन क्या मुस्लिम समुदाय को ऐसी सलाह दी जाती है? यह सवाल हर बार उठता है।

शांति समितियों की जरूरत क्यों?

पुलिस का कहना है कि शांति समितियाँ बनाना जरूरी है, क्योंकि अतीत में मुहर्रम और काँवड़ यात्रा के दौरान हिंसा की कई घटनाएँ हुई हैं।

कुछ बड़े उदाहरण इस तरह से हैं-

  • अहमदाबाद दंगा-1969: मुहर्रम और अन्य आयोजनों के समय हुए दंगों में करीब 1000 लोग मारे गए।
  • मुरादाबाद दंगा-1980: ईद और अन्य आयोजनों के दौरान हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए।
  • मुजफ्फरनगर दंगा-2013: एक छोटी-सी घटना ने सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया, जिसमें कई लोग मारे गए और हजारों बेघर हुए।

पुलिस का मानना है कि शांति समितियाँ दोनों समुदायों के बीच संवाद का रास्ता खोलती हैं। इन बैठकों में रास्तों, समय और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर बात होती है। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि ये समितियाँ सिर्फ औपचारिकता हैं और इनका असल मकसद हिंदुओं को ‘नियंत्रण’ में रखना है।

कॉन्ग्रेस और शांति समितियों का इतिहास

शांति समितियों की शुरुआत का इतिहास कॉन्ग्रेस सरकारों से जुड़ा है। 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद देश में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुईं। नोआखली (बंगाल) और बिहार के दंगों में हजारों लोग मारे गए। उस समय कॉन्ग्रेस ने शांति समितियों (या अमन कमेटियों) का गठन शुरू किया। इनका मकसद था –

  • हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच विश्वास बहाल करना।
  • धार्मिक आयोजनों के दौरान तनाव रोकना।
  • हिंसा की आशंका को कम करना।

लेकिन लोगों का कहना है कि कॉन्ग्रेस ने इन समितियों का इस्तेमाल अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए किया। खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में, इन समितियों के जरिए कॉन्ग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को यह दिखाने की कोशिश की कि वह उनकी सुरक्षा की गारंटी है। इस प्रक्रिया में हिंदुओं को बार-बार “संयम” बरतने का संदेश दिया गया।

सिर्फ मुस्लिम बहुल इलाकों में क्यों?

शांति समितियाँ ज्यादातर उन इलाकों में बनाई जाती हैं जहाँ मुस्लिम आबादी ज्यादा है। जैसे दिल्ली का सीलमपुर, जहाँगीरपुरी या पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद। इसका कारण यह बताया जाता है कि इन इलाकों में सांप्रदायिक तनाव की आशंका ज्यादा रहती है। लेकिन यह बात कई सवाल उठाती है-

  • एकतरफा नीति: हिंदू बहुल इलाकों में ऐसी समितियाँ क्यों नहीं बनतीं? या उनकी जरूरत ही क्यों नहीं पड़ती?
  • हिंदुओं पर दबाव: काँवड़ यात्रा जैसे हिंदू आयोजनों में हिंदुओं को सलाह दी जाती है कि वे लाउडस्पीकर न बजाएँ, जुलूस छोटा रखें, ताकि मुस्लिम समुदाय ‘नाराज’ न हो। लेकिन मुहर्रम के जुलूसों में ऐसी सख्ती क्यों नहीं दिखती?
  • दोष का खेल: हिंसा होने पर हिंदुओं को ही दोषी ठहराया जाता है, यह कहकर कि उन्होंने ‘उकसाया’। और मामलों की जाँच में ये बात हमेशा सामने आती है कि शुरुआत मुस्लिम समुदाय ही करता है।

यह नीति न सिर्फ एकतरफा लगती है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि क्या प्रशासन मुस्लिम समुदाय को ‘तुष्टिकरण’ करने की कोशिश कर रहा है?

हिंदुओं को क्यों बार-बार सलाह?

हिंदू त्योहारों जैसे काँवड़ यात्रा, रामनवमी या हनुमान जयंती के दौरान हिंदुओं को ही सलाह दी जाती है कि वो…

  • ‘लाउडस्पीकर धीमा रखें।’
  • ‘जुलूस में ज्यादा भीड़ न करें।’
  • ‘मुस्लिम बहुल इलाकों से बचें।’

ऐसा इसलिए, ताकि मुस्लिम समुदाय ‘उत्तेजित’ न हो। लेकिन मुहर्रम जैसे मुस्लिम आयोजनों में ऐसी सख्ती कम दिखती है। और जब दोनों त्योहार एक साथ होते हैं, तो दोनों से शांति की अपील की जाती है, लेकिन हिंसा होने पर दोष फिर भी हिंदुओं पर ही डाला जाता है। यह स्थिति एक खतरनाक नैरेटिव को जन्म देती है – कि मुस्लिम समुदाय की हिंसा को ‘जायज’ माना जाए और हिंदुओं को हर बार ‘संयम’ बरतना चाहिए।

इस साल भी वही कहानी

इस साल भी मुहर्रम और काँवड़ यात्रा के लिए शांति समितियों की बैठकें हो रही हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में पुलिस और प्रशासन सक्रिय है। लेकिन हर बार की तरह, हिंदुओं को ही ज्यादा सावधानी बरतने की सलाह दी जा रही है। अगर इस बार हिंसा होती है, तो क्या फिर से हिंदुओं को ही दोषी ठहराया जाएगा?

यह ‘नाटक’ क्यों? ऐसे में लोग शांति समितियों को एक ‘नाटक’ ही मानते हैं। क्योंकि…

  • हिंदुओं को कटघरे में खड़ा करना: हिंसा की शुरुआत चाहे कोई भी करे, दोष हिंदुओं पर ही डाला जाता है।
  • राजनीतिक फायदा: कुछ राजनीतिक दल इन समितियों का इस्तेमाल अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए करते हैं।
  • एकतरफा अपील: हिंदुओं को बार-बार संयम बरतने की सलाह दी जाती है, लेकिन मुस्लिम समुदाय को ऐसी सख्ती कम दिखाई देती है।

यह सब मिलकर एक ऐसा माहौल बनाता है, जहाँ हिंदू अपने ही देश में अपने त्योहार मनाने से डरने लगते हैं।

शांति समितियाँ बनाना गलत नहीं है। अगर ये वाकई शांति ला सकती हैं, तो यह अच्छा कदम है। लेकिन इनकी कार्यप्रणाली और नीयत पर सवाल उठते हैं। बार-बार हिंदुओं को दोषी ठहराने की आदत न सिर्फ एकतरफा है, बल्कि यह सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ाती है।

अगर शांति समितियाँ निष्पक्ष हों, तो दोनों समुदायों की जिम्मेदारी बराबर होनी चाहिए। हिंसा को किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता। हालाँकि अब इस बार मुहर्रम और काँवड़ यात्रा के दौरान शांति बनी रहे, ऐसा हर कोई चाहता है, लेकिन इसके लिए प्रशासन और शांति समितियों को निष्पक्ष रहना होगा।

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