म्यांमार बौद्ध साम्राज्य संस्कृति

म्यांमार हाल ही में गृह युद्ध, सैन्य तख्तापलट, नार्को-टेररिज्म और चीन द्वारा चलाए जा रहे ऐसे कॉल सेंटर्स की वजह से सुर्खियों में है, जहाँ भारत और अन्य देशों से अगवा किए गए पर्यटक और नौकरी के तलाश में गए लोग फँसे हुए पाए गए हैं। इन गंभीर घटनाओं ने इस बौद्ध-बहुल देश के गौरवशाली अतीत को कहीं पीछे छोड़ दिया है। जबकि कभी इसे ‘स्वर्ण भूमि’ कहा जाता था।

कभी यह देश एक समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से जीवंत सभ्यता था। यहाँ सुंदर प्राकृतिक दृश्य और सुनहरे मंदिरों की भरमार थी। लेकिन अब यह देश लगातार राजनीतिक अशांति और हिंसा से जूझ रहा है।

म्यांमार के लंबे और रोचक इतिहास में कई साम्राज्य और राजवंश आए और गए – जैसे अवा साम्राज्य, हंथवाडी राज्य और तौंगू साम्राज्य। इन सभी ने इस देश की सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक विरासत को गहराई से प्रभावित किया और समृद्ध बनाया है।

जब बागान साम्राज्य ने जमाई जड़ें

बागान (जिसे कुछ ग्रंथों में पैगन भी कहा गया है) वंश म्यांमार का पहला ऐसा साम्राज्य था जिसने उन क्षेत्रों को एकजुट किया जो आगे चलकर वर्तमान म्यांमार (पहले बर्मा) बना। ‘म्रनमा’ या ‘बर्मन’ लोगों को ही ‘बर्मा’ और ‘म्यांमार’ नामों की उत्पत्ति का स्रोत माना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार, बर्मन लोग तिब्बत और पश्चिमी चीन की सीमावर्ती पहाड़ियों से आए थे।

9वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में जब प्यू राज्य एक सैन्य संकट से जूझ रहा था, तब बर्मन लोगों ने इस अवसर का लाभ उठाया और उस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उन्होंने 849 ईस्वी में बागान (Bagan) को अपनी राजधानी बनाया। हालाँकि यह कब्जा पूरी तरह से जबरदस्ती नहीं था, क्योंकि बर्मन लोगों ने प्यू संस्कृति और परंपराओं को लूटने और नष्ट करने की बजाय अपनाने की कोशिश की।

प्यू लोग पहले से ही भारत के साथ सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से जुड़े हुए थे। वे बौद्ध धर्म को मानते थे और बर्मन लोगों ने भी यही रास्ता अपनाया। प्यू लोगों की गीली धान की खेती (wet-rice cultivation), जो आज भी इरावडी डेल्टा में होती है, बर्मन लोगों के लिए एक नई चीज थी, क्योंकि वे पहाड़ी इलाकों के अनुकूल थे जहाँ तापमान और जमीन दोनों अलग थे।

प्यिनब्या को आधुनिक इतिहासकार बागान साम्राज्य के शुरुआती राजाओं में से एक माना जाता है। उसने आने वाले दो सौ वर्षों में मध्य म्यांमार पर अधिकार कर लिया। लेकिन पारंपरिक म्यांमार के राजवंश-ग्रंथों में प्यिनब्या को बागान वंश का 33वाँ राजा बताया गया है।

जब सत्तारुढ़ होता है ‘अनावराता’

बागान एक साधारण राज्य था, लेकिन 1044 में जब अनिरुद्ध (जो बाद में अनावराता के नाम से प्रसिद्ध हुए) राजा बने, तो राज्य का भाग्य बदल गया। अनावराता, राजा पिनब्या के परपोते थे। उनके शासन में बागान न सिर्फ एक शक्तिशाली राज्य बना, बल्कि पूरे क्षेत्र की दिशा भी बदल गई।

राजा अनावराता ने अपने राज्य में सिंचाई व्यवस्था को बेहतर बनाया, जिससे बागान चावल उत्पादन में अग्रणी बन गया। इसके साथ ही उन्होंने साहसिक सैन्य अभियान भी चलाए। 1057 में उन्होंने दक्षिण में स्थित, समृद्ध और सुंदर मोन राज्य की राजधानी थाटोन पर विजय प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने पूरे इरावदी क्षेत्र को बागान के अधीन कर लिया और पहला बर्मी साम्राज्य स्थापित किया।

इस बड़ी उपलब्धि के बाद आस-पास के मोन शासक भी बर्मा की सत्ता को मानने लगे। अनावराता की सफलता सिर्फ युद्ध में नहीं थी, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी उनका शासन महत्वपूर्ण रहा। वे मोन परंपरा से प्रभावित थे और थेरवाद बौद्ध धर्म के समर्थक बने। उन्होंने इस धर्म को पूरे बागान क्षेत्र में फैलाया क्योंकि वे इसे एकता का माध्यम मानते थे।

बागान साम्राज्य का विस्तार और भारतीय प्रभाव

अनावराता (Anawrahta) के शासनकाल में बागान का स्वर्णकाल शुरू हुआ। मोन संस्कृति, जो भारतीय संस्कृति से गहराई से प्रभावित थी, अनावराता को बहुत प्रिय थी। उन्होंने मोन बंदरगाहों पर विजय प्राप्त कर भारी संपत्ति प्राप्त की और उसी धन से बगान को सजाने के लिए मोन इंजीनियरों, सुनारों, बढ़ईयों और कलाकारों को काम पर लगाया। मोन सभ्यता नदी परिवहन पर भी नियंत्रण रखती थी, जिससे उनका प्रभाव और अधिक बढ़ गया।

राजा अनावराता ने उस समय असंख्य मंदिरों, पगोडों और स्तूपों का निर्माण कराया। हर नया निर्माण पिछले से अधिक भव्य और विशाल होता था। इसी समय भारत का प्रसिद्ध धार्मिक महाकाव्य रामायण बर्मा (अब म्यांमार) में लोकप्रिय हुआ, जिसे बर्मी भाषा में रामा जतदाव (Rama Zatdaw) कहा गया।

इसकी कहानियाँ पहले मौखिक रूप से 13वीं शताब्दी के अंत में आवा (Ava) में प्रचलित थीं और 16वीं शताब्दी तक मौखिक परंपरा में चलती रहीं। 18वीं शताब्दी तक बौद्ध भिक्षुओं ने इसे एक महान कथा के रूप में स्वीकार किया और बगान की पुरानी मौखिक परंपराओं के आधार पर इसे गद्य, पद्य और नाट्य रूप में लिपिबद्ध किया गया।

अनावराता की मृत्यु 1077 में हुई, लेकिन बागान का स्वर्णकाल जारी रहा। व्यापार में वृद्धि के चलते मंदिरों का निर्माण तेजी से होता रहा। 1044 से 1287 ईस्वी तक बगान राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना रहा।

लेकिन हर साम्राज्य की तरह बगान का भी पतन हुआ। 13वीं सदी के अंत में राजनीतिक और आर्थिक समस्याएँ शुरू हुईं और इसके बाद मंगोल आक्रमणों ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। राजा नरथिहापते ने शुरू में मंगोल सम्राट कुबलई खान से कोई बातचीत नहीं की। नतीजा ये हुआ कि सन 1277 ईस्वी में बगान राज्य को नगासाउंगग्यान की लड़ाई में अप्रत्याशित हार मिली और दस साल बाद 1287 में बागान का पतन हो गया।

इसके बाद सदियों तक कई मंदिर और पगोडे त्याग दिए गए, लेकिन बगान की सांस्कृतिक विरासत समाप्त नहीं हुई। 15वीं शताब्दी में यह एक बार फिर बौद्ध तीर्थ स्थल के रूप में प्रसिद्ध हुआ और 1700 के दशक में फिर से मंदिर निर्माण शुरू हुआ।

आज भी यहाँ हजारों मंदिर, मठ और स्तूप हैं। ये स्तूप बुद्ध के अवशेषों या पवित्र वस्तुओं को संरक्षित करने वाले माउंटेन जैसे या घंटी के आकार के होते हैं। इनमें से अधिकतर ईंट और प्लास्टर से बने हुए हैं और आज भी श्रद्धा का केंद्र हैं।

बागान को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में किया गया शामिल

बागान एक पवित्र स्थल है जो म्यांमार में स्थित है। यह जगह बौद्ध कला और वास्तुकला का एक अनमोल खजाना है। यहाँ सदियों से थेरवाद बौद्ध परंपरा के तहत ‘पुण्य अर्जन’ (जिसे कम्माटिक बौद्ध धर्म कहा जाता है) की परंपरा चली आ रही है।

बागान का इतिहास 11वीं से 13वीं सदी के बीच के बागान काल से जुड़ा है, तब बौद्ध धर्म को राजा ने राजनीतिक नियंत्रण के एक साधन के रूप में अपनाया था। राजा ही मुख्य दाता (donor) बन गया और पुण्य अर्जन के चलते मंदिरों का निर्माण बहुत तेजी से बढ़ा। यह निर्माण कार्य 13वीं सदी में अपने शिखर पर पहुँचा।

बागान का यह क्षेत्र इरावदी नदी (Irrawaddy River) के एक मोड़ पर स्थित है और आठ हिस्सों (components) में बँटा हुआ है, इनमें से एक नदी के एक ओर है और बाकी सात दूसरी ओर।

यह क्षेत्र सिर्फ इमारतों का समूह नहीं है, बल्कि इसमें खेती, पारंपरिक सांस्कृतिक रीति-रिवाज, बौद्ध पूजा और पुण्य अर्जन की गतिविधियाँ भी शामिल हैं जो इसकी अमूर्त (intangible) सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं।

यहाँ 3,595 दर्ज स्मारक हैं, जिनमें स्तूप, मंदिर और अन्य धार्मिक ढाँचे शामिल हैं। इसके अलावा, यहाँ खुदाई से जुड़ी कई जानकारियाँ, शिलालेख, भित्ति चित्र और मूर्तियाँ भी पाई गई हैं।

बागान एक जटिल और बहुस्तरीय सांस्कृतिक स्थल है जिसमें आधुनिक शहर और आवासीय इलाके भी शामिल हैं। इसे 2019 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) द्वारा विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) घोषित किया गया था।

संस्कृति और धर्म का मिश्रण

बगान का मैदान लगभग 65 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह धार्मिक महत्व से भी एक ऐतिहासिक स्थान है। यहाँ 5,000 से अधिक धार्मिक स्मारक बगान के शासकों की देखरेख में बनाए गए थे। आज भी ‘बगान पुरातात्त्विक क्षेत्र’ (Bagan Archaeological Zone) में इन मूल संरचनाओं में से 2,000 से अधिक विभिन्न स्थिति में मौजूद हैं।

इन मंदिरों और स्तूपों की दीवारों पर भगवान बुद्ध और पूर्व बुद्धों के जीवन की चित्रकारी की गई है। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, साम्राज्य की राजधानी रहते हुए बागान का स्वर्ण काल 250 वर्षों से अधिक चला। उस समय यहाँ 40 वर्ग मील के क्षेत्र में लगभग 10,000 धार्मिक स्मारक थे।

फोटो साभार: नेशनल ज्यॉग्राफी

इन हजारों स्मारकों में बड़े मंदिरों से लेकर छोटे एक-कक्षीय मठों तक कुछ बेहद खास और आकर्षक स्थल भी हैं। लौकानंदा पगोडा (Lawkananda Pagoda) विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जिसे राजा अनावराता ने बनवाया था। इसका सुनहरा गुंबद और छतरी के आकार की चोटी (finial) पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

कहा जाता है कि इस पैगोडा में एक अवशेष रखा है जिसे बुद्ध के दाँतों में से एक माना जाता है, इसे श्रीलंका के शासक ने प्राप्त किया था। बगान में कई गुलाबी रंग के स्तूप और मंदिर लाल मिट्टी और हरे-भरे पेड़ों के बीच में खड़े हैं। यह इरावदी नदी के किनारे पर्यटकों के लिए अद्भुत दृश्य पेश करते हैं।

यह क्षेत्र दुनिया में बौद्ध मंदिरों की सबसे बड़ी एकत्रता में से एक माना जाता है और यह इस बात का प्रमाण है कि संस्कृति और धर्म का आपसी संबंध कितना गहरा था। विद्वानों ने यह भी अध्ययन किया है कि कैसे इस धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत ने 1900 के दशक की शुरुआत में बर्मी पहचान (Burmese identity) को आकार दिया।

बागान के लिए क्या है आगे?

बागान, जो म्यांमार (बर्मा) में स्थित है, एक बहुत ही पुराना और ऐतिहासिक शहर है। 18वीं शताब्दी की ‘महा यजाविन’ और 19वीं शताब्दी की ‘ह्मानन यजाविन’ नाम की इतिहास की किताबों में बागान का इतिहास दर्ज है।

1900 के दशक की शुरुआत में बर्मी और विदेशी शोधकर्ताओं ने और सटीक जानकारी पाने के लिए नए प्रमाण ढूँढे। इन प्रमुख शोधकर्ताओं में ब्रिटिश विद्वान गॉर्डन लूज और बर्मी विद्वान यू पे मांग टिन शामिल थे। बागान का इलाका भूकंपों के लिए जाना जाता है। यहाँ कई बार तेज भूकंप आए हैं। इनमें भी 1975 और 2016 के भूकंपों ने कई मंदिरों और ऐतिहासिक इमारतों को भारी नुकसान पहुँचाया था।

1990 के दशक में म्यांमार की सैन्य सरकार ने बड़े स्तर पर पुनःनिर्माण (restoration) का काम शुरू किया और लगभग 2,229 मंदिरों और स्मारकों को संरक्षित किया। हालाँकि इस काम की कई पुरातत्वविदों (archaeologists) ने आलोचना की, क्योंकि उन्हें लगा कि यह काम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सही तरीके से नहीं किया गया।

बागान को 2019 में विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) का दर्जा मिला। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह दर्जा म्यांमार सरकार और विशेषज्ञों के बीच सहयोग को बढ़ावा देगा, ताकि बागान के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके।

बागान को अक्सर एक पुरातात्त्विक चमत्कार कहा जाता है, लेकिन यह सिर्फ एक बीता हुआ इतिहास नहीं है, बल्कि यह आज भी एक जीवित धार्मिक स्थल है। यहाँ आज भी पूजा होती है और यह स्थान स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध समुदाय के लिए बेहद पवित्र है।

बागान के संरक्षण में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) ने भी अहम भूमिका निभाई है, जिसने इस सांस्कृतिक धरोहर को सँभालने में म्यांमार की मदद की।

बागान: भारतीय धर्म और संस्कृति का मिश्रण

बागान भारत के प्रभाव का  एक जीवंत उदाहरण है, खासकर उस धर्म का जो भारत में जन्मा और फिर पूरी दुनिया में फैला, जिसमें म्यांमार भी शामिल है। यह भारत और उसकी धार्मिक परंपराओं की गहरी छाप को दर्शाता है। भारत की वह धार्मिक परंपराएँ जो सदियों से दुनिया की संस्कृतियों, परंपराओं, समाजों और सभ्यताओं को प्रभावित करती आई है और इसका प्रमाण आज भी बागान जैसे स्थानों में देखा जा सकता है।

बागान यह भी दिखाता है कि बर्मा (अब म्यांमार) के बर्मी लोग विजेता थे, जिन्होंने दूसरे राज्यों को जीतकर अपना साम्राज्य बनाया। फिर भी उन्होंने स्थानीय विरासत को अपनाया और उसे मिटाने की बजाय उसमें घुल-मिल गए।

उस समय भारत की संस्कृति और एक भारतीय मूल के धर्म का क्षेत्र में पहले से ही प्रभाव था, जिसे बर्मियों ने न केवल स्वीकार किया बल्कि उसका प्रचार भी किया। इतना ही नहीं उन्होंने उस धर्म और संस्कृति को सम्मान देने के लिए भव्य स्मारक और मंदिर भी बनवाए।

इस लेख को मूल रूप से अंग्रेजी में रुक्मा राठौर ने लिखा है। इसे पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। इसका अनुवाद सौम्या सिंह ने किया है।



Source link