द बंगाल फाइल्स गोपाल पाठा

‘द बंगाल फाइल्स’ फिल्म का एक क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। इसमें ‘गोपाल चंद्र मुखर्जी उर्फ गोपाल पाठा’ की भूमिका निभा रहा कलाकार हिंदुओं से अपने खिलाफ हो रही हिंसा को चुप हो कर बर्दाश्त ना करने की अपील कर रहा है। फिल्म के ट्रेलर रिलीज होने के बाद से ही गोपाल पाठा को लेकर चर्चा चल रही है और फिल्म रिलीज होने के बाद से यह और भी तेज हो गई है।

1947 से पहले का भारत, खासकर बंगाल और पंजाब, सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था। ऐसे ही समय में कोलकाता के एक साधारण से परिवार का लड़का गोपाल चंद्र मुखर्जी, जिसे लोग गोपाल ‘पाठा’ के नाम से जानते हैं, इतिहास के मोड़ पर एक बड़ा किरदार बनकर उभरा।

कौन थे गोपाल पाठा?

गोपाल चंद्र मुखर्जी का जन्म 1913 में कोलकाता में हुआ था। साधारण कद-काठी (5 फीट 4 इंच), लंबे बाल, दाढ़ी-मूंछ और शांत स्वभाव वाले गोपाल दिखने में भले ही एक आम इंसान लगते हों, लेकिन वह एक ऐसे समय में उभरे जब कोलकाता पर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा कब्जा करने की साजिश हो रही थी।

1946 का ‘डायरेक्ट एक्शन डे’

16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने जिन्ना के आदेश पर ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया। मकसद था कोलकाता को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना। बंगाल के प्रधानमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी की अगुवाई में भड़काऊ भाषण दिए गए। इसके बाद शहर में हिंसा, लूट, आगजनी, बलात्कार और हत्याएँ शुरू हो गईं। हिंदू घरों को निशाना बनाया गया।

डायरेक्ट एक्शन डे के दिन शुरू हुए दंगे चार दिनों तक चले और उसमें करीब 10,000 लोग मारे गए। महिलाएँ बलात्कार का शिकार हुईं और जबरन लोगों का धर्म परिवर्तन करवाया गया। इन दंगों में गोपाल पाठा के शौर्य की कहानी आज भी गर्व से याद की जाती है।

पाठा ने एक वाहिनी ‘भारत जतिया बहिनी’ का गठन किया था जिसने इन दंगों के दौरान हिन्दुओं की रक्षा की और वाहिनी इस तरह से लड़ी कि मुस्लिम लीग के नेताओं को गोपाल पाठा से खून-खराबा रोकने के लिए अनुरोध करना पड़ा।

गोपाल पाठा की जवाबी कार्रवाई

16 अगस्त के हमले के बाद 17 अगस्त से हिंदू समाज ने भी इसका प्रतिकार करना शुरू कर दिया। गोपाल मुखर्जी ने अपने साथियों को एकत्र किया। उनके पास लाठी, चाकू, तलवारें और कुछ जगहों पर बंदूकें भी थीं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी सैनिकों से मिली थीं।

गोपाल पाठा ने साफ आदेश दिए कि अगर हमारे एक आदमी को मारा गया, तो उसके बदले में दस को मारो। उन्हें बड़ा बाजार के मारवाड़ी व्यापारियों से भी समर्थन मिला।

1946 के नोआखाली दंगों में भी उनकी भूमिका का जिक्र मिलता है, जहाँ वे हिंदुओं की मदद के लिए गए थे। बँटवारे के बाद 1947 में भारत-पाकिस्तान अलग हुए, लेकिन उनकी वजह से बंगाल का विभाजन ऐसा हुआ कि कलकत्ता भारत में रहा। उनके समर्थक आज भी यहीं कहते हैं कि उन्होंने कलकत्ता को पाकिस्तान बनने से बचाया। गोपाल चंद्र मुखर्जी का निधन 2005 में हुआ।

आज 70 साल बाद भी उन्हें न तो कोई आधिकारिक मान्यता मिली और न ही इतिहास में उनकी भूमिका को पूरी तरह समझा गया है, लेकिन उनका जीवन इस बात की मिसाल है कि मुश्किल समय में एक आम आदमी भी इतिहास की धारा मोड़ सकता है, अगर उसमें अपने शहर और लोगों के लिए सच्ची निष्ठा हो।



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