मालेगाँव ब्लास्ट मुंबई ब्लास्ट

पिछले एक माह में दो आतंकी हमलों में अदालत ने फैसले सुनाए। एक फैसला 2006 के मालेगाँव धमाकों से जुड़ा था जबकि दूसरा 2008 में हुए मुंबई लोकल धमाकों से। दोनों मामलों में धमाके के आरोपित बरी हो गए। उन्हें लगभग 2 दशक के बाद इन मुकदमों से मुक्ति मिली।

एक महीने के भीतर ही इन दोनों धमाकों के फैसले सुनाए गए। दोनों मामलों में फैसला भी एक जैसा आया, फैसला सुनाने वाली अदालतें इसी देश की हैं। कोर्ट ने फैसले में दोनों ही ब्लास्ट में सबूत ना मिलने पर दोषियों को बरी कर दिया। दोनों मामलों की शुरूआती जाँच करने वाली एजेंसी (महाराष्ट्र ATS) भी एक है। यह हमले हुए भी एक ही राज्य- ‘महाराष्ट्र’ में हुए थे।

इन दोनों फैसलों में बस एक मूलभूत फर्क है। मुंबई ब्लास्ट 2006 में आरोपित मुस्लिम थे, जिन पर बम ब्लास्ट करने का तगड़ा शक था। दूसरी तरफ मालेगाँव ब्लास्ट 2008 में वे हिंदू थे, जिनको ‘भगवा आतंकवाद’ की थ्योरी गढ़ने के लिए फँसाया गया था। दोनों को बरी किया गया। लेकिन वामपंथी मीडिया ने दोनों फैसलों पर अलग-अलग एजेंडे से रिपोर्टिंग की।

मुंबई ब्लास्ट पर वामपंथी मीडिया को यह चिंता हुई कि कैसे मुस्लिम दोषियों की जिंदगी बर्बाद हो गई। वहीं मालेगाँव ब्लास्ट का फैसला आते ही यह चिंता खत्म हो गई। तब उनका एक्टिविज्म इस दुख में बदल गया कि आखिर हिंदू आतंकवादी साबित कैसे नहीं हुए? यह दिखाने के लिए वामपंथी मीडिया ने तरह-तरह के प्रपंच रचे।

मालेगाँव ब्लास्ट 2008 मामले में मुंबई की NIA स्पेशल कोर्ट ने फैसला सुनाया। इस मामले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित समेत 7 हिंदुओं को बरी कर दिया गया। कोर्ट ने कहा कि NIA की जाँच में किसी के भी खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं और सिर्फ शक के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

जहाँ देश की बड़ी आबादी ने इस फैसले को ‘न्याय की जीत’ माना तो वहीं वामपंथी मीडिया ने फैसले को लेकर वही पुराना ‘भगवा आतंकवाद’ का हौव्वा और अदालत की नीयत पर सवाल करने वाला एजेंडा आगे बढ़ाया। लेकिन वामपंथी मीडिया की दोहरी सोच तब सामने आ गई जब उसने 7/11 मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट में 12 मुस्लिमों के कोर्ट से बरी होने पर ‘न्याय की जीत’ बताया और मुस्लिमों कि जिन्दगी खराब होने पर आँसू बहाए।

हिन्दू हुए बरी तो वामपंथी मीडिया को शक भी लगा सबूत

मालेगाँव ब्लास्ट 2008 का फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने साफ कहा था कि बिना सबूतों के सभी को बरी किया जा रहा है। कोर्ट ने कहा था कि केवल ‘शक’ के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके बावजूद वामपंथी मीडिया ने कोर्ट के बयान को सबूत समझ लिया, वो भी सिर्फ ‘भगवा आतंकवाद’ की थ्योरी को साबित करने के लिए।

मालेगाँव ब्लास्ट द वायर
मालेगाँव ब्लास्ट 2008 में ‘द वायर’ की लिखी गई खबर (फोटो साभार: The WIRE)

‘द वायर’ के इस आर्टिकल में साफतौर पर यह जताने की कोशिश की गई कि सभी आरोपित दोषी ही थे, लेकिन कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। कोर्ट के बयान को इस तरीके से दिखाया गया कि गंभीर सबूत होने के बावजूद कोर्ट ने केवल शक के आधार पर हिंदू दोषियों को बरी किया है। इस रिपोर्ट में कोर्ट के उस बयान पर जोर दिया गया, जिसमें कोर्ट ने कहा, “घटनास्थल से प्राथमिक साक्ष्यों का संग्रह ठीक से नहीं किया गया था।”

एक अलग रिपोर्ट में ‘द वायर’ मालेगाँव ब्लास्ट 2008 मामले में पूर्व स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर रोहिणी सालियान के पुराने बयान को हिन्दुओं के खिलाफ एजेंडा के लिए इस्तेमाल किया गया। इससे द वायर ने यह दिखाने का दावा किया कि फैसले के पीछे राजनीतिक दबाव था।

सालियन ने कहा था कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद मालेगाँव ब्लास्ट की पैरवी में गंभीर चूक हुई हैं। उन्होंने कहा था कि तत्कालीन मोदी सरकार ने NIA के जरिए मालेगाँव ब्लास्ट के दोषियों पर नरमी बरतने को कहा था।

मालेगाँव ब्लास्ट द वायर
मालेगाँव ब्लास्ट 2008 में ‘द वायर’ की लिखी गई खबर (फोटो साभार: The WIRE)

मामले में कोर्ट के फैसले के बाद अब रोहिणी सालियान ने आरोप लगाते हुए कहा, “यह तो पता था कि ऐसा होगा। अगर आप सच्चे सबूत पेश नहीं करेंगे तो और क्या उम्मीद की जा सकती है?” सालियान ने कहा कि साल 2017 से ही वह अभियोजक के रूप में बाहर कर दी गई थीं।

मालेगाँव ब्लास्ट द क्विंट
मालेगाँव ब्लास्ट 2008 में मुस्लिम पीड़ितों की आपबीती बताती ‘द क्विंट’ की खबर (फोटो साभार: The Quint)

मालेगाँव मामले में फैसले पर बदजुबानी करने में केवल द वायर ही नहीं बल्कि दूसरे वामपंथी मीडिया पोर्टल भी शामिल हुए। मालेगाँव फैसले पर रूदाली करने वाले गिरोह में दूसरा नाम द क्विंट है। वामपंथी पोर्टल ‘द क्विंट’ ने इस लेख में मालेगाँव ब्लास्ट 2008 के मुस्लिम पीड़ितों पर रोना रोया।

कोर्ट के फैसले पर पीड़ितों की आपबीती को क्विंट ने खूब प्रचारित किया। ब्लास्ट में मारे गए उस्मान खान के भतीजे को न्याय के साथ विश्वास टूटने का भावनात्मक प्लॉट खड़ा किया गया। मानों 7 लोगों को बरी कर कोर्ट ने कोई अपराध कर दिया हो, जबकि कोर्ट का फैसला सबूतों के आधार पर लिया गया था।

मालेगाँव पर वामपंथी मीडिया का दर्द असल में इसलिए फूटा क्योंकि हिन्दुओं को न्याय मिल गया। हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी पूरे देश के सामने मुंह के बल गिर गई। जिन साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को फँसाने का प्रयास किया गया, वह बेदाग़ छूट गए।

मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते खड़े किए भगवा आतंकवाद के नैरेटिव का दफ़न होना और वामपंथियों के प्रपंचों का अस्वीकार किया जाना, क्विंट और वायर के लिए मौत समान है। अब इस दुख को पाटने के लिए वह कुछ भी बातें कर रहे हैं। फिर इसके लिए चाहे कोर्ट को कठघरे में ही क्यों ना खड़ा करना पड़ जाए।

मुस्लिम छूटे तो न्याय व्यवस्था पर पढ़े कसीदे

इसी वामपंथी मीडिया ने मुंबई ब्लास्ट 2006 के दोषी पर कोर्ट के फैसले की सराहना की। कोर्ट के फैसले को ‘न्याय की जीत’ करार दिया। क्योंकि बरी हुए लोग ‘मुस्लिम’ थे। इन मुस्लिमों को लेकर भावानात्मक रिपोर्ट करनी शुरू कर दी गई। यहाँ कोर्ट के फैसले पर सवाल नहीं किया और ना ही राजनीतिक दबाव जैसा कोई प्रपंच रचने की बातें हुईं।

मुंबई ब्लास्ट द वायर
मुंबई ब्लास्ट 2006 में ‘द वायर’ की लिखी गई खबर (फोटो साभार: The WIRE)

‘द वायर’ ने इस मामले में एक रिपोर्ट में मुस्लिम आरोपितों को न्याय मिलने का गुणगान किया। बताया गया कि मुंबई बम धमाका 2006 में इन्हें केवल इनका हिस्सा होने तक सीमित कर दिया। उसने मुस्लिमों के 19 साल जेल में जाने के लिए आंसू बहाए और पूछा की उनकी भरपाई कौन करेगा।

मालेगाँव मामले में ATS की जाँच को ब्रह्मवाक्य मान कर हिन्दुओं को फाँसी पर चढ़ाने की इच्छा रखने वाला वामपंथी मीडिया इस मामले में इसी एजेंसी की जिम्मेदारी तय करने जैसी बातें करने लगा।

मुंबई ब्लास्ट द वायर
मुंबई ब्लास्ट 2006 में ‘द वायर’ की लिखी गई खबर (फोटो साभार: The WIRE)

मुंबई ब्लास्ट 2006 की जाँच के दौरान पुलिस ने जो प्रताड़ना आरोपितों पर की, उसकी कोर्ट के फैसले से तुलना की गई। पुलिस को तुरंत खलनायक बताया गया और 19 सालों का हिसाब माँगा गया।

मुंबई ब्लास्ट द वायर
मुंबई ब्लास्ट 2006 में ‘द वायर’ की लिखी गई खबर (फोटो साभार: The WIRE)

इसके बाद तो ‘द वायर’ ने मुंबई ब्लास्ट 2008 के एक आरोपित की कहानी अलग से बताई और बर्बाद हुई जिंदगी बताकर रोना-पीटना चालू किया। आरोपित की ‘फाँसी यार्ड’ से निकलने की कहानी इस तरह लिखी जैसे कोई मेलोड्रामा वाली फिल्म चल रही हो। पूरा आर्टिकल मानों किसी आरोपित नहीं, बल्कि फकीर की कहानी हो।

असल में वामपंथी मीडिया का यह स्वभाव ही है, हिंदू को अपराधी और मुस्लिम को पीड़ित बताना। उसे देश का औसत हिंदू हिंसक, लेकिन मुस्लिम शांतिप्रिय लगता है। उसे ईद की सेवइयों में भाईचारा दिखता है लेकिन होली के रंगों में उसे नफरत दिखाई पढ़ती है।

वह मुस्लिम के आतंकी होने पर innocent until proven guilty का रवैया अपनाती है, लेकिन हर हिंदू को वह हमेशा ही दोषी मानती है। यही वह करती आई है, और करती रहेगी।

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