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कौन थे राजेंद्र चोल, जिन्होंने कंबोडिया-इंडोनेशिया तक फहराई सनातन की विजय पताका: PM मोदी ने तमिलनाडु के जिस मंदिर में की पूजा, क्यों पड़ा गंगईकोंडा चोलपुरम उसका नाम


गंगईकोंडा चोलपुरम में पीएम मोदी

तमिलनाडु के अरियालुर जिले में बसे छोटे से गाँव गंगईकोंडा चोलपुरम में रविवार (27 जुलाई 2025) को एक भव्य समारोह हुआ। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चोल साम्राज्य के महान सम्राट राजेंद्र चोल-प्रथम की जयंती और उनकी दक्षिण-पूर्व एशिया की समुद्री यात्रा के 1,000 साल पूरे होने का उत्सव मनाया। इस अवसर पर पीएम मोदी ने गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर में पूजा-अर्चना की, एक स्मारक सिक्का जारी किया और चोल वास्तुकला व शैव धर्म पर आधारित प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।

यह आयोजन न केवल चोल साम्राज्य की समृद्ध विरासत को याद करने का मौका था, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक एकता और आधुनिक भारत के विकास के संकल्प को भी दर्शाता था। आइए, गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर, चोल वंश और राजेंद्र चोल की उपलब्धियों के बारे में विस्तार से जानते हैं।

गंगईकोंडा चोलपुरम एक ऐतिहासिक नगरी

गंगईकोंडा चोलपुरम तमिलनाडु के अरियालुर जिले में जयकोंडम के पास एक छोटा सा गाँव है, जो कभी चोल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था। इसे 1025 ईस्वी में राजेंद्र चोल-प्रथम ने अपनी राजधानी बनाया और लगभग 250 वर्षों तक यह चोल साम्राज्य का केंद्र रहा।

इस नगरी का नाम गंगा नदी की विजय के प्रतीक के रूप में रखा गया, जिसका अर्थ है ‘गंगा को जीतने वाले चोल की नगरी’। आज यह गाँव अपनी प्राचीन भव्यता के लिए प्रसिद्ध है, खासकर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त बृहदेश्वर मंदिर के लिए।

चोल वास्तुकला का अनमोल रत्न है बृहदेश्वर मंदिर

गंगईकोंडा चोलपुरम के बृहदेश्वर मंदिर को गंगईकोंडा चोलेश्वरम मंदिर भी कहा जाता है। ये चोल वास्तुकला का एक शानदार उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण 1035 ईस्वी में राजेंद्र चोल-प्रथम ने करवाया था। यह मंदिर तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर से प्रेरित है, जिसे उनके पिता राजराजा चोल ने बनवाया था। हालाँकि गंगईकोंडा का मंदिर तंजावुर के मंदिर से छोटा है, लेकिन इसकी मूर्तिकला और बारीक नक्काशी इसे और भी खास बनाती है।

मंदिर की विशेषताएँ

वास्तुकला: मंदिर द्रविड़ शैली में निर्मित है और इसका आधार वर्गाकार है। इसका विमान (मंदिर का शिखर) 55 मीटर ऊँचा है, जो तंजावुर के मंदिर से 3 मीटर छोटा है। इतिहासकारों का मानना है कि राजेंद्र ने अपने पिता के मंदिर के प्रति सम्मान दिखाने के लिए इसे थोड़ा छोटा रखा। विमान का आकार थोड़ा अवतल (कर्व्ड) है, जो इसे तंजावुर के मंदिर से अलग बनाता है। इसमें आठ स्तर हैं, जिनमें पौराणिक कथाओं, शिव, विष्णु, और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और नक्काशी उकेरी गई हैं।

शिवलिंग: मंदिर का मुख्य गर्भगृह भगवान शिव को समर्पित है, जहाँ 4 मीटर ऊँचा और 18 मीटर परिधि वाला एक विशाल शिवलिंग स्थापित है, जो दुनिया के सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है।

मूर्तिकला: मंदिर की दीवारों पर करीब 50 मूर्तियाँ और राहतें हैं, जिनमें नटराज, सरस्वती, और शिव द्वारा भक्त को माला पहनाने वाली मूर्ति सबसे प्रमुख हैं। एक विशेष मूर्ति में राजेंद्र चोल को छोटे रूप में दर्शाया गया है, जिसमें शिव और पार्वती उन्हें विजय की माला पहना रहे हैं।

नंदी मूर्ति: मंदिर के प्रांगण में एक विशाल नंदी (शिव का वाहन बैल) की मूर्ति है, जो गर्भगृह की ओर 200 मीटर की दूरी पर अक्षीय रूप से संरेखित है।

अन्य मंदिर और संरचनाएँ: मंदिर परिसर में कई छोटे मंदिर, गोपुरम और नौ ग्रहों की एकाश्म (मोनोलिथिक) मूर्तियाँ हैं। एक शेर के आकार का कुआँ भी 19वीं सदी में जोड़ा गया।

चोल गंगा झील: राजेंद्र ने गंगा नदी का जल उत्तर भारत से लाकर इस मंदिर के पास एक कृत्रिम झील में डाला, जिसे चोल गंगा झील कहा जाता है। इसे ‘विजय का तरल स्तंभ’ भी कहा गया।

यूनेस्को विश्व धरोहर

2004 में यूनेस्को ने गंगईकोंडा चोलपुरम के बृहदेश्वर मंदिर को तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर और दारासुरम के ऐरावतेश्वर मंदिर के साथ ‘ग्रेट लिविंग चोल मंदिर’ के रूप में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। ये मंदिर आज भी सक्रिय हैं और इनमें पूजा-अर्चना होती है। मंदिर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित स्मारक के रूप में देखरेख की जाती है।

मंदिर में उत्सव और पूजा

मंदिर में चार बार दैनिक पूजा होती है: कालसंधि (सुबह 8:30 बजे), उचिकालम (दोपहर 12:30 बजे), सायरक्षाई (शाम 6:00 बजे), और अर्धजामम (रात 7:30-8:00 बजे)। प्रमुख त्योहारों में शिवरात्रि (मासी माह, फरवरी-मार्च), ऐप्पसी पूर्णिमा (ऐप्पसी माह, अक्टूबर-नवंबर) और तिरुवदिराई (मार्गझी माह, दिसंबर-जनवरी) शामिल हैं। ऐप्पसी उत्सव के दौरान भगवान शिव की मूर्ति का चावल से अभिषेक किया जाता है।

दक्षिण भारत का स्वर्णिम युग था चोल युग

चोल वंश दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली तमिल राजवंश था, जिसने 9वीं से 13वीं सदी तक दक्षिण भारत, श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी सैन्य, आर्थिक, और सांस्कृतिक शक्ति का परचम लहराया। चोलों का मूल क्षेत्र कावेरी नदी की उपजाऊ घाटी था, लेकिन उनके साम्राज्य ने तुंगभद्रा नदी तक और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई हिस्सों को शामिल किया। आज के कंबोडिया, थाईलैंड, जावा-सुमात्रा जैसे द्वीपीय इलाकों यानी इंडोनेशिया और मलेशिया तक चोलों का प्रभुत्व रहा, जिसका असर आज भी देखने को मिलता है।

चोल वंश का इतिहास

शुरुआती चोल वंश: चोलों का उल्लेख तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलता है। शुरुआती चोल छोटे क्षेत्रों तक सीमित थे, लेकिन 9वीं सदी में विजयालय चोल ने इसे पुनर्जीवित किया।

मध्यकालीन चोल: 9वीं सदी के मध्य से 13वीं सदी की शुरुआत तक चोल साम्राज्य अपने चरम पर था। इस दौरान राजराजा चोल प्रथम, राजेंद्र चोल प्रथम, राजाधिराज और कुलोत्तुंग चोल जैसे शासकों ने साम्राज्य का विस्तार किया।

साम्राज्य का विस्तार: चोलों ने पांड्य, चेर और श्रीलंका के अनुराधापुरम साम्राज्य को जीता। राजेंद्र चोल ने दक्षिण-पूर्व एशिया में श्रीविजय, केदाह और तम्रलिंगम पर विजय प्राप्त की।

प्रशासनिक सुधार: चोलों ने ‘कुडवोलाई अमैप्पु’ नामक लोकतांत्रिक प्रणाली शुरू की, जिसमें गाँव स्तर पर चुनाव होते थे। जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण में भी उनकी विशेषज्ञता थी।

सांस्कृतिक योगदान: चोलों ने कला, वास्तुकला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया। तमिल साहित्य में तिरुमुरई, कंबन रामायण और मुवर उला जैसे कार्य इस युग की देन हैं।

चोलों की अद्वितीय नौसैनिक शक्ति

चोल साम्राज्य की सबसे बड़ी ताकत उनकी नौसेना थी। राजराजा चोल ने इसकी नींव रखी, जिसे राजेंद्र ने और मजबूत किया। चोल नौसेना ने श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण-पूर्व एशिया तक अभियान चलाए। उनकी नौसैनिक शक्ति ने व्यापार और कूटनीति को बढ़ावा दिया, जिससे चोल साम्राज्य वैश्विक मंच पर एक शक्ति बन गया।

राजेंद्र चोल-प्रथम उर्फ गंगईकोंडा चोल

राजेंद्र चोल-प्रथम (971-1044 ईस्वी) चोल साम्राज्य के सबसे महान सम्राटों में से एक थे। उनके शासनकाल (1014-1044) में चोल साम्राज्य ने दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने चरम को छुआ।

प्रारंभिक जीवन और सत्ता में आगमन

जन्म और परिवार: राजेंद्र का जन्म 971 ईस्वी में तंजावुर में हुआ था। उनके पिता राजराजा चोल प्रथम और माता वनति (तिरिपुवाना मादेवियार) थीं। उनकी जन्म नक्षत्र तिरुवदिराई (अर्द्रा) थी। उनके कई भाई-बहन थे, जिनमें उनकी बहन कुंदवाई, चालुक्य राजा विमलादित्य की रानी थीं।

सह-शासक (को-रीजेंट): 1012 में राजेंद्र को उनके पिता ने सह-शासक नियुक्त किया। 1014 में राजराजा की मृत्यु के बाद राजेंद्र पूर्ण सम्राट बने। 1018 में उन्होंने अपने बेटे राजाधिराज को सह-शासक बनाया।

सैन्य विजय

राजेंद्र की सैन्य उपलब्धियाँ चोल साम्राज्य की शक्ति का प्रतीक थीं। उनकी प्रमुख विजय इस प्रकार हैं-

दक्षिण भारत: राजेंद्र ने चेर, पांड्य और अनुराधापुरम (श्रीलंका) पर विजय प्राप्त की। 1017 में उन्होंने श्रीलंका के दक्षिणी भाग रुहुना को जीता और वहाँ के राजा महिंद V को बंदी बनाकर भारत लाए।

उत्तर भारत: 1019-1023 के बीच राजेंद्र ने गंगा नदी तक अभियान चलाया। उन्होंने कलिंग, बंगाल और पाल साम्राज्य को हराया। इस अभियान में उन्होंने पाल राजा महिपाल और चंद्र वंश के गोविंदचंद्र को परास्त किया। इस विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने गंगईकोंडा चोलपुरम की स्थापना की और चोल गंगा झील बनवाई।

दक्षिण-पूर्व एशिया: 1023-1025 में राजेंद्र ने श्रीविजय (सुमात्रा), केदाह (मलेशिया), और तम्रलिंगम पर हमला किया। उन्होंने श्रीविजय के राजा संग्राम विजयतुंगवर्मन को बंदी बनाया। इस अभियान ने चोलों को दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापार और प्रभाव का केंद्र बनाया।

मालदीव और लक्षद्वीप: 1018 में राजेंद्र ने मालदीव और लक्षद्वीप पर कब्जा किया, जिसे उन्होंने ‘मुन्निर पलंतिवु पन्निरायिरम’ (12,000 द्वीपों का समुद्र) नाम दिया।

सांस्कृतिक और प्रशासनिक योगदान

गंगईकोंडा चोलपुरम: राजेंद्र ने इस नई राजधानी की स्थापना की, जिसमें बृहदेश्वर मंदिर, चोल गंगा झील और कई अन्य मंदिर बनवाए। यह शहर व्यापार और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।

शैव धर्म का प्रचार: राजेंद्र शैव धर्म के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म को भी प्रोत्साहन दिया। उन्होंने श्रीविजय में चूडामणि विहार बनवाने में मदद की।

जल प्रबंधन: राजेंद्र ने चोल गंगा झील और अन्य जलाशय बनवाए, जो सिंचाई और जल प्रबंधन के लिए उपयोगी थे। मधुरंतक वडवरु नहर भी उनके समय की देन है।

साहित्य और कला: राजेंद्र के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला फली-फूली। मूवर उला और कालिंगत्तुपरानी जैसे साहित्यिक कार्य उनके समय में लिखे गए।

मृत्यु : राजेंद्र की मृत्यु 1044 में ब्रह्मदेसम (वर्तमान तिरुवन्नमलई जिला, तमिलनाडु) में हुई। उनकी रानी वीरमहादेवी ने उनके साथ सती प्रथा का पालन किया। उनके भाई मधुरंतक परकेसरी वेलन ने उनकी स्मृति में एक जलाशय बनवाया।

चोल साम्राज्य का पतन

13वीं सदी के अंत तक चोल साम्राज्य कमजोर होने लगा। पांड्यों ने चोलों को हराया और गंगईकोंडा चोलपुरम को नष्ट कर दिया। इसके अलावा, 1311 में दिल्ली सल्तनत के मलिक काफूर, 1314 में खुसरो खान और 1327 में मुहम्मद बिन तुगलक के आक्रमणों ने शहर को और नुकसान पहुँचाया। हालाँकि बृहदेश्वर मंदिर किसी तरह बच गया। 1378 में विजयनगर साम्राज्य ने इस क्षेत्र को पुनः हिंदू शासकों के अधीन लाया और मंदिरों की मरम्मत की।

चोल विरासत का आधुनिक महत्व

चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत आज भी जीवित है। गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर और तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर चोलों की स्थापत्य कला और धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक हैं। पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि चोलों ने भारत को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बाँधा था। उनकी सरकार भी ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के विजन पर काम कर रही है।

चोलों से प्रेरणा लेता आधुनिक भारत

सांस्कृतिक संरक्षण: पिछले एक दशक में भारत ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए कई कदम उठाए हैं। विदेशों से 600 से अधिक प्राचीन मूर्तियाँ और कलाकृतियाँ वापस लाई गई हैं, जिनमें 36 तमिलनाडु की हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा: पीएम ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का जिक्र करते हुए कहा कि यह भारत की संप्रभुता की रक्षा के लिए उठाया गया कदम है, जो चोलों की सैन्य शक्ति की याद दिलाता है।

मूर्तियाँ और स्मारक: तमिलनाडु में जल्द ही राजराजा चोल और राजेंद्र चोल की भव्य मूर्तियाँ स्थापित की जाएँगी।

गंगईकोंडा चोलपुरम और राजेंद्र चोल की गाथा भारत के गौरवशाली इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। चोल साम्राज्य ने न केवल सैन्य और प्रशासनिक क्षेत्र में बल्कि कला, वास्तुकला, और साहित्य में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। गंगईकोंडा चोलपुरम का बृहदेश्वर मंदिर आज भी उस युग की भव्यता और शिल्प कौशल का प्रतीक है।

पीएम मोदी का यह दौरा न केवल चोल विरासत को सम्मान देने का अवसर था, बल्कि यह भारत की एकता और आधुनिक विकास के संकल्प को भी दर्शाता है। यह समारोह ‘विकास भी, विरासत भी’ के मंत्र को साकार करता है और हमें अपने गौरवशाली अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की ओर बढ़ने का संदेश देता है।

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