झूठ बोलने पर उसे फटकार लग चुकी है। वह सार्वजनिक माफी माँग चुका है। अनर्गल प्रलाप के लिए अदालत उसे दोषी मानकर सजा सुना चुकी है। पर वह इतना निर्लज्ज है कि फिर भी आए दिन अनाप-शनाप बोलता रहता है। जैसे वह इस देश का विपक्ष का नेता नहीं, गली-मुहल्ले का लंपट हो। आदतन अपराधी हो।
7 अगस्त 2025 को कॉन्ग्रेस नेता राहुल गाँधी ने एक लंबे प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए चुनाव आयोग पर जो हमला किया है, यह उसी सिलसिले का एक नया अध्याय है। कभी चुनाव आयोग, कभी भारतीय सेना, कभी ईवीएम, कभी कोर्ट, कभी संसद… भारतीय विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का शायद ही कोई अंग बचा हो, जिसको लेकर कॉन्ग्रेस नेता ने दुष्प्रचार न किया हो।
कुछ भी अनाप-शनाप बोल देने का यह ‘साहस’ राहुल गाँधी को वही व्यवस्था देती है, जिसे वे सत्ता में आने पर देख लेने की धमकी देते हैं। यही व्यवस्था उन्हें एहसास कराती है कि वे हर हाल में सुरक्षित रहेंगे। उन्हें उनके अपराधों का दंड नहीं मिलेगा। यदि एक बार यही व्यवस्था दंड की नई मिसाल कायम कर दे तो राहुल गाँधी का यह ‘साहस’ स्वत: स्खलित हो जाएगा। ऐसा होना ही भारतीय लोकतंत्र के हित में भी है।
फटकार के बाद भी जारी राहुल का प्रलाप
2014 में मोदी के उदय के बाद राहुल गाँधी ने जिन संस्थाओं को निशाना बनाया उसमें संसद भी है। वहीं, बाद से ही वो उन सभी संस्थाओं को निशाना बनाते रहें जिनके कारण भारत का लोकतंत्र मजबूत है, ऐसा संस्थाएं जिनमें लोगों की आस्था है। जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर माना जाता है लेकिन राहुल गाँधी ने संसद पर भी लगातार सवाल खड़े किए हैं। जिस लोकसभा में उन्होंने लंबे-लंबे भाषण दिए, उसी में उन्हें ना बोलने देने के फर्जी दावे किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट भी उनके आरोपों से अछूता नहीं रहा है। राफेल डील पर कोर्ट के एक फैसले को उन्होंने अपने मन से ही सरकार का भ्रष्टाचार मानते हुए ‘चौकीदार चोर है’ का नारा दिया था। बाद में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में इसके लिए माफी माँगनी पड़ी।
राहुल गाँधी ने RSS और सावरकर को लेकर भी बेतुके बयान दिए हैं। राहुल गाँधी ने RSS की तुलना आतंकी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की है, RSS को कौरव बताया है और तमाम तरह के फर्जी आरोप लगाए हैं। स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर का अपमान करने में राहुल गाँधी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। साफ है कि राहुल गाँधी को सावरकर के हिंदुत्व से घृणा की हद तक चिढ़ है। सावरकर के खिलाफ बयान देने को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट राहुल गाँधी को फटकार लगा चुका है। RSS को गाँधी हत्या में शामिल होने का आरोप लगाने को लेकर भी राहुल गाँधी को कोर्ट से फटकार पड़ चुकी है।
राहुल गाँधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान कहा था कि सभी चोरों का उपनाम (सरनेम) मोदी क्यों है? राहुल के इस बयान के बाद स्थानीय अदालत ने उन्हें 2 वर्षों की सजा दी और उनकी इसे लेकर सांसदी तक चली गई थी।
इन संस्थाओं के अलावा राहुल गाँधी सेना पर भी अनर्गल टिप्पणियाँ कर चुके हैं। कुछ ही दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गाँधी पर सेना का अपमान करने को लेकर तल्ख टिप्पणी की थी। कोर्ट ने यहाँ तक कहा था कि अगर राहुल गाँधी सच्चे भारतीय होते तो इस तरह की टिप्पणी ना करते। राहुल गाँधी ‘सेना की पिटाई’ जैसे बयान दे चुके हैं और पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक पर भी उनके सहयोगियों ने सवाल उठाए हैं।
कॉन्ग्रेस के ‘उपकृत’ चुनाव आयुक्तों पर तो BJP ने नहीं उठाए सवाल
आज राहुल गाँधी चुनाव आयोग पर खुला हमला बोलते हैं और उसे ‘बीजेपी का औजार’ बताते हैं क्योंकि लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी को सत्ता सौंपी है। कई राज्यों में बीजेपी की सरकार है।
लेकिन लंबे समय तक केंद्र और राज्य में कॉन्ग्रेस की सत्ता रही है। उसके बाद किसी भी दल ने चुनाव आयोग पर आरोप नहीं लगाए थे जबकि ऐसे चुनाव आयुक्त हुए हैं जिनके गाँधी परिवार से सीधे संबंध मिलते हैं।
मसलन, टीएन शेषन। उन्हें कई चुनाव सुधारों का श्रेय दिया जाता है। उनके मुख्य चुनाव आयुक्त बनने से पहले देश के आम लोगों को यह पता भी नहीं था कि चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था होती है।
दिलचस्प तथ्य यह है कि चुनाव आयुक्त बनने से पहले शेषन राजीव गाँधी की सरकार में पहले उनके करीबी सुरक्षा सचिव रहे और कैबिनेट सचिव भी बनाए गए। और जब वे रिटायर हो गए तो कॉन्ग्रेस ने उन्हें बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ गुजरात की गाँधीनगर सीट से 1999 के लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया था।
शेषन ऐसे इकलौते नहीं है, एम.एस. गिल का नाम भी गौर करने लायक है। गिल भी मुख्य चुनाव आयुक्त रहे और इस पद रिटायर होने के बाद कॉन्ग्रेस ने गिल को राज्यसभा में भेजा और बाद में केंद्रीय मंत्री भी बनाया। गिल का यह राजनीतिक सफर कॉन्ग्रेस की कृपा से ही संभव हुआ लेकिन तब भाजपा ने कभी आरोप नहीं लगाए कि गिल ने चुनाव आयोग में रहते हुए कॉन्ग्रेस के लिए काम किया था।
नवीन चावला की नियुक्ति भी विवादों से घिरी रही। 1975-77 के आपातकाल के दौरान नवीन चावला दिल्ली के उपराज्यपाल किशन चंद के सचिव थे। जस्टिस शाह कमीशन ने उनके विषय में कहा था कि चावला ने आपातकाल के दौरान अपार शक्तियों का प्रयोग किया क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री आवास तक उनकी आसान पहुँच थी। शाह कमीशन ने यहाँ तक कहा कि उन्हें कोई पद न दिए जाए लेकिन इसके बावजूद वे कॉन्ग्रेस के राज में मुख्य चुनाव आयुक्त तक बने।
कॉन्ग्रेस ने उनकी नजदीकियों को लेकर चुनाव आयुक्त के तौर पर लगातार उन्हें हटाने की माँग की जाती रही थी। खुद मुख्य चुनाव आयुक्त ने उन्हें हटाने की सिफारिश की थी। चावला के कार्यकाल में कई फैसले विपक्ष के खिलाफ होंगे लेकिन भाजपा ने चुनाव हारने के बाद भी चुनाव आयोग को कठघरे में नहीं खड़ा किया था।
चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर निराधार हमला असल में उसी संस्था पर हमला है जिसकी निगरानी में नेता संसद तक पहुँचते हैं। आज बेशक राहुल गाँधी सवाल उठाएँ लेकिन कॉन्ग्रेस के राज में संस्थाओं की स्थिति कैसी थी यह सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी से भी जिसमें शीर्ष अदालत ने सीबीआई को ‘पिंजड़े में बंद तोता’ तक बता दिया था।
मोदी विरोध बन गया है ‘मनोविकार’
नरेंद्र मोदी से पहले भी कई लोग देश के प्रधानमंत्री बने हैं। मोदी के बाद भी देश कई प्रधानमंत्री देखेगा। देश ने विपक्ष के भी कई नेता देखे हैं और भविष्य में भी देखेगा। पर मोदी घृणा में राहुल गाँधी जिस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को निशाना बना रहे हैं वैसा कोई ‘मनोविकारी’ ही कर सकता है।
यह मनोविकार ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ जैसी कॉन्ग्रेसी मानसिकता से ही पैदा होता है। इसके कारण आप ना लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेताओं और न ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बर्दाश्त कर पाते हैं। कॉन्ग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी का हाल ही में यह कहना- ‘कौन सच्चा भारतीय है, कौन नहीं, यह न्यायपालिका तय नहीं करेगी’ भी इस तरह के मनोविकार से उपजता है।
‘शिशुपाल’ की कितनी गलतियाँ बची हैं?
अब सवाल उठता है कि इस मनोविकार का उपचार क्या है? सत्ताधारी दल होने के कारण यह केवल बीजेपी की जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसे हर हमलों को जवाब दे। यह उन संस्थाओं की भी जिम्मेदारी है जिनसे लोकतंत्र मजबूत होता है। यह हर एक उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जिसकी सहभागिता से लोकतंत्र का निर्माण होता है और जिसके लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था कार्य करती है।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह राहुल गाँधी के ऐसे बेतुके हमलों पर स्वत: संज्ञान ले। चुनाव आयोग को कॉन्ग्रेस नेता को अदालत में घसीटना चाहिए। केवल सोशल मीडिया या पत्रों के जरिए उनसे सबूत माँगने की औपचारिकता तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। ऐसा हर उस संस्था को करना चाहिए जिस पर बेबुनियाद आरोप लगाकर राहुल गाँधी भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करना चाहते हैं। अराजकता पैदा करना चाहते हैं।
उनके लिए दंड का ऐसा विधान सुनिश्चित करना चाहिए जिससे कल को कोई फिर हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का प्रयास ना कर सके। या फिर इन्हें बताना चाहिए कि वे द्वापर के श्रीकृष्ण की तरह राजनीति के इस ‘शिशुपाल’ के 100 अपराध पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। साथ ही, यह बताना चाहिए कि इस ‘शिशुपाल’ के अपराधों की गिनती कहाँ तक पहुँची है।
इससे आम जनता को यह जानने में सहूलियत रहेगी कि राजनीति के इस ‘शिशुपाल’ को दंड देने का समय कब आएगा। वह इस बात की निगरानी करेगी कि गिनती पूरी होने के बाद यह ‘शिशुपाल’ दंड के विधान से बच ना सके।