अयोध्या में 14 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद लोग अपने आराध्य प्रभु राम का इंतजार कर रहे थे। हर गली, हर द्वार, हर हृदय में बस ‘राम’ के नाम की गूँज थी। नंदिग्राम में भरत तपस्वी वेश धारण किए दिन गिन रहे थे। महर्षि वाल्मिकी ने रामायण और तुलसीदास ने रामचरितमानस में उन क्षणों का वर्णन किया है जब लोग प्रभु राम के स्वागत का इंतजार कर रहे थे।
वाल्मिकी रामायण में श्रीराम की वापसी की वर्णन
रावण का वध करने और माँ सीता को उसकी कैद से छुड़ाने के बाद प्रभु श्री राम पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे थे। वाल्मिकी रामायण के युद्धकांड में श्रीराम की वापसी और अयोध्यावासियों की तैयारियों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
कहा जाता है कि श्रीराम ने अयोध्या में आगमन से पहले हनुमान जी को साधु का वेश बनाकर भरत को आगमन की सूचना देने को कहा था। श्रीराम के वनवास के बाद भरत उनकी चरण पादुकाएँ सिहांसन पर रखकर अयोध्या का राजकाज संभाल रखे थे। हनुमान ने उन्हें श्रीराम के आगमन का समाचार दिया तो वह प्रफुल्लित हो गए और पूरा नगर उनके स्वागत की तैयारियों में लग गया।
युद्ध कांड के 127वे सर्ग में महर्षि वाल्मिकी लिखते हैं-
श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतः सत्यविक्रमः।
हृष्टमाज्ञापयामास शत्रुघ्नं परवीरहा।। ६-१२७-१
अर्थात् हनुमान जी से अत्यंत प्रसन्नता का समाचार सुनकर, वास्तव में वीर शासक और शत्रुओं का संहार करने वाले भरत ने शत्रुघ्न को आज्ञा दी, जो भी इस समाचार से प्रसन्न हुए।
इसके साथ ही, सदाचार वाले लोग से कुल-देवताओं और नगर के मंदिरों की पूजा मीठी-सुगंधित फूलों से करने और वाद्य-यंत्रों की मधुर ध्वनि के साथ उनका सम्मान करने का आदेश दिया गया। साथ ही, सभी गायकों, वाद्य-यंत्र बजाने वाले कलाकार, नर्तकियों, मंत्री, सैनिकों आदि को श्रीराम के चंद्रमा जैसे मुख-मंडल का दर्शन करने के लिए आने को कहा गया था।
वाल्मिकी रामायण में रामागमन की तैयारियाँ
महर्षि वाल्मिकी लिखते हैं कि भरत के वचन सुनकर, शत्रुओं का संहार करने वाले वीर शत्रुघ्न ने तुरंत हजारों श्रमिकों को बुलाया और उन्हें अलग-अलग टोलियों में बाँटकर आदेश दिया कि सड़कों के सभी गड्ढों को भरकर रास्ते समतल कर दो। जहाँ जमीन ऊबड़-खाबड़ है, उसे भी बराबर कर दो। नंदीग्राम से अयोध्या तक का मार्ग पूरी तरह साफ कर दो और उस पर शीतल जल का छिड़काव करो।
इसके बाद, अन्य लोग रास्ते के दोनों ओर लावा और पुष्प बिखेर दें। अयोध्या की सुंदर सड़कों के किनारों पर ऊँची पताकाएँ फहराई जाएँ। कल सूर्योदय तक नगर के सभी भवनों को सुनहरी फूल-मालाओं, घने पुष्प-गुच्छों, सूत के बंधन से मुक्त कमल-फूलों और पंचरंगी अलंकारों से सजा दिया जाए।
कुछ योद्धा सजे-धजे मदमस्त हाथियों पर ध्वज लहराते हुए सवार हुए। कुछ स्वर्ण जंजीरों से सुसज्जित हथिनियों पर चढ़े। श्रेष्ठ रथी अपने तेज़ रथों में निकले। हजारों घोड़ों पर सवार वीर सैनिक भाले, भाले और फंदे लिए ध्वजाओं के साथ आगे बढ़े। राजा दशरथ की सभी रानियाँ कौशल्या और सुमित्रा को आगे रखते हुए अपने रथों में बैठकर नंदीग्राम की ओर चलीं। भरत ने अपने भाई श्रीराम की खड़ाऊँ सिर पर रखीं अपने भाई से मिलने के लिए मंत्रियों के साथ पहुँचे।

भरत ने श्रद्धा से झुककर उस पुष्पक विमान के सामने खड़े भगवान श्रीराम को प्रणाम किया, जो मेरु पर्वत पर चमकते सूर्य समान तेजस्वी दिख रहे थे। श्रीराम की आज्ञा से हंसयुक्त वह तेज पुष्पक विमान भूमि पर उतरा।
राम अपने आसन से उठे और वर्षों बाद मिले भरत को गले लगाकर गोद में बिठा लिया। हाथ जोड़कर भरत ने कहा, “प्रभु, यह सम्पूर्ण राज्य-सम्प्रभुता, जो आपके भरोसे मेरे पास थी, अब मैं आपको लौटा रहा हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया, क्योंकि आज मैं अयोध्या के सच्चे राजा श्रीराम को पुनः अपने राज्य में देख रहा हूँ। आपका खजाना, अन्न-भंडार, महल और सेना, सब कुछ मैंने पहले से दस गुना बढ़ा दिया है।”
रामचरितमानस में रामागमन की तैयारियाँ
महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में प्रभु राम के अयोध्या लौटने का वर्णन किया है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥
अर्थात् (श्रीरामजी के लौटने की) अवधि का एक ही दिन बाकी रह गया, नगर के लोग बहुत अधीर हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं।
इसके बाद गोस्वामी जी ने हनुमान जी के भरत के साथ मुलाकात करने का वर्णन किया है जिसके बाद भरत, अयोध्या पहुँच गए थे। इसके बाद उन्होंने राजमहल जाकर यह खबर सुनाई। सभी नगरवासी भी यह सुनकर हर्ष से भर गए। गोस्वामी तुलसीदास ने जी ने लिखा-
दधि दुर्बा रोचन फल फूला । नव तुलसी दल मंगल मूला ॥
भरि भरि हेम थार भामिनी । गावत चलिं सिंधुरगामिनी ॥
अर्थात् (श्रीराम जी के स्वागत के लिए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मङ्गल के मूल नवीन तुलसी दल आदि वस्तुएँ सोने के थालों में भर-भरकर हथिनी की-सी चालवाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ गाती हुई चलीं।

प्रभु राम आकाश मार्ग से अयोध्या के दर्शन करते हैं और सुग्रीव, अंगद और लंकापति विभीषण से कहा-
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा ॥
अर्थात् यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में (जीवों को) पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि जब प्रभु राम अपने महल को जाने के लिए आग बढ़े तो आकाश फूलो की वर्षा से भर गया। नगर के स्त्री और पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे थे। उन्होंने लिखा है, “सोनेके कलशों को विचित्र रीति से (मणि-रत्ना से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगोंने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगोंने मङ्गलके लिये बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाई थीं। सारी गलियाँ सुगन्धित द्रवों से सिंचायी गयीं। अनेकों प्रकार के सुन्दर मंगल-साज सजाये गए और हर्ष पूर्वक नगर में बहुत-से डंके बजने लगे।”
गोस्वामी जी लिखते हैं, “स्त्रियाँ कुमुदिनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्री रघुनाथ जी का विरह सूर्य है। इस विरह-सूर्यके तापसे वे मुरझा गयी थीं। अब उस विरहरूपी सूर्यके अस्त होने पर श्रीराम रूपी पूर्ण चन्द्र को निरखकर वे खिल उठीं। अनेक प्रकारके शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगरके पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ करके भगवान् श्रीरामचन्द्र जी महल को चले।
हालाँकि, इस दोनों पुस्तकों में दीपावली या दिवाली शब्द का सीधा उल्लेख नहीं है लेकिन परंपरा की शुरुआत यहीं से माना जाती है। हजारों वर्ष की भारतीय परंपरा में कई स्कंद पुराण और पद्म पुराण जैसे ग्रंथों में इसका जिक्र आता है।
भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन केवल एक राजा की वापसी नहीं बल्कि सत्य, धर्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना का प्रतीक है। चौदह वर्ष के वनवास और अन्याय पर विजय के बाद जब श्रीराम लौटे, तो अयोध्या में केवल दीप नहीं जले, बल्कि आशा और नैतिकता की ज्योति प्रज्वलित हुई।
यह वह क्षण था जब एक आदर्श पुत्र, पति, राजा और मानव के रूप में राम ने दिखाया कि त्याग, संयम और कर्तव्यपालन ही सच्चे नेतृत्व की पहचान हैं। उनका आगमन इस बात का संदेश देता है कि अधर्म कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो अंततः धर्म की ही विजय होती है।