भावनगर और सरदार वल्लभभाई पटेल का रिश्ता बहुत पुराना है। सरदार पटेल का महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी से गहरा संबंध था, और इसी कारण आज भी भावनगर के इतिहास में पटेल का नाम सम्मान के साथ दर्ज है। कहा जाता है कि सरदार पटेल की यादें भावनगर से दो ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में जुड़ी हुई हैं। एक स्मृति स्वतंत्रता के बाद देश के बने नक्शे से जुड़ी है। लेकिन एक दूसरी याद भी है जो अब लगभग भुला दी गई है। वह याद अब भावनगर की गलियों में वक्त की धूल में कहीं दब गई है।
यह बात है साल 1939 की। देश तब तक अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद नहीं हुआ था लेकिन उसी समय भावनगर रियासत ने एक ऐतिहासिक घोषणा की थी कि आजादी मिलने के बाद भावनगर भारत में शामिल होने वाली पहली रियासत बनेगी। इस घोषणा के बाद भावनगर में चर्चाओं का माहौल गर्म हो गया। इसी बीच, 14 और 15 मई 1939 को भावनगर में ‘भावनगर स्टेट काउंसिल’ का 5वाँ अधिवेशन आयोजित किया गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता खुद सरदार पटेल ने की थी और महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी ने उन्हें विशेष रूप से भावनगर आने का निमंत्रण भेजा था।
सरदार पटेल ने आमंत्रण स्वीकार किया और 14 मई को भावनगर पहुँचे। रेलवे स्टेशन से उनका स्वागत एक खुले जीप में जुलूस के रूप में किया गया। सड़कों पर भीड़ उमड़ पड़ी थी, लोग ‘सरदार पटेल की जय!’ के नारे लगा रहे थे। इसी बीच, परदे के पीछे एक खतरनाक साजिश रची जा चुकी थी। मुस्लिम लीग ने पहले ही सरदार पटेल की इस यात्रा को निशाना बनाने की योजना बना ली थी। स्थानीय कट्टरपंथी मुस्लिम, मुस्लिम लीग के इशारे पर, शहर की एक मस्जिद में इकट्ठा होकर हमले की तैयारी कर रहे थे। योजना इतनी भयानक थी कि उसमें सरदार पटेल की हत्या तक की साजिश शामिल थी।
सरदार पटेल का आगमन और मुसलमान कट्टरपंथियों का हमला
सरदार वल्लभभाई पटेल रेलवे स्टेशन से खुले जीप में बैठकर लोगों का अभिवादन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जब उनका जुलूस खारगेट चौक पहुँचा, तो नगीना मस्जिद के पास अचानक हंगामा शुरू हो गया। पहले से बनाई गई साजिश के तहत, मस्जिद में बैठे कई इस्लामी कट्टरपंथी हथियार लेकर बाहर निकल आए और सरदार पटेल की जीप की तरफ दौड़ पड़े। उनके हाथों में तलवारें, छुरे, कुल्हाड़ियाँ और तेज धार वाले हथियार थे।
हालाँकि, सरदार पटेल तक हमला पहुँचने से पहले, कानबिवाड़ के एक नौजवान बचुभाई पटेल और लोकभारती के संस्थापक नानाभाई भट्ट ने अपनी जान की परवाह किए बिना सरदार पटेल की जीप पर चढ़कर उनके लिए ढाल बन गए। कट्टरपंथियों के सारे वार इन दोनों युवकों पर पड़े। इसमें बचुभाई पटेल बुरी तरह घायल हो गए और मौके पर ही उनकी मौत हो गई। नानाभाई भट्ट भी घायल हुए लेकिन इलाज के बाद वे बच गए।
घटना की खबर मिलते ही भावनगर की पुलिस तुरंत नगीना मस्जिद पहुँची। सिपाहियों ने भाले और बंदूकों के साथ भीड़ को तितर-बितर कर दिया। अगर उस दिन ये कट्टरपंथी अपनी साजिश में सफल हो जाते, तो आजादी के बाद भारत का इतिहास शायद कुछ और ही होता। इस हमले ने पूरे भावनगर शहर को हिला कर रख दिया। हर जगह डर और सन्नाटा फैल गया। बाद में परिषद की बैठक में सरदार पटेल ने खुद कहा था, “यह कोई अचानक गुस्से में किया गया काम नहीं था बल्कि इसके पीछे पहले से रची गई सोची-समझी साजिश थी।”
पूर्व नियोजित थी साजिश: तत्कालीन पुलिस अधिकारी
इस पूरे मामले में उस समय भावनगर की अदालत में मुकदमा भी दर्ज किया गया था। इसमें कुल 14 लोगों को आरोपी बनाया गया था। जिनमें वरस अली, बिलाल इब्राहिम, अब्दुल सत्तार मूसा, अब्दुल्ला सिद्दी, उस्मान खान मोहम्मद खान, उस्मान नूरमिया, अब्दुल गफूर, अब्दुल कादिर, अलीवद, मूसा अब्दुल, कासम, मोहम्मद सुलेमान, इस्माइल और अलरखान इब्राहिम शामिल थे। 12 जुलाई 1939 को उस समय के अखबार ‘द काठियावाड़ टाइम्स’ ने इस मामले पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी थी। यह रिपोर्ट पुलिस अधिकारी पोपटभाई की गवाही पर आधारित थी, जो उन्होंने अदालत में दी थी।

पोपटभाई ने अपनी गवाही में बताया कि कार्यक्रम से पहले मुस्लिम लीग के कुछ लोगों ने एक अर्जी दी थी कि जुलूस के दौरान कोई बाजा या ढोल नहीं बजाया जाए। बाद में पता चला कि यह अर्जी अब्दुल कादर लाखानी नाम के व्यक्ति ने मुस्लिम लीग के उपाध्यक्ष के कहने पर लिखी थी। पोपटभाई ने इस बात की जानकारी परिषद के सचिव जादवजी मोदी को दी और उनसे कहा कि नगीना मस्जिद के सामने बाजे न बजाए जाएँ।
साथ ही, वहाँ ज्यादा पुलिस बल तैनात करने की भी बात की गई थी। इसके अलावा, पोपटभाई ने एक प्रमुख मुस्लिम नेता से भी बात की थी। उन्होंने आश्वासन दिया था कि मुस्लिम समुदाय की ओर से कोई हंगामा नहीं होगा और वे खुद 14 मई 1939 को सरदार पटेल के स्वागत समारोह में मौजूद रहेंगे।

13 मई की रात करीब साढ़े नौ बजे पुलिस को टेलीफोन से सूचना मिली कि नगीना मस्जिद में डंडे, तलवारें और पत्थर जमा किए गए हैं और वहाँ करीब पाँच सौ मुसलमान इकट्ठा हैं। हालाँकि, पुलिस ने इस सूचना को पुख्ता नहीं माना और मस्जिद पर छापा नहीं मारा। अगली सुबह सरदार पटेल भवनगर पहुँचे। नगीना मस्जिद के सामने सुरक्षा बल तैनात थे।
फिर भी, जब जुलूस वहाँ पहुँचा तो भीड़ में शामिल कुछ इस्लामी कट्टरपंथी भड़क उठे। हालाँकि, वहाँ ढोल या बाजे नहीं बजाए गए थे लेकिन वे गुस्से में हिंदुओं पर टूट पड़े। अचानक “मारो, मारो” की आवाज़ें गूँजने लगीं और भीड़ ने डंडों, तलवारों, छतरियों और चाकुओं से हिंदुओं पर हमला कर दिया।
इधर, पुलिस अधिकारियों ने तुरंत समझदारी दिखाते हुए सरदार पटेल से कहा कि वे दूसरी दिशा से निकल जाएँ। इसी वजह से उनकी जान बच गई। बाद में और पुलिस बल बुलाया गया और स्थिति पर काबू पाया गया। दंगाइयों को गिरफ्तार भी कर लिया गया।
सरदार पटेल ने दी श्रद्धांजलि
21 मई 1939 के ‘गुजरात मित्र’ अखबार में भी इस घटना का ज़िक्र किया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था कि मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमले में एक स्वयंसेवक की मौत हो गई और कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए।
इस हंगामे की वजह से कार्यक्रम बीच में ही रद्द कर दिया गया और सरदार पटेल को सीधे उनके निवास स्थान पर पहुँचा दिया गया। इसके बाद शहर में सुरक्षा कड़ी कर दी गई। जगह-जगह भाले लिए हुए सैनिक और पैदल सेना तैनात की गई। नगीना मस्जिद को चारों तरफ से घेर लिया गया ताकि किसी तरह की गड़बड़ी दोबारा ना हो सके।

जब पुलिस ने मस्जिद की तलाशी ली, तो वहाँ से छिपाए गए हथियार बरामद हुए। इसके बाद शहर भर से कई मुस्लिम कट्टरपंथियों को गिरफ्तार किया गया। इस हमले में घायल हुए लोगों को सिर तख्तसिंहजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। सरदार पटेल खुद अस्पताल पहुँचे और घायल लोगों से मिले। उसी समय महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी, जो गर्मी के कारण महुवा में ठहरे हुए थे, उन्हें भी इस पूरी घटना की जानकारी दी गई।
सरदार पटेल की जान बचाने वाले बचुभाई पटेल की शहादत के सम्मान में पूरे भावनगर में बंद (हड़ताल) रखा गया। शाम को उनका अंतिम यात्रा जुलूस निकाला गया, जिसमें 20,000 से ज्यादा लोग शामिल हुए। सरदार पटेल भी इस जुलूस में मौजूद थे। श्रद्धांजलि देते हुए सरदार पटेल ने कहा, “ऐसी मौत कुछ ही लोगों को नसीब होती है।” मुस्लिम लीग की साजिश के बारे में उन्होंने कहा, “राष्ट्र सेवा के लिए ऐसी गुंडागर्दी से मैं डरने वाला नहीं हूँ।”
यह सचमुच हैरान करने वाली बात थी कि उस समय जैसी प्रगतिशील और उदार रियासत भावनगर मानी जाती थी, वहीं पर सरदार पटेल की हत्या की साजिश रची गई। अगर यह हमला सफल हो जाता, तो भावनगर के नाम के साथ राष्ट्रीय अपमान का कलंक जुड़ जाता और शायद आजाद भारत का इतिहास ही नहीं बल्कि उसका नक्शा भी कुछ और होता।
मुस्लिम लीग की ऐसी कई साजिशें इतिहास से हमेशा मिटा दी गईं। इसी वजह से सरदार पटेल पर हुए इस हमले के बारे में न तो किताबों में पढ़ने को मिलता है, न ही कहीं इसका जिक्र सुनाई देता है। यह घटना धीरे-धीरे इतिहास की धूल में दब गई जबकि इसका असर उस दौर में पूरे देश को हिला देने वाला था।












