sudarshanvahini.com

आज जो छाँटते हैं मीडिया एथिक्स का ‘ज्ञान’, वही थे आपातकाल का ‘गोदी मीडिया’: इंदिरा गाँधी ने झुकने को कहा, वे खुद को बड़ा वफादार साबित करने के लिए लेट गए


इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए देश पर जो आपातकाल थोपा था उसके 50 वर्ष पूरे होने को हैं। इंदिरा गाँधी ने देश में 25 जून 1975 को आपातकाल घोषित किया और ये 21 मार्च 1977 तक चला। यह आजाद भारत का सबसे काला दौर माना जाता है, जब नागरिकों के सभी मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई थी।

सरकार ने सभी संस्थाओं का इस्तेमाल विरोध को दबाने के लिए किया। जो सरकार के खिलाफ बोले, उन्हें गिरफ्तार किया गया, पीटा गया और कई बार बिना सबूत के मार दिया गया। छात्र और युवा विशेष रूप से निशाना बने।

सरकार ने मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लगाई, ताकि जनता तक सही जानकारी न पहुँचे। उस समय रेडियो और टीवी सरकार के नियंत्रण में थे, इसलिए केवल प्रेस ही स्वतंत्र माध्यम था, जिसे दबा दिया गया।

सरकार के साथ सहयोग करने वाले अफसरों और मीडिया के लोगों को इनाम दिए गए, जबकि जनता के दुख-दर्द को नजरअंदाज कर दिया गया। सत्ता के बल पर संविधान और अभिव्यक्ति का स्वतंत्रता को कुचलकर भारतीय लोकतंत्र को खत्म करने का प्रयास किया गया।

प्रिंट मीडिया और आपातकाल

आपातकाल के दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना हर किसी का दायित्व था। पर आधिकांश मीडिया संस्थानों ने सत्ता के सामने घुटने टेकते हुए ‘प्रेस की आजादी’ को गिरवी रख दिया।

शुरुआत में कुछ अखबारों ने आपातकाल विरोध किया। कुछ ने अपने संपादकीय पन्ने खाली छापे। लेकिन सरकारी दबाव में जल्द ही ये विरोध बंद हो गया। मीडिया ने लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रतिबंधों को चुपचाप स्वीकार कर लिया।

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इस स्थिति को एक वाक्य में बयाँ किया, “जब इंदिरा गाँधी ने मीडिया को झुकने को कहा, तो वह रेंगने लगा।”

उस समय अखबारों में सिर्फ सरकार की तारीफ होती थी। इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय गाँधी की शान में कसीदे पढ़े जाते थे। सरकार काढोल पीटते हुए विज्ञापन छापे जा रहे थे।प्रेस की आजादी के लिहाज से यह सबसे बुरे दौर में से एक था।

इंदिरा गाँधी भारत में आपातकाल की घोषणा करती हुई। (फोटो साभार: मिंट)

आपातकाल के दौरान भारत के कई प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों और पत्रकारों ने सरकार का समर्थन किया और प्रेस की स्वतंत्रता छोड़ दी। उद्योगपति कृष्ण कुमार बिड़ला के नेतृत्व में उस समय का मशहूर अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स (HT) ने इंदिरा गाँधी सरकार का साथ दिया।

टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) ने भी सरकारी रुख अपना लिया, क्योंकि इसके निदेशक मंडल का एक-तिहाई हिस्सा सरकार का समर्थन कर रहा था। मीडिया में आलोचना की स्वतंत्रता के लिए जगह खत्म हो गई, राजनीतिक कार्टून रातों-रात गायब हो गए। किसी ने भी प्रधानमंत्री की आलोचना करने की हिम्मत नहीं की। द हिंदू अखबार ने भी अत्यधिक सावधानी बरती और खुले विरोध से परहेज किया।

इसमें द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के संपादक और मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह भी शामिल थे जिन्होंने आपातकाल का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने कहा कि मई 1975 तक देशभर में सरकार के खिलाफ बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, जो कई बार हिंसक हो जाते थे।

उन्होंने बॉम्बे की सड़कों पर नारेबाज करते हुए लोगों को कारों और दुकानों को नुकसान पहुँचाते खुद से देखने की बात भी कही थी। उनके अनुसार, विपक्षी नेता चाहते थे कि देश की स्थिति इस कदर बिगड़ जाए कि इंदिरा गाँधी इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो जाएँ।

बाद में खुशवंत सिंह को इंदिरा गाँधी की सरकार ने राज्यसभा भेजा। 2007 में उन्हें देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण भी दिया गया।

एक आज्ञाकारी प्रेस

आपातकाल के दौरान चुप्पी को कई पत्रकारों, संपादकों और अखबार मालिकों ने जायज ठहराने की भी कोशिश की। टाइम्स ऑफ इंडिया के बोर्ड का कहना था कि वे आपातकाल का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि यह उस समय का कानून था और उसका पालन करना जरूरी था।

इस फैसले के बारे में अखबार के वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने बताया, “हम इसके खिलाफ नहीं बोल सकते, यह तय कर लिया गया था। चूंकि अखबार निजी स्वामित्व में था, इसलिए हमें भी वही रुख अपनाना पड़ा।” उन्होंने यह भी बताया कि कुछ लोगों ने सुझाव दिया था कि अगर हम विरोध नहीं कर सकते, तो कम से कम समर्थन भी न करें और आखिरकार यही अखबार की नीति बन गई।

बाद में इंदर मल्होत्रा ने 1991 में इंदिरा गाँधी के राजनीतिक और निजी जीवन पर एक पुस्तक भी लिखी। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से दिए गए सरकारी विज्ञापन और घोषणाएँ ज्यादातर इंदिरा गाँधी सरकार के नसबंदी अभियान को बढ़ावा देने के लिए थी, जिसकी जिम्मेदारी उनके बेटे संजय गाँधी ने संभाल रखी थी। खबरें इस तरह से लिखी जाती थीं कि वह सरकारी प्रचार अधिक लगता था।

इस स्थिति की व्याख्या करते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि प्रेस पर सेंसरशिप लागू होने के बाद सभी अखबार एक जैसे लगने लगे थे- बेरंग, नीरस और सरकारी घोषणाओं की कॉपी जैसे।

उस समय इंडियन एक्सप्रेस के चेन्नई संस्करण में रिपोर्टर रहे लेखक ज्ञानी शंकरन ने बताया था कि मीडिया के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। सेंसरशिप इतनी सख्त थी कि अगर किसी खबर को मंजूरी नहीं मिलती तो पन्ने खाली छोड़ने पड़ते थे या ‘प्याज का रायता कैसे बनाएँ’ जैसे कामचलाऊ लेख छापने पड़ते थे। सेंसर की अनुमति के बिना राजनीतिक खबर छापना मना था

आपातकाल के दौरान कुछ अखबारों और कई छोटे, स्वतंत्र पत्र-पत्रिकाओं ने सेंसरशिप का विरोध किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने की कोशिश की। मीडिया विश्लेषक इंदु बी सिंह के अनुसार प्रेस को नियंत्रित करने के लिए इंदिरा गाँधी ने तीन मुख्य रणनीति अपनाई,

उनके अनुसार इन रणनीतियों की वजह से अधिकांश मीडिया संस्थान सरकार के सामने झुक गए और स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग खत्म हो गई।

आपातकाल का गुणगान करने का प्रयास

आपातकाल के दौरान कुछ प्रमुख मीडिया प्लेटफॉर्मों ने न केवल सरकार के आदेशों का पालन किया, बल्कि आपातकाल को सकारात्मक रूप देने की कोशिश भी की।

इंडिया टुडे में 15 दिसंबर 1975 को छपे एक लेख के अनुसार, सरकार ने दावा किया कि हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई और तिरुवनंतपुरम जैसे दक्षिणी शहरों में आपातकाल को जनता ने सकारात्मक रूप से स्वीकार किया है। लोगों ने यहाँ तक कहा कि यह कदम 1947 में ही उठा लिया जाना चाहिए था।

रिपोर्ट में बताया गया कि विरोध, हड़ताल और आंदोलनों को दमन किए जाने के बाद एक ‘शांत माहौल’ बना। इसे सरकार ने अपनी उपलब्धि बताया। इस उपलब्धि में गेहूं-चावल की पर्याप्त आपूर्ति, कीमतों पर नियंत्रण और बेहतर सरकारी कामकाज को भी गिनाया गया।

कॉन्ग्रेस के उस समय के मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने कहा कि काम की रफ्तार बढ़ी है और लोग ज्यादा जिम्मेदार हो गए हैं। आंध्र प्रदेश ने कर संग्रह में रिकॉर्ड बनाया। इसके बाद सरकार की वार्षिक योजना को बढ़ाकर 1870 करोड़ रुपए कर दिया गया।

कॉन्ग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने भी आपातकाल को देश के लिए जरूरी बताया था। उन्होंने कहा था कि अगर भारत बचेगा, तभी बाकी सब बचेगा। उद्योगपति कृष्ण कुमार बिड़ला ने कहा था कि अर्थव्यवस्था पहले से बेहतर हुई है, काला धन और तस्करी पर लगाम लगी है और प्रवासी भारतीयों ने भी अपना निवेश बढ़ाया है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि आपातकाल ने छात्रों को शिक्षा की ओर लौटने, कौशल प्रशिक्षण शुरू करने और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने में मदद की। हालाँकि, इंदिरा गाँधी को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए आलोचना भी झेलनी पड़ी। इसके अलावा 20-सूत्रीय योजना के जरिए अर्थव्यवस्था पर सरकारी शिकंजा कसने को लेकर भी किरकिरी हुई। इसे निजी क्षेत्र की स्वतंत्रता का हनन और विकास के लिए बाधा माना गया।

आपातकाल के पीड़ितों को ही दोषी ठहराने की कोशिश

आपातकाल के दौरान इंडिया टुडे ने इंदिरा गाँधी को प्रेस की आजादी की समर्थक बताने की कोशिश की। उनकी रिपोर्ट में कहा गया था कि इंदिरा गाँधी अक्सर कहती थीं कि वे प्रेस को दबाना नहीं चाहती, जबकि असल में प्रेस पर कड़े प्रतिबंध लगे हुए थे और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी आलोचना हो रही थी। लेख में यह भी जोड़ा गया था कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाना एक चुनौती है।

इंडिया टुडे ने भारतीय प्रेस को ‘जीवंत’ के बजाय ‘जंगली’ बताया और आरोप लगाया कि यहाँ बिना सबूत के अफवाहें और अप्रमाणित रिपोर्टें छापी जाती हैं। उन्होंने यह तर्क दिया कि पश्चिमी देशों में सख्त मानहानि कानूनों के कारण ऐसी रिपोर्टिग संभव नहीं होती। लेख में यह भी दावा किया गया था कि आपातकाल के दौरान सेंसरशिप कानूनों को धीरे-धीरे नरम किया जा रहा है ताकि ‘रचनात्मक आलोचना’ को अनुमति दी जा सके।

इंडिया टुडे ने आपातकाल के विरोधियों को ‘शोर मचाने वाला अल्पसंख्यक’ कहा। इसके साथ ही ये सवाल भी उठाया कि क्या लोकतंत्र में बिना हिंसा के अनुशासन, मेहनत और सामाजिक कार्यकुशलता फिजूल है? इसमें बताया गया कि कुछ गैर-कॉन्ग्रेसी राज्य सरकारें जैसे गुजरात और तमिलनाडु ठीक से काम कर रही हैं ताकि ये दिखाया जा सके कि आपातकाल का विरोध बेबुनियाद है।

पत्रिका ने विपक्षी एकता को भी निशाना बनाया और आरोप लगाया था कि किसी वैचारिक लक्ष्य से परे वे सिर्फ इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटाने के लिए एकजुट हुए हैं। कुछ विपक्षी नेताओं को ‘अपमानजनक कार्यों’ में शामिल होने के आरोप में की गई गिरफ्तारी को भी सही बताया गया। यहाँ तक कि स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण के जेल जाते वक्त राष्ट्रीय क्रांति की घोषणा का भी मजाक बनाया गया।

लेख में बेहद असंवेदनशील तरीके से सवाल ठातो हुए लिखा गया था कि ‘आपातकाल कहाँ है? सैनिक कहाँ हैं? बंदूकें कहाँ हैं?’ और दावा किया गया था कि आम लोग अब राहत महसूस कर रहे हैं क्योंकि चीजें सस्ती हुई हैं। लोग अपने परिवार का भरण-पोषण ठीक से कर पा रहे हैं। एक नेता ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पर्यटन बढ़ाने के लिहाज से आपातकाल का प्रचार किया जाना चाहिए। टैगलाइन हो, ‘आपातकाल देखने भारत आएँ।’

इसी तरह, इंडिया टुडे ने न केवल आपातकाल का समर्थन किया बल्कि आलोचकों और पीड़ितों का मजाक भी उड़ाया। साथ ही इंदिरा गाँधी को सहनशील नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की गई। ये तब हो रहा था जब प्रेस की आजादी और लोकतंत्र की मूल भावना को ध्वस्त किया जा रहा था।

इंदिरा गाँधी के प्रति वफादारी

आपातकाल के दौरान कई मीडिया संगठनों ने कॉन्ग्रेस और इंदिरा गाँधी का समर्थन किया। इसके पीछे या तो कोई दबाव था या फिर उनका निजी फायदा शामिल था। इस कड़ी में टाइम्स ग्रुप एक बड़ा उदाहरण है।

टाइम्स ग्रुप को आजादी के बाद रामकृष्ण डालमिया ने ब्रिटिश मालिकों से खरीदा था। लेकिन उन्होंने एक बीमा कंपनी के अध्यक्ष पद का गलत इस्तेमाल किया, जिसकी ओर पंडित नेहरू की सरकार ने ध्यान नहीं दिया। बाद में इंदिरा गाँधी के पति फिरोज गाँधी ने संसद में इस घोटाले को उठाया। इसकी जाँच हुई और डालमिया को दोषी ठहराकर तिहाड़ जेल भेज दिया गया।

इसके बाद नेहरू ने टाइम्स ग्रुप का स्वामित्व डालमिया के दामाद साहू शांति प्रसाद जैन को सौंपी। बाद में शांति प्रसाद जैन को भी सब्सिडी वाले अखबारी कागज को ब्लैक मार्केट में बेचने के आरोप में जेल जाना पड़ा। इसके बाद सरकार ने इस समूह पर खुद नियंत्रण कर लिया।

आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी ने साहू शांति प्रसाद जैन के बेटे अशोक कुमार जैन को टाइम्स ग्रुप वापस दे दिया। यह फैसला इसलिए लिया गया ताकि सरकार को उनके समर्थन की गारंटी मिल सके। अशोक जैन टाइम्स ग्रुप के वर्मान मालिक विनीत जैन और समीर जैन के पिता थे। उन्होंने बाद में सरकार विरोधी पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया।

अशोक जैन पर मनी लॉन्ड्रिंग जैसे मामलों में संलिप्त होने के आरोप लगे। एक मामले में स्विट्ज़रलैंड के एक बैंक खाते में 1.25 मिलियन डॉलर के अवैध ट्रांसफर की जाँच के चलते उन्हें देश छोड़ना पड़ा।

प्रेस की स्वतंत्रता पर इंदिरा का दबाव

आपातकाल के दौरान मीडिया के दमन कई तरीकों के किए जाने की कोशिश हुई। अखबार और पत्रिकाओं को छपने के लिए बिजली की जरूरत होती थी। दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग में मौजूद न्यूजप्रिंट की बिजली आपूर्ति सरकारी नियंत्रण थी। अखबारों को छपने से रोकने के लिए कई बार आपूर्ति को बाधित किया जाता था।

सरकार ने विदेशी मीडिया पर भी सख्ती की। उस समय पर 29 विदेशी पत्रकारों को भारत आने से रोका गया और 7 को देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। भारतीय मीडिया के भी 2 कार्टूनिस्ट, 6 फोटोग्राफरों समेत 54 पत्रकारों की मान्यता रद्द कर दी गई और लगभग 250 पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था।

मीडिया की आर्थिक निर्भरता सरकारी विज्ञापनों पर थी क्योंकि पाठकों से मिलने वाला पैसा अखबार चलाने के लिए काफी नहीं होता था। सरकार ने इसी कमजोरी का फायदा उठाकर मीडिया को नियंत्रित किया। संजय गाँधी के करीबी रहे सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ला ने मीडिया को कड़े नियमों और सेंसरशिप में बाँध दिया।

1976 में लाया गया ‘आपत्तिजनक मामलों के प्रकाशन की रोकथाम अधिनियम’ प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाला कानून बन गया। इसने सरकार को किसी भी लेख या रिपोर्ट को ‘आपत्तिजनक’ बताकर उसे रोकने, प्रेस को बंद करने और सिक्योरिटी डिपॉजिट जब्त करने का अधिकार दे दिया। इसके कारण सरकार की नीतियों की आलोचना और विरोध पूरी तरह दब गए।

दुर्गा दास जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने कहा कि इंदिरा गाँधी कभी भी प्रेस को स्वतंत्र नहीं मानती थी। उनका मानना था कि मीडिया को सरकार का पक्ष रखना चाहिए, न कि जनता की आवाज बनना चाहिए। यह साफ दिखाता है कि इंदिरा गाँधी ने आपातकाल के दौरान ही नहीं, बल्कि शुरुआत से ही प्रेस की आजादी को दबाने की कोशिश की थी।

कॉन्ग्रेस के शासन में मीडिया और प्रेस पर जितना बड़ा हमला आपातकाल के दौरान हुआ, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। उस दौर में कॉन्ग्रेस के समर्थक पत्रकार सबसे ज्यादा झुके हुए और सरकार के प्रति वफादार साबित हुए।

मूल रूप से अंग्रेजी में यह रिपोर्ट रुकमा राठौड़ ने लिखी है। विस्तार से पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें। हिंदी में इसका अनुवाद विवेकानंद मिश्र ने किया है।

Source link

Exit mobile version