ये कहानी है मेरे नाना-नानी की, जिनकी पुश्तैनी हवेली बंटवारे के वक्त बांग्लादेश में रह गई और उन्हें शरणार्थी शिविर में शरण लेना पड़ा। पूरा जीवन संघर्ष करने के बावजूद वे लोग न तो घर बना पाए और न ही जमीन का टुकड़ा खरीद पाए।
मेरे नाना जी यानी नरेश रंजन गुप्ता रॉय विभाजन के वक्त बांग्लादेश के सिलहट डिवीजन के सुनामगंज में शिक्षक थे। उनकी पुश्तैनी हवेली ‘रॉय भिट्टा बारी’ में वह अपने परिवार के साथ रहते थे। उनकी हवेली के प्रांगण में हर साल दुर्गा पूजा का आयोजन होता था और आसपास के इलाकों से हिन्दू श्रद्धालु आते थे।
कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी और अपने गृहनगर में जीवन बिताने की इच्छा उनकी रही। 1946 में उन्होंने मेरी नानी यानी उषा गुप्ता से शादी की।
उस वक्त तक मजहबी आधार पर पाकिस्तान बनाने की माँग मुस्लिम लीग ने तेज कर दी थी। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पार्टी ने कलकत्ता और नोआखली में हिन्दुओं का नरसंहार करवाया। इस दौरान पूर्वी बंगाल के हिन्दू इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में काफी परेशान थे।
जुलाई 1947 में सिलहट के अन्य क्षेत्रों की तरह सुनामगंज में भी जनमत संग्रह हुआ और अधिकांश लोगों ने पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया ।

उस इलाके के हिन्दुओं को मुस्लिम भीड़ से बचने के लिए घर- बार छोड़ना पड़ा। मेरे नाना-नानी भी उनमें से एक थे। किसी तरह अपनी जान बचाकर और पुश्तैनी घर-बार छोड़कर ये लोग वहाँ से भागे। इस दौरान मेरी नानी अपने साथ महज कुछ सोने के गहने और साड़ी साथ ले आई थीं। इनलोगों ने शरणार्थी शिविर में आश्रय लिया। रातों रात इनकी जिंदगी बदल चुकी थी।
मुस्लिम लीग की भड़काई आग में अंग्रेजों द्वारा किए गए ‘भारत विभाजन’ को कॉन्ग्रेस का साथ मिला। इसने मेरे नाना-नानी समेत लाखों लोगों का सब कुछ छीन लिया।

कुछ महीनों बाद नाना नरेश रंजन गुप्ता रॉय असम में शिक्षक बने , फिर तीन महीने बाद त्रिपुरा जाकर शिक्षक के रूप में काम करने लगे। पूरा जीवन संघर्ष करने के बाद भी वो न तो जमीन का एक टुकड़ा खरीद पाए और न ही अपना घर बना सके। रॉय दंपति की तीन बेटियाँ बड़ी हो रही थीं। उनकी जिम्मेदारी, पढ़ाई-लिखाई भी काफी अहम था।
असम और त्रिपुरा में उस वक्त की जातीय हिंसा और भ्रष्टाचार की वजह से समय पर उन्हें वेतन भी नहीं मिलता था। इसलिए पूरा जीवन गरीबी में बीता।
नरेश रॉय ने हार नहीं मानी। उनका मानना था कि शिक्षा की वह माध्यम है जिसके दम पर अपने पैरों पर खड़ा हुआ जा सकता है। पुश्तैनी संपत्ति तो नहीं मिल सकती लेकिन आगे जीवन आसान बनाया जा सकता है। ये सही बात थीं
आज उनके नाती-नातिन के पास घर है। वे आगे बढ़ गए हैं। नरेश गुप्ता रॉय 1975 में सेवानिवृत हुए और 28 जून 1981 में उनका निधन हुआ। उनसे पढ़ने वाले छात्र आज काफी आगे बढ़ गए हैं। वे रॉय सर के पुस्तक प्रेम को याद करते हैं। मेरी माँ के मुताबिक हर दिन कम से कम दो घंटे वो पढ़ते थे। अपने निधन से एक सप्ताह पहले तक उन्होंने दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं किया। उनके सिखाए रास्ते पर चल कर ही परिवार की किस्मत बदली
भारत विभाजन खूनों से सना ऐसा दर्द है जिसने लाखों परिवारों को कभी न भूलने वाला दर्द दिया। इसमें लाखों लोग मारे गए और करीब 2 करोड़ लोग स्थायी तौर पर विस्थापित हो गए।
14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ ऐसे ही लोगों को याद करने का दिन है जिनका सब कुछ विभाजन की आग में जल गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने लिए एक नया रास्ता तलाशा।
नोट: इस दर्दनाक कहानी को आप मूल रूप से यहाँ पढ़ सकते हैं।