क्या आप यकीन करेंगे अगर मैं कहूँ कि वो दिन दूर नहीं, जब हॉलीवुड की किसी अगली सुपरहिट फिल्म में विलेन कोई इंडियन होगा? जैसे कभी रशियन हुआ करते थे… जैसे कभी नॉर्थ कोरियन या कॉमिक्स और फ़िल्मों में नेगेटिव कैरेक्टर में चायनीज विलेन तो आपने देखें ही होंगे।
आप मेरी इस बात को अपनी मेमोरी में बिठा लीजिए क्योंकि आने वाले समय में यही होने वाला है। अमेरिका को जिस भी देश से समस्या होती है, सबसे पहले वो उसके चरित्र पर ही हमला कर माहौल बनाने का प्रयास करता है। और दुनिया के सामने साबित करने की कोशिश करता है कि ये देश या फिर ये नस्ल इतनी बुरी है। और हॉलीवुड के ज़रिए वो ये काम आसानी से करता रहा है।
जैसे जॉन रेम्बो फ़िल्म ही देख लीजिए कि वियतनाम युद्ध में हार के बावजूद, रेम्बो फिल्में अमेरिका को विक्टिम, लेकिन पावरफुल दिखाती है। जबकि वियतनामी, रूसी या अफगानी कैरेक्टर्स को हिंसक और बर्बर दिखाया जाता है। इस तरह की फिल्मों के ज़रिए अमेरिका न सिर्फ़ अपने Wars को या जेनोसाइड को नैतिक रूप से सही और जायज ठहराता है, बल्कि दुश्मन देशों या नस्लों को ‘असभ्य और खतरनाक’ भी साबित करने की कोशिश करता है।
रैम्बो फ़िल्म का थर्ड पार्ट, जब साल 1988 में रिलीज हुआ, तब हॉलीवुड ने अफगान मुजाहिदीन को सोवियत आर्मी के खिलाफ बहादुर और हीरो के रूप में पेश किया, क्योंकि उस समय अमेरिका, अफगान मुजाहिदीन का सोवियत संघ के खिलाफ समर्थन कर रहा था। लेकिन 9/11 के आतंकी हमले के बाद ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा के लिए इन हॉलीवुड की कहानी में ट्विस्ट आ गया। इसी हॉलीवुड ने साल 2012 में Zero Dark Thirty जैसी फ़िल्में बनाईं, जहाँ उन्हीं मुजाहिदीनों को आतंकवादी और विलेन के रूप में दिखाया गया।
ये कहानी सिर्फ एक भू-राजनीतिक विश्लेषण नहीं है, ये कहानी उस गठजोड़ की है, जो रीगनॉमिक्स (Reaganomics) से शुरू हुआ और अब RIC यानी, रूस, इंडिया और चीन के एकजुट होने तक पहुँच रहा है। इसमें गलवान की चोट भी है, ‘चाइमेरिका’ का मोहभंग भी… और डी-डॉलराइजेशन (De-dollarization) की दस्तक भी। ये सभी मिलकर के पश्चिमी साम्राज्य को ख़त्म करने जा रहे हैं।
निक्सन का बीजिंग दौरा (1972)
इस पूरी जियो पॉलिटिक्स को समझने के लिए हमें 1949 में चलना होगा, जब माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद अमेरिका ने चीन की नई सत्ता को मान्यता देने से इनकार कर दिया और ताइवान का समर्थन शुरू किया। फिर कोरिया युद्ध में दोनों आमने-सामने आ गए, जिससे रिश्तों में गहरी खामोशी छा गई और ये खामोशी चली करीब 25 साल तक।
इस बीच 1960 के दशक में दुनिया कोल्ड वॉर की दो ध्रुवीय गुटों में बँटी हुई थी, जहाँ अमेरिका और USSR यानी, सोवियत संघ आमने-सामने थे। लेकिन यहाँ पर चीन के रूप में एक तीसरा खिलाड़ी भी जगह बना रहा था। 1970 के दशक की शुरुआत में समीकरण बदले। चीन और सोवियत संघ के बीच भी तनाव बढ़ने लगा और अमेरिका ने इस दूरी को अपने हित में भुनाने का फैसला किया।
इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर अपनी ‘शटल डिप्लोमेसी’ के लिए बहुत चर्चित थे। उन्होंने पाकिस्तान के रास्ते गुप्त रूप से बीजिंग की यात्रा की। किसिंजर की शटल डिप्लोमेसी के बाद साल 1972 आया, शीत युद्ध की गर्मागर्मी के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन पहुँचे। और इसी के साथ दोनों देशों की 25 साल पुरानी खामोशी टूटी। ‘निक्सन गोज़ टू चाइना’ केवल एक कूटनीतिक यात्रा नहीं थी, यह सोवियत संघ यानी USSR के खिलाफ एक रणनीतिक समीकरण की शुरुआत थी। इसका मकसद सिर्फ़ एक ही था, USSR के ख़िलाफ़ चीन के रूप में दूसरा धड़ा तैयार करना!
इसके बाद ‘शंघाई कम्युनिक‘ लाया गया। अमेरिका-चीन, दोनों देशों के रिश्तों की शुरुआत हुई, लेकिन कोई ठोस आर्थिक समझौता नहीं हुआ। असली फायदा कम्युनिस्ट राष्ट्र चीन को हुआ, जो अब तक बाजार में अलग-थलग पड़ा हुआ था लेकिन अब अमेरिका के पूंजीवादी सिस्टम का दोहन कर अपने आर्थिक ढाँचे की ज़मीन तैयार कर रहा था।
Deng Xiaoping (देंग शियाओपिंग) और चीन का चमत्कार
1978-80 की बात है- आधुनिक चीन का निर्माता कहे जाने वाले देंग शियाओपिंग ने सुधार और खुले मार्केट की ‘गैइग काइफांग’ (Gaige Kaifang) की पॉलिसी शुरू की। और इसका मतलब होता है ‘Reform and Opening-up’। देंग ने चीन की बंद इकॉनमी को मार्केट इकॉनमी में बदल दिया, जिसे समाजवाद का चोला पहनाया गया। पहली बार चीन में ‘स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन्स’ बने, विदेशी पूंजी का स्वागत किया गया। चीन में पश्चिमी निवेशकों की लाइन लगने लगी- जिसके परिणामस्वरूप IBM, HP और Motorola जैसी कंपनियाँ चीन में फैक्ट्रियाँ लगाने लगीं।
यहाँ से शुरुआत हुई Chimerica की, यानी अमेरिका की पूँजी और चीन का श्रम।
Reaganomics से Walmart तक
चीन को लुभाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रेगन ने चीन को ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा दिया। इसके पीछे वजह ये भी थी कि 1980 के दशक में अमेरिका को सस्ते मैन्युफैक्चरिंग की जरुरत महसूस हुई, और चीन को डॉलर और तकनीक की। Reaganomics की नीतियों ने बाजार को और खोल दिया।
अमेरिकी कंपनियाँ चीन में सेटअप लगाने लगीं, Walmart, Apple, Nike (नाइकी) जैसी कंपनियों ने चीन को 21वीं सदी आते-आते ‘फैक्ट्री ऑफ द वर्ल्ड’ बना दिया। याद रहे, ये नई दोस्ती इसलिए शुरू हुई क्योंकि इस बीच साल 1991 आया, जब USSR पूरी तरह से टूट गया। सोवियत संघ (USSR) के बिखरने के बाद चीन और अमेरिका के बीच एक किस्म का “फ्रेंड्स विद बेनिफिट” का क्रम चलता रहा। लेकिन हर गठजोड़ की एक एक्सपायरी डेट होती है।
WTO में चीन, Chimerica ‘चाइमेरिका’ का Honeymoon (2001)
साल 2001 में चीन को WTO की सदस्यता मिली। यह अमेरिका का एक बड़ा दाँव था और उम्मीद थी कि ग्लोबल इकोनॉमी में आने से चीन उदारवादी बनेगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। चीन ने सस्ती वस्तुओं की बाढ़ अमेरिका में भेज दी, अमेरिका की घरेलू इंडस्ट्री चरमरा गई। Huawei, ZTE जैसी कंपनियाँ सामने आईं, Intellectual Property की धज्जियाँ उड़ाई गईं। ये कुछ वही था, जिसे आप आज आम भाषा में चायनीज माल कहते हैं।
चीनी कंपनियाँ अमेरिकी टेक्नोलॉजी की कॉपी करने लगीं। चीन से इम्पोर्ट तेजी से बढ़ा, लेकिन चीन ने अमेरिकी सामानों की खरीद कम की और यहीं से दोनों देशों के बीच ट्रेड डेफिसिट का घमासान शुरू हुआ। नतीजा ये हुआ कि साल 1993 में अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा करीब $22 अरब डॉलर था, जो बढ़कर 2005 तक $202 अरब डॉलर हो गया, यानी 12 साल में यह 9 गुना बढ़ गया। और यही असंतुलन आगे चलकर ट्रम्प और बायडेन, दोनों की ‘चाइना पॉलिसी’ पर हावी नजर आता है।
2008: अमेरिका की मंदी, चीन की बाजार पर आक्रामकता
फिर आया साल 2008… जब फाइनेंशियल क्राइसिस ने अमेरिका को तोड़कर रख दिया, लेकिन चीन ने इस मौके का इस्तेमाल बाजार पर अपनी ताकत दिखाने में किया। स्टेट-कैपिटलिज्म और सेंट्रल बैंकिंग मॉडल को ग्लोबल मंच पर रखा गया। यही समय था जब चीन को लगने लगा कि वो अमेरिका को टक्कर दे सकता है। अब चीन, डॉलर का सिर्फ़ ग्राहक नहीं, उसका विकल्प भी बनने निकला।
यही वो समय था, जब हॉलीवुड की फ़िल्मों में चायनीज विलेन दिखाई देने लगे। याद कीजिए साल 2008 की “The Dark Knight” फ़िल्म जिसमें Lau नाम का एक चीनी अकाउंटेंट और बिज़नेसमैन गौथम सिटी के माफिया डॉन और करप्ट बिज़नेस लॉबी का पैसा हांगकांग में छुपाकर रखता है। इसके बाद चीन ने हॉलीवुड फिल्मों पर सख़्त सेंसरशिप और कोटा सिस्टम लागू कर दिया।
फिल्म में Lau को एक चीनी बिज़नेसमैन, धोखेबाज़ और माफिया का सहयोगी दिखाया गया था। ये असल में चीन-विरोधी नैरेटिव था जिसमें चीन की छवि एक भ्रष्ट ठिकाने के रूप में सामने रखी गई।
2018–20: ट्रंप की ट्रेड वॉर, डि-कपलिंग की शुरुआत
अब थोड़ा और करीब आते हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में 2016 में खुलकर घोषणा की कि ‘चीन दशकों से हमें लूट रहा है।’ ट्रंप के तेवरों से ये साफ़ दिखने लगा कि उसके भीतर चीन को लेकर कितना आक्रोश भरा था। कोरोना वायरस को लगातार ‘चायनीज वायरस’ कहना भी इसी गुस्से की झलक थी।
अमेरिका में फौरन Huawei, TikTok पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिए गए, सैकड़ों अरब डॉलर के चीनी उत्पादों पर टैरिफ, Currency Manipulation के आरोप लगे। अमेरिका ने चीन से रिश्ते सख्त कर दिए। और चीन पूरी दुनिया का दुश्मन नजर आने लगा।
COVID-19 के बाद अमेरिकी समाज और मीडिया में चीन के खिलाफ माहौल और गर्माया। जो बाइडन भी उसी राह पर चल पड़े और उन्होंने कहा कि “We will de-risk, not decouple.” बाइडेन ने शब्द बदला, नीति नहीं। लेकिन चीन अब ऐसी स्थिति में नहीं है कि अमेरिका की गुंडागर्दी को जवाब ना दे सके।
अमेरिकी घबराहट और Eurasian विकल्प
अमेरिका को अब डर सिर्फ चीन से नहीं है बल्कि उस संभावित गठजोड़ से भी है, जिसमें रूस और भारत जैसे देश शामिल हो सकते हैं। ये गठजोड़ सिर्फ सेना या व्यापार तक सीमित नहीं था, बल्कि ये एक सोच थी, जो पश्चिमी देशों के दबदबे और डॉलर की ताकत को चुनौती दे सकती थी। दुनिया धीरे-धीरे पूछने भी लगी कि, “हम सिर्फ़ डॉलर से क्यों बँधे रहें?”
और अब बारी आई एक ऐतिहासिक पहल की – De-Dollarization
De-Dollarization: यानी डॉलर के साम्राज्य पर चोट
कोविड महामारी के बीच जब 2022 में रूस और यूक्रेन एक दूसरे के सामने आए, तब रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद उसने युआन और रूबल में व्यापार शुरू किया। चीन पहले से ही अपने डिजिटल युआन को बढ़ावा दे रहा है। ये वो समय है जब भारत भी रुपया-रूबल और अन्य द्विपक्षीय समझौतों की ओर बढ़ रहा है। इस प्रक्रिया को ही कहते हैं- De-dollarization, एक ऐसी मुहिम जो अमेरिकी आर्थिक प्रभुत्व की नींव हिला सकती है।
वो समय बहुत पीछे रह गया जब डॉलर के सामने किसी की नहीं चलती थी- अन्तरराष्ट्रीय व्यापार सिर्फ़ डॉलर पर ही होता था, जो अमेरिका की शर्तों से सहमत नहीं होता था उन पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जाते थे; और कई देशों में तो अपनी मुद्रा के ऊपर डॉलर को ही तवज्जो दी जाती थी।
जैसे जिम्बाब्वे को ही देख लीजिए। 2008-2009 में ज़िम्बाब्वे ने दुनिया की सबसे बदहाल मुद्राओं में से एक का रिकॉर्ड बनाया, हाइपरइन्फ्लेशन इतना बढ़ गया कि 100 ट्रिलियन ज़िम्बाब्वे डॉलर का नोट छापना पड़ा। लोग अपनी ही करेंसी लेने को तैयार नहीं थे। दुकानदारों ने ज़िम्बाब्वे डॉलर में सामान बेचना बंद कर दिया और आम लोग लेनदेन के लिए अमेरिकी डॉलर की माँग करने लगे। सरकार को भी मजबूरन ज़िम्बाब्वे डॉलर को बंद कर अमेरिकी डॉलर को आधिकारिक मुद्रा बनाना पड़ा।
लेकिन अब वो दिन गए। अब अर्थव्यवस्थाओं का सोचना है कि आख़िर सभी देश एक ही करेंसी के अनुसार क्यों चलें? डॉलर का ही प्रभुत्व दुनिया पर क्यों रहे? इसलिए अब सभी देश अपनी ही करेंसी में व्यापार करने की पालिसी अपना रहे हैं। और इसका मतलब ये नहीं है कि वे डॉलर का बहिष्कार कर रहे हैं। इसका मतलब ये है कि जब डॉलर की जरूरत होगी तभी डॉलर का इस्तेमाल किया जाएगा। और बस उतना ही करेंगे जितनी जरूरत होगी।
डॉलर की दादागिरी से आज़ादी की सोच ने एक नया रास्ता निकाला- BRICS+, वही BRICS जिसके ख़िलाफ़ Trump लगातार बयान दे रहे हैं। और कह रहा है कि जो देश BRICS की ‘एंटी-अमेरिकन’ नीतियों का समर्थन करेगा, उस पर भारी मात्र में टैरिफ लगाया जाएगा।
आपने ध्यान दिया होगा कि साल 2023-24 में BRICS का विस्तार हुआ। सऊदी अरब, यूएई, ईरान, मिस्र जैसे देश शामिल हुए। ये सभी देश पश्चिमी दबाव से बाहर निकलकर एक नए पॉवर सेंटर की तलाश में हैं। BRICS बैंक, डिजिटल करेंसी और युआन में ट्रेड की चर्चाएं अमेरिका की चिंता का कारण बन चुकी हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने इसी बीच कई देशों पर टैरिफ़ और आर्थिक धमकियाँ फिर से शुरू कर दीं। और इसका सबसे ताजा निशाना भारत है। क्योंकि BRICS में जो RIC है, अमेरिका और ट्रंप को सबसे ज़्यादा समस्या उसी से है।
गलवान की चोट और R-I-C में खटपट
RIC यानी Russia-India-China, साल 1990s से सक्रिय यह ट्रायंगल 2002 में औपचारिक बना। इसके लिए कई बार आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और महामारी जैसी साझा चुनौतियों पर चर्चा के ज़रिए छोटे-छोटे कदम उठाए जाते रहे। लेकिन 2020 में गलवान संघर्ष के बाद यह संबंध ठप हो गया।
भारत और चीन के बीच संबंधों में बर्फ जम गई, 20 भारतीय जवान बलिदान हुए और कई चीनी सैनिक मारे गए। जिसके बाद भारत ने चीन की आर्थिक रीढ़ को तोड़ने और उन पर बाजार की निर्भरता को कम करने के लिए कई किस्म की पहल भी की और कई चायनीज कंपनियों को बैन किया। रेलवे, टेलीकॉम, रोड और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी सरकारी परियोजनाओं से चीनी कंपनियों को बाहर कर दिया गया या कठोर जाँच की प्रक्रिया बना दी गई।
अमेरिका ने गलवान में हुई भिड़ंत के इस मौक़े को भाँपते हुए भारत के साथ रिश्ते और मजबूत किए। QUAD (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत) को नई दिशा मिली। भारत इस दौरान आत्मनिर्भर भारत नीति पर ज़ोर तो दे ही रहा था। लेकिन इस सबके बीच साल 2022 में रूस-यूक्रेन संकट शुरू हुआ और वैश्विक समीकरण फिर गड़बड़ाने लगे।
अमेरिका और पश्चिमी देश चाहते थे कि रूस एकदम अलग-थलग पड़ जाए, लेकिन बिना किसी गुट के साथ खड़े हुए भारत और चीन ने रूस से सस्ता तेल खरीदना जारी रखा और बौखलाहट अमेरिका के फैसलों में नजर आने लगी। अब अमेरिका सीधे तौर पर रूस के साथ खड़े देशों को खुली धमकी देने लगा। और टैरिफ के नाम पर धमकी इसी का परिणाम है।
RIC की वापसी की कोशिशें: रूस की मजबूरी
साल 2025 में रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने RIC गुट को फिर से ज़िंदा करने की बात की। यूक्रेन युद्ध के कारण पश्चिम से पूरी तरह से कट चुके रूस को अब भारत और चीन की ज़रूरत महसूस होने लगी, एक नए ‘Multipolar World Order’ के लिए। चीन इस पर पूरी तरह से सहमत है, लेकिन भारत फ़िलहाल असमंजस की स्थिति में है और इसके लिए चीन की पाकिस्तान से यारी बहुत बड़ी वजह है।
RIC यानी रूस, भारत और चीन का एकसाथ आना कोई असंभव बात नहीं है और इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि ये तीनों ऐसे देश हैं जिनके पास अपनी सभ्यता और संस्कृत का इतिहास है जो कि अमेरिका के पास नहीं है।
- रूस, चीन और भारत, ये तीनों देशों की सभ्यताएँ हजारों साल पुरानी हैं और इनकी सांस्कृतिक जड़ें गहरी हैं।
- रूस खुद को ‘थर्ड रोम’ मानता है। बाइज़ंटाइन साम्राज्य के पतन के बाद उसने रूढ़िवादी ईसाई सभ्यता का झंडा उठाया।
- चीन की आत्मा उसके राष्ट्रवाद में बसती है, जिसे ताओवाद, कन्फ्यूशियस और बौद्ध दर्शन से गहराई मिली है।
- भारत एक बहुधार्मिक, बहुभाषी और वैदिक परंपराओं वाला देश है, जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानी ‘पूरा संसार एक परिवार’ की भावना बसती है।
- तीनों में अनुशासन, बलिदान और आत्म-संस्कृति की गहरी भावना है और यही उन्हें अमेरिका जैसे सांस्कृतिक रूप से खोखले देशों से अलग बनाती है।
RIC अगर अपनी सभ्यता की शक्ति के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इस काम में सबसे बड़ी समस्या का नाम पाकिस्तान है। सभी लोग ये भी जानते हैं कि अमेरिका के पास पूरी दुनिया में इस वक्त सिर्फ़ पाकिस्तान ही आख़िरी फ़ुटहोल्ड है। इसके अलावा ज़्यादा से ज्यादा एक साउथ कोरिया ही अभी अमेरिका के हाथ में है। लेकिन चीन को समझना पड़ेगा कि गधों की सवारी करने से उसे RIC में कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।
इसका उदाहरण आप इस बात से समझ सकते हैं कि पाकिस्तान में जब इमरान खान रूस जाकर चाय पानी की फोटो पोस्ट कर रहे थे, तब उसके फौरन बाद पाकिस्तान में उनकी सरकार का तख्तापलट अमेरिका ने करवा दिया था। पाकिस्तान की रूस से नजदीकी उसे पसंद नहीं आई। इमरान ख़ान की रूस यात्रा और उसके तख्तापलट के बीच मात्र डेढ़ महीने का अंतर था।
अभी भी आप देख रहे हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद के ज़रिए भारत को निरंतर परेशान करने की कोशिश करता है, यहाँ से बांग्लादेश में अमेरिका ने अपना आदमी बिठाकर रखा है, दोनों ही देश में जिहादी इस्लाम है, आतंकवाद है और भुखमरी भी, लेकिन चीन की पाकिस्तान से दोस्ती हर बार इस गठबंधन के बीच आती है। उसके पास आतंकवाद के सिवाय और कुछ विकल्प नहीं है, जो चीन को समझना होगा।
आपने नोटिस किया होगा तो चीन और भारत के बीच जो सम्बन्ध खराब हुए उस समय भी डोनाल्ड ट्रम्प भी अमेरिका के राष्ट्रपति थे। और जो मारपीट हुई थी दोनों देश की सीमाओं पर वो भी उनके ही कार्यकाल में हुई थी। यानी कोई तो है जो चाहता है कि भारत और चीन में तनातनी ही रहे।
अब सवाल ये है कि रूस, भारत और चीन के साथ रहने से दुनिया को क्या फ़ायदा और नुकसान हो सकता है। तो नुकसान तो ये है कि दुनिया फिर से अमेरिका और उसके डॉलर की दादागिरी से ही जूझती रहेगी और अगर साथ नहीं आते हैं तो टैरिफ़ की धौंस बढ़ती जाएगी। जबकि इस वक्त बहस ही मल्टी-पोलर दुनिया की छिड़ी हुई है। जिसका केंद्र अकेला सिर्फ़ अमेरिका ना हो और डॉलर की गुंडागर्दी सभी देशों की इकॉनमी को तय ना करे।
और जहाँ तक फायदे की बात है तो भारत, रूस और चीन के एकसाथ होने से ये ग्लोबल पॉलिसी के मामलों में एकसाथ खड़े नजर आएँगे। एशियाई देशों का आर्थिक सहयोग मजबूत होगा और अमेरिका भी इन तीनों देशों की आर्थिक शक्ति के सामने झुककर ही रहेगा।
आप देखिए कि फार्मा और मेडिकल के सेक्टर में जितनी भी नई रिसर्च हो रही हैं उनमें रूस, चीन और भारत जैसे देश पश्चिमी देशों से कहीं आगे चल रहे हैं। जैसे जैसे मार्किट बढ़ रहा है उस हिसाब से रूस और चीन बहुत आगे बढ़ जाएँगे, जिससे सबसे ज्यादा अमेरिका का मार्किट प्रभावित होगा। आप तमाम ऐसी बीमारियों को देखिए जो लाइलाज मानी जाती हैं, रूस और चीन उनमें वैक्सीन पर काम कर रहे हैं, रिसर्च में लगे हुए हैं।
ये सारी चीजें बाजार से जुड़ी हैं और यही बात अमेरिका को परेशान करती है। क्योंकि दुनिया की कूटनीति और जियो पॉलिटिक्स इकॉनमी से चलती है। जिसमें चीन और भारत बड़े बाजार हैं। इतने बड़े बाजार कोई कोई भी नहीं छोड़ना चाहेगा।
भारत की दोराहे वाली विदेश नीति का प्रश्न
भारत के सामने एक तरफ अमेरिका है, जो उसे इंडो-पैसिफिक में रणनीतिक समर्थन, टेक्नोलॉजी और निवेश देता है। दूसरी ओर रूस है जो हमारा सैन्य साझेदार और पुराना मित्र है। और जहाँ तक बात चीन की है तो वो विरोधी भी है, लेकिन पड़ोसी और क्षेत्रीय ताकत भी।
लेकिन अगर ये तीनों देश अपने-अपने हितों के आधार पर रणनीतिक तालमेल करें, तो यह अमेरिकी वर्चस्व को संतुलित कर सकता है। RIC का यही उद्देश्य है- एक ऐसा ध्रुव खड़ा करना, जो अमेरिका की ‘वर्ल्ड पावर’ की एकाधिकार की फ़ितरत को संतुलित करे।
जिस दिन भारत, रूस और चीन अपनी प्राथमिकताएँ साझा करने लगेंगे, उसी दिन वॉशिंगटन को एहसास होगा कि ‘Unipolar World’ अब इतिहास बन चुका है।