एक समय ऐसा भी था जब उन्हें जबरन दूसरे देशों में मजदूरी के लिए ले जाया जाता था। धीरे-धीरे गुलाम जैसी जिंदगी से आगे बढ़े और जहाँ बसे वहाँ की पहचान बन गए। पराधीनता, दर्द और पीड़ा से मुक्त होकर अपना नाम कमाया।
पीएम मोदी ने भारतीय समुदाय की प्रशंसा की
वेनेजुएला के पास एक छोटे सा द्वीप है जिसे त्रिनिदाद और टोबैगो के नाम से जाना जाता है। इसका इतिहास भारत से जुड़ा हुआ है क्योंकि भारतीय यहाँ भी ले जाकर बसाए गए थे।
5 देशों के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब त्रिनिदाद और टोबैगो पहुँचे तो उसका जमकर स्वागत किया गया। कोवा में नेशनल साइक्लिंग वेलोड्रोम में एक कार्यक्रम में पीएम मोदी ने कहा, “मैं जानता हूँ कि त्रिनिदाद और टोबैगो में भारतीय समुदाय की मौजूदगी उनके साहस और कार्यकुशलता के बारे में बताता है,”

भगवान राम के जयकारे सुनकर पीएम मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने कहा, “मैं भी इसी तरह की भक्ति भावना के साथ कुछ लेकर आया हूँ। अयोध्या में स्थित राम मंदिर की प्रतिकृति और सरयू नदी का कुछ जल”
पीएम ने कहा, “हम अपने प्रवासी समुदाय की ताकत और समर्थन को बहुत महत्व देते हैं। दुनिया भर में फैले 35 मिलियन से अधिक लोगों के साथ, भारतीय प्रवासी हमारा गौरव हैं। जैसा कि मैंने अक्सर कहा है, आप में से प्रत्येक एक राष्ट्रदूत है, भारत के मूल्यों, संस्कृति और विरासत का एक राजदूत है।” उन्होंने वैश्विक स्तर पर भारतीय समुदाय के योगदान की चर्चा की
19वीं शताब्दी से है रिश्ता हमारा
19वीं शताब्दी में भारत के लोगों को मजदूरी करने के लिए अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में भेजा। कम मजदूरी और दयनीय हालत के बावजूद भारतीय मजदूर बड़ी संख्या में अनुबंध समाप्त होने के बाद वहीं रह गए।
इसकी शुरुआत 1834 में मॉरीशस से हुई। 87 साल की औपनिवेशिक अनुबंध के तहत 1.5 मिलियन से ज्यादा भारतीय दूसरे देशों में बंधुआ मजदूरों के रूप में लाए गए। अनुबंध समाप्त होने के बाद इनमें से कई अप्रवासियों ने विदेशी धरती पर ही रहने का फैसला किया। इन लोगों ने समृद्ध बस्तियाँ बनाईं और अपनी परंपराओं को आगे बढ़ाया।
पीएम मोदी ने इसको याद करते हुए कहा, “आपके पूर्वजों ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, वो मजबूत इरादे वाले लोगों को भी तोड़ सकती थी। लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और समस्याओं का डटकर सामना किया। पूर्वजों ने गंगा और यमुना को पीछे छोड़ दिया, लेकिन अपने दिलों में रामायण को बसाए रखा। उन्होंने अपनी मिट्टी छोड़ी, लेकिन अपनी आत्मा नहीं।”
Splendid atmosphere at the community programme in Trinidad & Tobago. https://t.co/qlW5JqaCCl
— Narendra Modi (@narendramodi) July 3, 2025
प्रधानमंत्री मोदी ने प्रवासियों को “एक शाश्वत सभ्यता के संदेशवाहक” के रूप में भी याद किया। प्रवासियों के योगदान से देश को सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक फायदा हुआ। इस खूबसूरत देश पर आप का प्रभाव दिख रहा है।”
उल्लेखनीय है कि त्रिनिदाद और टोबैको की पहली महिला और वर्तमान प्रधानमंत्री कमला सुशीला प्रसाद-बिसेसर एक हिंदू हैं। उनकी विरासत दक्षिण भारत और उत्तर भारत दोनों से मिलती है। उनके पूर्वज भारतीय अनुबंध प्रणाली के तहत त्रिनिदाद और टोबैको आए और यहीं बस गए।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “भारत में लोग प्रधानमंत्री कमला को बिहार की बेटी मानते हैं। उनकी तरह यहाँ भी ऐसे कई लोग हैं जिनकी जड़ें बिहार में हैं। बिहार की विरासत हम सभी के लिए गर्व की बात है।” दुनिया के महान प्रवासी भारतीयों की शानदार उपलब्धियों की चर्चा करते हुए उन्होंने कई प्रतिष्ठित हस्तियों का नाम भी लिया।
पीएम ने कहा, “आप, गिरमिटिया (ब्रिटिश भारत से आए गिरमिटिया मजदूर) के बच्चे हैं लेकिन अब उन संघर्ष से आगे अपनी सफलताओं के लिए जाने जाते हैं।” कैरेबियाई राष्ट्र के क्रिकेट के प्रति दीवानगी की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “25 साल पहले जब मैं यहाँ आया था, तो हम सभी ब्रायन लारा के कवर ड्राइव और पुल शॉट से मंत्रमुग्ध हो गए थे। फिलहाल सुनील नरेन और निकोलस पूरन हमारे युवाओं के दिलों में बसते हैं। पिछले कुछ सालों में हमारी दोस्ती और गहरी हुई है।”
दोनों देशों के बीच गहरे और ऐतिहासिक संबंधों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “बनारस, पटना, कोलकाता, दिल्ली भारत के शहर हो सकते हैं, लेकिन वे यहाँ की सड़कों के नाम भी हैं। नवरात्रि, महाशिवरात्रि, जन्माष्टमी यहाँ दोगुने उत्साह और गर्व के साथ मनाई जाती है।”
उन्होंने भगवान राम का भी जिक्र किया और भारतीय समुदाय की भगवान राम में गहरी आस्था के बारे में बताया। उन्होंने कहा, “मुझे यकीन है कि आप सभी ने 500 साल बाद अयोध्या में राम लला की वापसी का बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया होगा। हमें याद है कि आपने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पवित्र जल और शिलाएं भेजी थीं।”
यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) ने 1998 में दास व्यापार और उन्मूलन को याद करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस की स्थापना की ।
कौन हैं गिरमिटिया?
1833 में ब्रिटिश साम्राज्य, 1848 में फ्रांसीसी उपनिवेशों और 1863 में डच साम्राज्य में दास प्रथा का अंत हो गया। ब्रिटेन में भारतीयों की गिरमिटिया दासता 1920 के दशक तक जारी रही। इससे इंडो-साउथ अफ़्रीकी, इंडो-कैरिबियन, इंडो-मॉरीशस और इंडो-फिजियन समुदायों का विकास हुआ।
दरअसल दास प्रथा खत्म होने के बाद काम करवाने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य को मजदूरों की जरूरत पड़ी। तब भारत से 5 साल के अनुबंध पर इन मजदूरों को 1834 के दशक में अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप भेजा गया। 5 साल बीत जाने के बाद आने के पैसे नहीं थे इसलिए ज्यादातर लोग यहाँ बस गए और इन्हें गिरमिटिया कहा गया।
भारत से बाहर भेजे गए मजदूरों के लिए गिरमिटिया शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अंग्रेजों ने ही किया। जब मजदूरों को अनुबंध के तहत भेजा जाता था तो उसे गिरमिटिया कहा जाता था। गिरमिटिया की पूरी कहानी ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जुड़ी हुई है। दरअसल ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित करने और उसे मजबूत बनाने के लिए सस्ते और मेहनतकश लोगों की जरूरत थी। उस वक्त ब्रिटिश शासन ने भारतीय किसानों पर भारी टैक्स लगा दिया था और कर्ज के चंगुल में किसान लगातार फँसते जा रहे थे। ऐसे में गिरमिटिया बनकर बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन किया।
त्रिनिदाद और टोबैगो में भारतीय प्रवासियों का संक्षिप्त इतिहास
1498 में क्रिस्टोफर कोलंबस के त्रिनिदाद और टोबैगो के समुद्र तट पर कदम रखा। इससे पहले इस द्वीप को कोई नहीं जानता था। बाद में जब इस द्वीप का दुनिया से सामना हुआ तो यहाँ के लोगों को दास के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया गया।
स्पेनिश साम्राज्य में 1796 तक त्रिनिदाद शामिल था।
1802 में इस क्षेत्र को ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया गया और ये द्वीप ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया। अंग्रेजी निवेशक त्रिनिदाद के चीनी क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहते थे। अंग्रेजी कंपनियों को इससे जबरदस्त फायदा हो रहा था। द्वीप के चीनी और कोको बागानों में काम करने के लिए अफ्रीकी देशों से मजदूरों को दास के रूप में लाया गया था।
1838 में ब्रिटिश संसद के दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इसका असर त्रिनिदाद पर पड़ा। यहाँ की कृषि अर्थव्यवस्था तब ढहने के कगार पर पहुँच गई थी। यहाँ अफ्रीकी लोगों ने खेतों, बागानों में काम करने से इनकार कर दिया।
चीनी और चॉकलेट उद्योगों ने खुद को पूरी तरह से ढहने से बचाने के लिए नए मजदूरों को लाना शुरू किया। इस वक्त चीनी, पुर्तगाली, अफ्रीकी-अमेरिकी और सबसे ज्यादा भारतीय मजदूरों को यहाँ लाया गया। भारतीय सबसे मेहनती और तैयार मजदूर माने जाते थे और कथित तौर पर इन्हें ‘मूल्यवान स्थिर मजदूर’ कहा जाता था।
इसलिए भारतीय मजदूरों की माँग यहाँ ज्यादा थी और किसी भी अन्य राष्ट्र से अधिक संख्या में इन्हें काम पर रखा गया था। 1891 तक इन द्वीपों में 45,800 से अधिक भारतीय रह रहे थे। 1917 में ब्रिटिश सरकार ने गिरमिटिया व्यवस्था को खत्म कर दिया।
सच में, दास व्यापार का उन्मूलन केवल एक दिखावा था, क्योंकि उपनिवेशों में गिरमिटिया व्यवस्था उससे कम अमानवीय नहीं था। भारतीयों को केवल ब्रिटिश हितों के लिए हिंद महासागर और अटलांटिक महासागर को पार करके हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए मजबूर किया गया।
भारतीय मजदूरों की जिंदगी
217 भारतीय मजदूरों को लेकर पहला जहाज 1845 में त्रिनिदाद के पोर्ट-ऑफ-स्पेन पहुँचा। त्रिनिदाद में अधिकांश भारतीय कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) के बंदरगाहों से आए थे। इनमें ज्यादातर बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के लोग शामिल थे। इसके बाद 1845 और 1917 के बीच जहाजों में भरकर हजारों भारतीयों को कैरीबियाई देशों में ले जाया गया।
यात्रा के दौरान मुश्किलों के बाद जब ये लोग वहाँ पहुँचे तो परिस्थितियाँ काफी मुश्किलभरी थी। भारतीयों को दुर्व्यवहार, घटिया भोजन और मौसम की मार का सामना करना पड़ा।
प्रसिद्ध बारबेडियन उपन्यासकार जॉर्ज लैमिंग ने कहा, “त्रिनिदाद और गुयाना का ऐसा कोई इतिहास नहीं हो सकता जो भारतीय मजदूरों की मेहनत से परे हो।”
बाद में परिस्थितियाँ बदली। यहां एक कानून बनाया गया जिसके तहत मज़दूरों को जमीन दी गई। कई भारतीय मजदूरों ने इसे मान लिया और वहीं के होकर रह गए। 1960 के दशक तक बड़ी संख्या में त्रिनिदाद में बसे भारतीय ईसाई मिशनरियों के चंगुल में फँस गए और वहाँ बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ। इनमें से ज्यादातर निरक्षर और गरीब थे।
20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय यहाँ के व्यापार और राजनीति में सक्रिय हुए। उन्होंने एकजुट होकर राजनीतिक संगठन बनाए। धीरे-धीरे यहाँ की राजनीति पर इनकी पकड़ मजबूत होती चली गई।
निष्कर्ष
30 मई को मनाया जाने वाला भारतीय प्रवासी दिवस उन पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को याद करता है, जो मई 1845 में फेटेल रजाक जहाज पर सवार होकर त्रिनिदाद पहुंचे थे,। हालाँकि वे अपनी मर्जी से नहीं गए थे, बल्कि बिना किसी विकल्प के इस यात्रा पर निकलने के लिए मजबूर थे। धीरे- धीरे इन लोगों ने विदेशी भूमि को अपने घर के रूप में अपनाया और इसे भारत के रंगों और परंपराओं से समृद्ध किया।
जैसा कि पीएम मोदी ने कहा कि गिरमिटिया के बच्चों ने वास्तव में इतिहास रच दिया है। उन्होंने दिखाया कि उनकी ताकत, मेहनत और जीवन जीने का दृढ़ संकल्प ब्रिटिश उत्पीड़न और अत्याचारों के कहीं ऊपर था। स्थिति अब बदल गई है। कई देशों की तरह त्रिनिदाद और टोबैगो में ये लोग प्रमुख पदों पर पहुँच गए हैं और देश की उपलब्धियों में अपना अहम योगदान दे रहे हैं।