कर्नाटक के धर्मस्थल से हैरान करने वाली खबर आई। धर्मस्थल मंदिर के पूर्व सफाई कर्मचारी ने ‘सैकड़ों शवों’ के मिलने का दावा किया। इसके बाद तो आरोपों की झड़ी लग गई। जुलाई 2025 में पूर्व सफाई कर्मचारी सी.एन. चिन्नैया ने दावा किया कि उन्होंने इस क्षेत्र में ‘सैकड़ों शवों’ को दफनाया। इसे कई मीडिया संस्थानों ने राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। लेकिन जैसे ही गवाह चिन्नैया की ‘सच्चाई’ सामने आई, किसी ने ‘गंभीर विश्लेषण’ के साथ रिपोर्टिंग नहीं की।

सफाई कर्मचारी चिन्नैया के मुताबिक, “कुछ सालों में लोगों की हत्या की गई थी और शवों को जमीन के नीचे गाड़ दिया गया। उसने घटना का वक्त 1995 से 2014 के बीच का बताया। बगैर सबूत के सिर्फ चिन्नैय की गवाही के आधार पर कर्नाटक की कॉन्ग्रेस सरकार ने जाँच के लिए एसआईटी का गठन कर दिया। दो हफ्तों तक SIT के अधिकारी शवों की तलाश में जंगलों, नदी के किनारों और घाटों की खाक छानते रहे।”

लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीता, एसआईटी को मामले पर शक हुआ। पूर्व सफाई कर्मचारी सी.एन. चिन्नैया को SIT ने गिरफ्तार कर लिया और बेलथांगडी कोर्ट में पेश किया। कोर्ट में चिन्नैया ने माना कि उसने झूठ बोला था। पूछताछ के दौरान उसकी कहानी की सच्चाई सामने आ गई। इस दौरान उसने जो खुलासा किया, वह गंभीर साजिश की ओर इशारा कर रहा था, जिसका वह एक मोहरा मात्र था।

धर्मस्थल मामले का ‘गवाह’ चिन्नैया गिरफ्तार, साजिश की बात कबूली

रिपोर्टों के अनुसार, चिन्नैया ने एसआईटी की जाँच में खुलासा किया कि पिछले साल उससे किसी ने संपर्क किया और पैसे देने का वादा किया। उसे धर्मस्थल के पास लोगों को मारने और सैकड़ों शवों को गाड़ने का झूठ फैलाना था, ताकि मंदिर की छवि खराब हो सके। उससे संपर्क करने वाले लोगों ने कहा था, “उसकी मनगढ़ंत गवाही से जनता में आक्रोश फैलेगा, तब दूसरे लोग उसे समर्थन देने के लिए आगे आ जाएँगे। उसे परिणामों से डरने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि एक बार यह झूठा प्रचार लोगों के दिमाग में घर बना लिया, तो मंदिर की छवि खराब हो जाएगी और चिन्नैया को बचा लिया जाएगा।”

उसने कथित तौर पर जाँचकर्ताओं को बताया, “मुझे बेंगलुरु में प्रशिक्षण दिया गया था। मुझे बताया गया था कि पुलिस द्वारा पूछताछ के दौरान कैसे जवाब देना है। मैं मास्टरमाइंड के निर्देशों के अनुसार काम करूँगा। मैं यहाँ सिर्फ एक किरदार हूँ, मास्टरमाइंड कोई और है।”

चिन्नैया ने अपने झूठ को और पुख्ता करने की कोशिश भी की थी। उसने अदालत में एक खोपड़ी पेश किया और दावा किया कि यह उन पीड़ितों में से एक की है, जिन्हें उसने दफनाया था। लेकिन कोर्ट में वह ये नहीं बता सका कि उसे यह खोपड़ी कहाँ से मिली थी? उसके बयानों में विरोधाभाष साफ नजर आ रही थी। एसआईटी अधिकारियों ने कोर्ट को बताया कि उसके द्वारा बताए गए 18 में से 17 स्थानों से कुछ भी नहीं मिला। एक जगह हड्डियाँ बरामद हुईं, लेकिन प्रारंभिक जाँच से पता चला कि वे हाल ही में हुए एक आत्महत्या के मामले की थीं। फोरेंसिक जाँच से इसकी पुष्टि हो जाएगी।

अब तक चिन्नैया का ‘राज’ खुल चुका था। जिसे गवाह के रूप में पेश किया गया था, वह वास्तव में धर्मस्थल, उसके मंदिर ट्रस्ट और धर्माधिकारी वीरेंद्र हेगड़े को बदनाम करने की साजिश का एक हिस्सा था।

‘पत्रकारिता’ की आड़ में हिंदू मंदिर के खिलाफ लगाए गए गंभीर आरोप

इस कहानी का अंदाज बदल चुका था। अपने मंदिर, धार्मिक परंपराओं और दान के लिए प्रसिद्ध धर्मस्थला को बदनाम करने के लिए मीडिया हफ़्तों तक लगा रहा। मीडिया ने इस खबर को एक गंभीर राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में पेश किया।

हालाँकि जाँच से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। कोई सामूहिक कब्र नहीं मिली, कोई अपराध साबित नहीं हुआ। यहाँ तक कि गवाह को ही झूठी जानकारी देने के आरोप में कर्नाटक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

धर्मस्थल मंदिर की प्रतिष्ठा धुमिल करना था मकसद

लेकिन जो भी हुआ उससे धर्मस्थल की प्रतिष्ठा दाँव पर लग गई। पूरे मामले का मकसद था- धर्मस्थल की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना, श्री धर्मस्थल मंजुनाथेश्वर मंदिर ट्रस्ट और उसके धर्माधिकारी वीरेंद्र हेगड़े की छवि धूमिल करना।

हालाँकि ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इतना काल्पनिक, बिना किसी सबूत के, एक आरोप का प्रचार इतनी तेजी से कैसे हुआ कि देश की ‘बड़ी खबर’ बन गया। इसका जवाब है मीडिया में पनप रहा दुष्प्रचार का ‘झूठतंत्र’। एक ऐसा तंत्र जिसमें ‘द न्यूज़ मिनट’ और उसकी संपादक धन्या राजेंद्रन की भूमिका अहम रही।

हर साजिश जो ज़ोर पकड़ती है, उसके पहचाने जाने योग्य किरदार होते हैं। एक तो वह सूत्रधार होता है, जो दावा करता है। दूसरा, वह राजनीतिक ताकतें होती हैं, जो उसे हथियार बनाती हैं। तीसरा, वह कार्यकर्ता और प्रभावशाली लोग होते हैं जो उसे प्रसारित करते हैं। और चौथा सबसे महत्वपूर्ण, वह सम्मानित मीडिया संस्थान जो ‘संतुलित’ और ‘नपी-तुली’ पत्रकारिता की आड़ में आरोपों को सही बताने की साजिश करती है।

मीडिया ने लगाए बेबुनियाद आरोप

‘न्यूज मिनट’ को इसी कटेगरी में रखा जा सकता है। इसने कभी भी सीधे तौर पर धर्मस्थल पर आरोप नहीं लगाया, लेकिन हर आरोप की उसकी जबरदस्त कवरेज, एसआईटी के हर अपडेट को गंभीरता से संदर्भ के साथ रखना और दावों के जरिए राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश करना। यही वजह रही कि इस भ्रामक कहानी को सुर्खियाँ मिली, जबकि इसे काफी पहले खत्म हो जाना चाहिए था।

आरोपों की बार-बार रिपोर्टिंग करके, टीएनएम ने एक निराधार खबर को ‘विवाद’ में बदल दिया। तथ्यों को रिपोर्ट करने के बजाय मीडिया ने धर्मस्थल के बारे में जहर उगला।

टीएनएम ने बेबुनियाद आरोप नहीं लगाए, बल्कि बेबुनियाद आरोपों को जगह दी, उसका विश्लेषण किया। अब सवाल ये उठता है कि अगर आरोप मदरसों में सामूहिक बलात्कार या किसी मस्जिद द्वारा आपराधिक गतिविधियों को छुपाने के बारे में होता, तो क्या द न्यूज मिनट की रिपोर्टिंग इसी तरह होती? क्या उसने धार्मिक नेटवर्क के जरिए सैकड़ों हिंदू लड़कियों की तस्करी की संभावना पर लंबी-चौड़ी रिपोर्टिंग की होती? इसका उत्तर साफ है- नहीं।

खबरों का विश्लेषण, स्पेशल कवरेज केवल तभी दिखाई देता है जब निशाना हिंदू संस्थाएँ होती हैं। जब बात चर्चों में यौन अपराधों या मस्जिदों की होती है, तो ‘द न्यूज़ मिनट’ बड़ी आसानी से उन्हें रिपोर्ट करने से बचता है या ऐसी घटनाओं को कम करके आंकने की कोशिश करता है।

अजमेर कांड, केरल की कहानी और उत्तराखंड में धर्मस्थल के फर्जीवाड़े को कवर करने में पक्षपात

यह पक्षपात 20 अगस्त, 2024 के अजमेर सेक्स स्कैंडल के फैसले से तुलना करने पर और भी स्पष्ट हो जाता है। बत्तीस साल की कानूनी लड़ाई के बाद, एक जिला अदालत ने 1990 के दशक की शुरुआत में अजमेर में 100 से ज़्यादा स्कूली लड़कियों के सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल के लिए छह लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। आरोपी कोई मामूली नहीं थे। इनमें अजमेर दरगाह के खादिमों के साथ-साथ फारूक चिश्ती, नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती जैसे अजमेर युवा कांग्रेस के नेता भी शामिल थे।

पीड़िता ज़्यादातर हिंदू लड़कियाँ थीं, जिनमें से कई को फँसाया गया, बलात्कार किया गया, उनकी तस्वीरें खींची गईं और फिर ब्लैकमेल कर सेक्स रैकेट में शामिल किया गया। कुछ को आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया। यह भारतीय इतिहास के सबसे बड़े सेक्स स्कैंडल में से एक था। फिर भी, द न्यूज़ मिनट, ने अजमेर शरीफ पर कोई टिप्पणी नहीं की। इस मामले में कोई विशेष कवरेज नहीं, कोई विश्लेषण नहीं। भारत के सबसे कुख्यात अपराधों में से एक का फैसला खामोशी में दफना दिया गया।

टीएनएम ने ‘द केरल स्टोरी’ की कवरेज में भी यही किया। जब एक फिल्म में उन महिलाओं की गवाही दिखाई गई, जिन्हें रिश्तों में फँसाया गया।उनका धर्मांतरण कराया गया और आईएसआईएस दुल्हनों के रूप में तस्करी की गई, तो टीएनएम ने इसे एक दुष्प्रचार फिल्म बताकर खारिज कर दिया। पीड़ितों के अपने शब्दों, उनकी दर्दनाक आपबीती को इसलिए नजरअंदाज कर दिया गया, क्योंकि कहानी में अपराधी इस्लाम को मानने वाले थे।

यहाँ प्रशिक्षण, तस्करी और कट्टरपंथ के एक वास्तविक मामले को कम करके आँका गया और उसका मजाक उड़ाया गया। जबकि धर्मस्थल में सामूहिक हत्याओं के एक पूरी तरह से काल्पनिक दावे को राष्ट्रीय विवाद का विषय बना दिया गया।

ये एक खास पैटर्न को उजागर करता है। हिंदुओं के खिलाफ बगैर सबूत के निराधार आरोपों को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, इस्लामिक भीड़ के अपराधों को भी खारिज करना। साथ ही उन कहानियों को मिटा देना, जहाँ हिंदू पीड़ित हैं।

यह पैटर्न अतिक्रमण के मामलों में भी देखा जा सकता है। देवभूमि उत्तराखंड में मस्जिदों और मदरसों द्वारा हथिया ली गई सरकारी जमीन का कई बार पर्दाफाश हुआ। मस्जिदों और मदरसों का निर्माण वन क्षेत्रों और यहाँ तक कि तीर्थयात्रा मार्गों पर अवैध रूप से कब्जा कर बनाए जाने का पता चला। इन अतिक्रमणों के कारण तोड़फोड़ और राजनीतिक बहस भी हुई। लेकिन गलत कामों के स्पष्ट दस्तावेजी सबूत भी सामने आए।

लेकिन यहाँ भी ‘द न्यूज़ मिनट’ गायब था। खोजी पत्रकारिता और ‘सच’ का पता लगाने वाली कोई रिपोर्टिंग नहीं थी। धार्मिक संस्थाओं द्वारा जमीन हड़पने पर कोई संपादकीय ‘आक्रोश’ नहीं था। वही ‘न्यूज़रूम’ को उत्तराखंड में इस्लामिक संस्थाओं द्वारा किए गए अतिक्रमणों को बताने में कोई रुचि नहीं थी। क्या कवर नहीं करना है- इसका खास ख्याल रखते हुए टीएनएम ने सिर्फ हिन्दू संस्थानों को ‘संदिग्ध’ के रूप में पेश किया, ताकि इस्लामी संस्थाएँ जाँच से बच जाएँ।

यही बात लव जिहाद के मामलों पर भी लागू होती है, जिसका जिक्र ‘द न्यूज़ मिनट’ की कवरेज में शायद ही कभी होता है। और जब होता भी है, तो ‘मीडिया’ संस्थान अक्सर इसे ‘दक्षिणपंथी सोच’ बताकर खारिज कर देता है। ये उन हज़ारों महिलाओं के दर्द का अपमान है, जो लव जिहाद के आतंक से गुज़री हैं। मुस्लिम पुरुषों द्वारा पीड़ित होती हैं, जो उन्हें झूठे प्रेम जाल में फँसाकर रिश्ते बनाते हैं और फिर धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करते हैं।

धर्मस्थल मंदिर को लेकर फैलाए गए झूठ से ये भी साबित होता है कि कैसे तंत्र का इस्तेमाल दुष्प्रचार के लिए किया जाता है। ऑल्ट न्यूज़ के मोहम्मद ज़ुबैर और प्रतीक सिन्हा जैसे लोग और न्यूज़लॉन्ड्री से जुड़े पत्रकार, अक्सर ट्वीट करके मंदिर के बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। इसका उद्देश्य सोशल मीडिया के माध्यम से हिंदू संस्थाओं को बदनाम करना होता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह की निराधार साजिशों का प्रचार करके, ऐसे लोग जनमत को बताने की कोशिश करते हैं कि हिंदू पूजा स्थलों को सरकारी नियंत्रण में क्यों रहना चाहिए?

ज़ुबैर ने धर्मस्थल की कहानी को लगातार कवर करने के लिए द न्यूज़ मिनट की भी सराहना की, और उनकी रिपोर्टों का इस्तेमाल हिंदू संस्थाओं के खिलाफ अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए किया। लेकिन जब एसआईटी को कुछ नहीं मिला, और गवाह खुद गिरफ्तार हो गया, तो ज़ुबैर ने चुपचाप अपना जश्न मनाने वाला ट्वीट डिलीट कर दिया। न माफी माँगी और न ही स्पष्टीकरण दिया।

ज़ुबैर ने धर्मस्थल की कहानी को लगातार कवर करने के लिए द न्यूज़ मिनट की भी सराहना की, और उनकी रिपोर्टों का इस्तेमाल हिंदू संस्थाओं के खिलाफ अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए किया। लेकिन जब एसआईटी को कुछ नहीं मिला, और गवाह खुद गिरफ्तार हो गया, तो ज़ुबैर ने चुपचाप अपना जश्न मनाने वाला ट्वीट डिलीट कर दिया। न माफी माँगी और न ही स्पष्टीकरण दिया

जुबैर चुपचाप अपने झूठ से पीछे हट गया। यही उनका तरीका है। हिंदुओं के ‘गलत कामों’ को आक्रामक तरीके से बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना। लेकिन जब कहानी उल्टी नजर आए, तो बेशर्मी से बच निकलना। पिछले कुछ समय से, ज़ुबैर और उनके जैसे लोग ऐसे हथकंडों का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। किसी और के कंधे पर बंदूक रखकर हिंदू मान्यताओं पर हमला करना और जब जवाबदेह ठहराया जाए तो भाग जाना।

ज़ुबैर पूर्व भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा के खिलाफ ‘सर तन से जुदा’ गैंग शुरू करने के लिए कुख्यात है। 2022 में पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ टिप्पणी करने का उसने नूपुर शर्मा पर आरोप लगाया था। तीन साल से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी, ज़ुबैर ने अभी तक नूपुर द्वारा कही गई बातों को झूठा साबित करने के लिए कोई ‘फ़ैक्ट-चेक’ नहीं किया है। वह नूपुर के दावों पर अपने ‘फ़ैक्ट-चेक’ से जुड़े सवालों का जवाब देने से बचते रहे हैं।

जब मुस्लिम मौलवियों को मस्जिदों के अंदर नाबालिगों के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया जाता है, या जब अवैध अतिक्रमण के लिए मस्जिदों को तोड़ा जाता है, तो इस पूरे तंत्र को साँप सूँघ जाता है। निरंतर कवरेज का यह मॉडल केवल एक ही दिशा में लागू होता है। वही ज़ुबैर जो हिंदू धर्मगुरुओं के भाषणों पर कटाक्ष करते हैं, वे मुस्लिम मौलवियों द्वारा विवादास्पद सांप्रदायिक टिप्पणियों को उजागर करना भूल जाते हैं। वही टीएनएम जो धर्मस्थल की साजिशों पर व्याख्यात्मक लेख प्रकाशित करता है, उसे अजमेर, उत्तराखंड के अतिक्रमणों या इस्लामी कट्टरपंथ के शिकार लोगों के लिए जगह नहीं मिलती।

झूठी नैतिक समानता का जाल

हर बार जब कोई मुस्लिम घोटालों में फँसता है तो उन्हें ‘संतुलित’ करने का प्रयास किया जाता है। अजमेर, बिशप फ्रैंको, आईएसआईएस भर्ती जैसे मामले सामने आने पर हिंदुओं से जुड़ा कोई ‘कांड’ गढ़ने की कोशिश की जाती है। ‘लव जिहाद’ का मुकाबला करने के लिए ‘भगवा प्रेम जाल’ सामने आता है। ‘जय श्री राम’ को ‘अल्लाहु अकबर’ के बराबर बताया जाता है ताकि इस्लामी कट्टरपंथ को ‘संतुलित’ किया जा सके। उसे तर्कसंगत बनाने के लिए हमेशा एक हिंदू समकक्ष तैयार रहे, क्योंकि यह केवल इस्लाम तक सीमित नहीं है। तर्कवादी हत्याओं का इस्तेमाल हिंदू धर्म को असहिष्णु बताने के लिए किया जाता है। अजमेर या केरल की कहानी को संतुलित करने के लिए एक मनगढ़ंत हिंदू डरावनी कहानी गढ़ना, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ‘इस्लामिक कट्टरपंथ’ दोषी न लगे।

इंजीनियरिंग के नजरिए से देखा जाए, तो आरोप कच्चे माल की तरह होते हैं। ‘द न्यूज़ मिनट’ जैसे प्रवर्तक उन्हें ‘गंभीर मुद्दों’ में बदल देते हैं। जुबैर और सिन्हा जैसे दुष्प्रचार के सौदागर उन्हें व्यापक रूप से फैलाते हैं। फिर भुगतान के रूप में सोशल मीडिया ट्रोल किया जाता है। फिर ऐसे बढ़ा-चढ़ा कर राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनाया जाता है। इस चर्चा में सबसे पहले छिप जाती है वह सच्चाई, जो वास्तव में होती है। चर्चा को सनसनीखेज बनाया जाता है और जब झूठा साबित होता है, तो प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती है चुप्पी। कोई जिम्मेदारी नहीं लेने की बेशर्म कोशिश।

(ये लेख मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई है, इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)



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