sudarshanvahini.com

भारत में अवैध घुसपैठ: क्यों है अमेरिका की ICE जैसी एजेंसी की जरूरत? PM मोदी ने भी किया डेमोग्राफिक संतुलन की ओर इशारा


अमेरिका के सबसे ग्लैमरस शहर लॉस एंजेलिस से भयावह तस्वीरें सामने आई। सैकड़ों गाड़ियों को आगे के हवाले कर दिया गया, स्टोर्स लूटे गए और पूरा शहर जल उठा। ये तस्वीरें अवैध अप्रवासियों को बाहर निकालने की पॉलिसी के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों की थी।

ना केवल भारत बल्कि दुनिया में अवैध घुसपैठ एक बड़ी समस्या बनी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शुक्रवार (15 अगस्त 2025) को लाल किले से अपने भाषण के दौरान अवैध घुसपैठ जैसी दिक्कतों से हो रहे डेमोग्राफिक बदलाव को लेकर एक बड़ी पहल शुरू करने की बात कही है।

अमेरिका में अवैध अप्रवासियों का इतिहास

अमेरिका में अवैध अप्रवासियों का इतिहास पुराना है। 1986 में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने आव्रजन सुधार और नियंत्रण अधिनियम (Immigration Reform and Control Act) पास किया। इसके बाद 30 लाख अवैध प्रवासियों को ग्रीन कार्ड देकर उनके लिए अमेरिकी नागरिकता का रास्ता साफ हो गया। जिन्हें अमेरिकी नागरिकता मिली उनमें से अधिकर प्रवासी लैटिन अमेरिकी देशों से आए थे।

इस कानून से अमेरिका महाद्वीप के 90 से 95% लोगों को नागरिकता मिली। आगे चलकर यही नियम अमेरिका के पड़ोसी देशों में रहने वालों के लिए अवैध प्रवास का एक बड़ा रास्ता बन गया। लोगों को लगा कि अवैध रूप से घुसने पर भी माफी तो मिल ही जाएगी।

इसी सोच से ‘सैंक्च्यूरी शहर’ की अवधारणा का जन्म हुआ। इन्हें हम आसान भाषा में शरणार्थी शहर के तौर पर समझ सकते हैं। यहाँ की सरकारें अवैध प्रवासियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों को ही काम नहीं करने देती हैं।

सांस्कृतिक मार्क्सवाद से कैसे बिखरा अमेरिका?

इसका एक और सिरा सांस्कृतिक मार्क्सवाद से जुड़ता है। 1930 के दशक में हिटलर ने जर्मनी से कुछ वामपंथी प्रोफेसरों को निष्कासित कर दिया। ये प्रोफेसर अमेरिका के कोलंबिया यूनिवर्सिटी में आकर बस गए। इनका मकसद समाज में लगातार संघर्ष बनाए रखने का था।

यह संघर्ष अमीर बनाम गरीब से आकर बढ़कर श्वेत बनाम अश्वेत, पुरुष बनाम महिला, नागरिक बनाम अप्रवासी तक पहुँच गया था। आगे चलकर नए-नए जेंडर्स का ईजाद किया गया। इस आंदोलन को सांस्कृतिक मार्क्सवाद का नाम दिया गया, यह आंदोलन क्रांति की शक्ल में समाज को तोड़ रहा है।

60 का दशक आते-आते यह साजिश अमेरिका में अपना असली रंग दिखाने लगी। यह हिप्पी आंदोलन, स्टूडेंट प्रोटेस्ट और एंटी एस्टब्लिशमेन्ट प्रोटेस्ट का दौर था। इसके पीछे भी सांस्कृतिक मार्क्सवाद की ही साजिश थी। जर्मनी से बाहर निकाले गए प्रोफेसर अमेरिका में बैठकर ‘वैचारिक युद्ध’ लड़ रहे थे और इसका हथियार शिक्षा को बनाया गया था। इन प्रोफेसरों के छात्र टीचर्स के ट्रेनिंग सेंटर्स में घुसे और उनका लक्ष्य शिक्षकों का ब्रेन वॉश करना ही था।

21वीं सदी के पहले दशक में बिल एयर्स और बर्नाडिन डोहर्न ने इस वैचारिक बम को अमेरिकी सिस्टम में पूरी तरह फिट कर दिया था। बिल एयर्स कहता था कि ‘अमीरों को मार दो, उनकी कारें फूंक दो, क्रांति को घर ले आओ। और हाँ, अपने माता-पिता को भी मार दो’। बर्नाडिन डोहर्न को एफबीआई ने अमेरिका का सबसे खतरनाक महिला बताया था। ये दोनों ओबामा दंपति (बराक और मिशेल ओबामा) के बेहद करीबी थी।

ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका की सोच बदलने लगी। कानून तोड़ने वाले को ‘व्यवस्था का शिकार’ और पुलिस को ‘फासीवादी’ बताया जाने लगा। कैलिफोर्निया जैसे राज्यों में पुलिस का बजट काटा गया। साथ ही, जो लोग अव्यवस्था कर रहे थे, दुकानों को लूट रहे थे उन्हें ‘फ्रस्ट्रेटेड यूथ’ कहा गया। यह वैसा ही है जैसे भारत में पत्थरबाजी करने वाले मुस्लिम युवाओं को भटके हुए नौजवान कहा जाता है। ऐसे दंगइयों को प्रदर्शनों को ‘पीसफुल प्रोटेस्ट’ कहा गया। कमल हैरिस जैसी बड़े अमेरिकी नेता ने भी इन्हें समर्थन दिया था।

इन दिनों अमेरिका में आव्रजन और सीमा शुल्क प्रवर्तन (Immigration and Customs Enforcement- ICE) और ‘सैंक्च्यूरी शहर’ का मामला गर्म है। यह एजेंसी अवैध अप्रवासियों को पकड़कर, डिटेन कर उन्हें डिपोर्ट करती है। हालाँकि कैलिफोर्निया जैसी ‘सैंक्च्यूरी शहरों’ में एजेंसी को काम नहीं करने दिया जा रहा है।

‘सैंक्च्यूरी शहरों’ को आप ऐसे ही समझ सकते हैं जैसे कोई पार्क या जंगल, जहाँ हर तरह के पक्षी-पशु आकर बस जाते हैं। कोई शिकारी या सुरक्षा गार्ड उन्हें रोकने नहीं आता। बल्कि वहाँ के स्थानीय रेंजर (यानी लोकल सरकार) खुद ही कहती है, “हम इन्हें नहीं निकालेंगे, ये यहीं रहेंगे।”

इसका नतीजा ये होता है, कि आज अमेरिका में लाखों ऐसे लोग रह रहे हैं, जिनके पास कोई वैध दस्तावेज़ नहीं है, और इनमें से बड़ी संख्या को डेमोक्रेटिक पार्टी वोट बैंक की तरह देखती है। जब इन लोगों को निकालने की बात आती है तो स्थानीय सरकार इन्हें ‘व्यवस्था का शिकार’ बता देती है।

आज अमेरिका में लाखों अवैध अप्रवासी नागरिक बन चुके हैं। ये लोग डेमोक्रेटिक पार्टी का मजबूत वोट बैंक हैं। साल 2020 में LA काउंटी में बाइडन को 71% वोट और ट्रंप को सिर्फ 27% मिले। साल 2024 में ट्रंप ने बढ़त ली और 31.9% तक आये लेकिन यहाँ पर डेमोक्रेट्स का पलड़ा अब भी भारी हैं।

क्योंकि वोटिंग पावर अब ‘संख्याबल’ से आती है, नीतियों से नहीं। लाखों अवैध अप्रवासी जिन्हें ओबामा और उनके पहले के या बाद के डेमोक्रेट सरकारों ने नागरिकता दी थी, आज वही डेमोक्रेट्स की एक मजबूत वोट बैंक हैं।

भारत के सामने कितनी बड़ी समस्या हैं अवैध अप्रवासी?

इसे आप भारत के उन हिस्सों से मिलकर देखिए, जहाँ मुस्लिम आबादी आज बहुसंख्यक है और कौन जीतेगा और कौन हारेगा, ये उनके वोट पर निर्भर करता है और इसका उदाहरण है- उत्तराखंड का बनभुलपुरा, दिल्ली की सीलमपुर, पश्चिम बंगाल की सीमाएँ।

सब जगह एक ही पैटर्न है, एक ही चीज कॉमन है और वो है अवैध प्रवासियों की समस्या। अब भारत की स्थिति देखिए। हम दुनिया और एशिया महाद्वीप की भी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं।

हमारे चारों तरफ बसे देश पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार या तो आर्थिक रूप से कमजोर हैं या राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। इसका मतलब साफ है कि प्रवासन का अगला टारगेट भारत है। यूएन का अनुमान है कि 2060 तक भारत की जनसंख्या 166 करोड़ हो सकती है।

अब पाकिस्तान की जनसंख्या वर्तमान में लगभग 24 करोड़ है और अनुमान है कि साल 2075 तक 46 करोड़ से अधिक हो जाएगी। लेकिन वहां रोजगार, शिक्षा, और संसाधनों की भारी कमी है। इतनी आबादी लेकिन पाकिस्तान के पास न पैसे हैं, न नीति है, न रोजगार है। ऐसे में क्या होगा? ये लोग सोचेंगे कि ठिकाना बदलते हैं और सबसे नजदीकी और सुरक्षित देश कौन सा है? सिर्फ और सिर्फ भारत।

प्रोग्रेसिव वामपंथियों की वो थ्योरी आप जानते होंगे जिनमें वो समय समय पर अपनी सुविधा के अनुसार कहते हैं कि दुनिया की कोई बाउंड्री नहीं होती हैं। और इन्हें ये अधिकार है कि ये किसी भी देश में घुसें और उनके संसाधनों का दोहन करें।

अब सोचिए कि ये लोग दूसरे पड़ोसी देशों को छोड़कर भारत क्यों आएँगे? यहाँ इन्वेस्टमेंट है, शिक्षा की व्यवस्था है, रोजगार है सेफ्टी है और सबसे जरूरी बात विविधता के लिए स्पेस है।

इंटरनेशनल प्रोपेगेंडा कोई भी हैशटैग चलाए कि भारत में लोग सुरक्षित नहीं हैं लेकिन सच्चाई ये है कि भारत दुनिया का शायद सबसे टॉलरेंट देश है। हर धर्म, हर जाति, हर मानसिकता, भारत सबको जगह देता है। वरना चीन भी एशिया में ही आता है और आप खुद सोचिये कि वहां पर जरा सी भी आवाज बुलंद करने वालों के साथ क्या होता है।

अब आप कहेंगे, प्रवासी आ भी गए तो दिक्कत क्या है? दिक्कत तब शुरू होती है जब इनका रिकॉर्ड नहीं होता और ये घुसपैठ करके अपने गुट बनाते हैं। फिर एक वक्त ऐसा आता है जब प्रशासन भी कुछ नहीं कर पाता यानी ठीक वैसा ही जैसा सांस्कृतिक मार्क्सवाद का पैटर्न था।

साल 1960 के दशक में सांस्कृतिक मार्क्सवाद के विचारों से प्रभावित छात्रों ने अमेरिका और फ्रांस में छात्रों का बड़ा आंदोलन खड़ा किया। बाद में उन्होंने यूनिवर्सिटीज, स्कूलों और मीडिया में घुसपैठ की। और उनके टारगेट पर शिक्षक थे। उनका लक्ष्य था कि ‘अगर शिक्षक बदल गया, तो पूरी पीढ़ी बदल जाएगी’।

यही मॉडल आज भारत में दोहराया जा रहा है। जहाँ शिक्षा, मीडिया और न्याय के मंचों पर एक ही नैरेटिव फैलाया जा रहा है कि ‘कानून तोड़ने वाला पीड़ित है, और कानून लागू करने वाला फासीवादी’। CAA विरोधी दंगों में यही नैरेटिव चला।

हर्ष मंदर ने कहा था, “अब न्याय सड़कों पर मिलेगा।” और सचमुच, दिल्ली की सड़कों पर आग लगी। अमेरिका के लॉस एंजेल्स से इन घटनाओं को आप जोड़ सकते हैं।

अब बड़ा सवाल है कि क्या भारत के पास ICE जैसी कोई एजेंसी है? और इसका जवाब है- नहीं। भारत में अवैध प्रवासियों की निगरानी के लिए कोई सेंट्रलाइज्ड एजेंसी नहीं है। NIA और CBI जैसे संस्थान राज्यों की अनुमति से काम करते हैं, जिनमें बंगाल जैसे राज्य तो उन्हें घुसने भी नहीं देते। अगर कल कोई दंगा हुआ या किसी शहर में आतंकी हमले की साजिश पकड़ी गई, तो कौन जिम्मेदार होगा?

ऑपरेशन सिंदूर के बाद से देश के अलग अलग हिस्सों में पाकिस्तानी जासूस निकल रहे हैं। ठाणे के पडघा में अगर पुलिस साकिब नाचन के ठिकानों पर छापा न मारती तो पता ना चलता कि 2.5 फ्रंट कबसे बारूद और हथियार बना रहा था और मुंबई हमलों को दोहराने की तैयारी में लगा था। सरकार लंबे समय से राज्यों की पुलिस से बोलती जा रही थी कि रोहिंग्या निकालो लेकिन किसी ने काम नहीं किया। दो चार दिन ड्राइव चलती है, फिर सब सो जाते हैं।

अगर लॉस एंजेलिस को आज इस तरह से जलाया जा रहा है तो कल के दिन इनके लिए भारत के अलग अलग शहरों को इसी तरह से जला देना कौनसी बड़ी बात है? और भारत में मोहब्बत का केरोसिन बाँटने वालों ने इसे कई बार कई बहानों से जलाया भी है। दिल्ली के हिंदू विरोधी दंगे इसका उदाहरण हैं और वो दंगे नागरिकता के नाम पर बन रहे कानून के लिए भड़काए गए थे।

इसलिए एक नई राष्ट्रीय एजेंसी की जरूरत है जो Bureau of Immigration ( BoI) के साथ कोऑर्डिनेट करे। डिटेंशन से लेकर डिपोर्टेशन तक पूरा प्रोसेस मैनेज करे और ये संस्था राज्यों की राजनीतिक सीमाओं से ऊपर हो

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने विश्व शरणार्थी दिवस से पहले ही एक बयान में कह दिया है कि भारतीय सरकार को तुरंत सभी रोहिंग्या पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की देश से निकाले जाने की प्रक्रिया (निर्वासन) को रोक देना चाहिए, उन्हें शरणार्थी के रूप में मान्यता देनी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत उन्हें सम्मान और सुरक्षा देनी चाहिए।

आज अगर हम इस खतरे को नहीं पहचानेंगे तो कल भारत के शहर भी वही हालत भुगतेंगे जो आज लॉस एंजेलेस भुगत रहा है। जब आज हम हाईवे बना रहे हैं, तो लोग परेशान होते हैं। सड़कें बंद होती हैं, ट्रैफिक रुकता है, धूल उड़ती है। लेकिन ये दिक्कतें क्यों हो रही हैं? क्योंकि 30 साल पहले किसी के पास विज़न ही नहीं था कि ये बनाना चाहिए।

अगर तब सोच लिया होता, तो आज समस्या इतनी बड़ी न होती। वैसे ही अगर आज अवैध प्रवासन को लेकर एक संस्थागत विजन नहीं बना तो कल ये समस्या बेकाबू हो जाएगी।

हाल ही में सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादियों ने कावेरी इंजन का टॉपिक उठाया था। अब खुद गृहमंत्री और रक्षा मंत्री ने इस पर विचार करने की बात कहीं है। अब एक ऐसी नई मुहिम की जरूरत है उसका नाम IllegalFreeIndia होना चाहिए। जब कोई ये कहे कि ये सब ‘अमानवीय’ है, तो याद रखिए कि कानून का पालन ही मानवता है और अव्यवस्था से ज्यादा अमानवीय चीज कुछ नहीं हो सकती।

एक केंद्रीय जिम्मेदार संस्था का होना क्यों आवश्यक है उसकी वजह ये हैं कि क्योंकि हर बार जब भी अवैध प्रवासियों को पकड़ने या चिह्नित करने की बारी आती है तो संस्थाओं की आपसी फुटबॉल शुरू हो जाती है।

गृह मंत्रालय किसी स्टेट से कि कहता है कि उन्हें अवैध प्रवासियों की डिटेल्स भेजे, तो सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगेंगे, टाल मटोल करते हुए पुलिस वाले थोड़ी बहुत कार्रवाई करेंगे और कुछ दिन बाद चुप हो जाएँगे, दूसरी संस्थाएं कहेंगी कि ये तो उनका काम ही नहीं है और ऐसे में ये सब ठंडे बस्ते में चला जाएगा क्योंकि सभी की जिम्मेदारी मतलब किसी की भी जिम्मेदारी नहीं।

जरूरी है कि केंद्र सरकार एक ऐसी ठोस संवैधानिक बॉडी तैयार करे, जिसका सिर्फ यही काम हो कि अवैध प्रवासियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर का रास्ता दिखाना है। क्यूँकि भारत सिर्फ भारतीयों का है और भारतीयों के लिए है, अवैध घुसपैठियों के लिए नहीं।

Source link

Exit mobile version