अमेरिका का दौहरा रवैया, चीन को छूट भारत पर दोष

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जुलाई 2025 से ही भारत पर दौहरे रवैये का हमला करना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत पर 50% का टैरिफ लगाया, जिसका कारण रूस के साथ भारत का तेल और रक्षा व्यापार बताया। अब, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने इस बात को स्वीकार कर माना कि अमेरिका भारत और चीन के लिए अलग-अलग नियम अपनाता है। उन्होंने वाशिंगटन के इस दोहरे रवैये को सही भी ठहराया है।

ट्रंप ने कहा था कि भारत, रूस से तेल खरीदकर यूक्रेन के खिलाफ ‘रूसी युद्ध मशीन’ को बढ़ावा दे रहा है। लेकिन, चीन भी रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार है। चीन हर दिन लगभग 20 लाख बैरल तेल खरीदता है। फिर भी, अमेरिका ने चीन पर कोई शुल्क नहीं लगाया है। यह अमेरिका के पाखंड को साफ दर्शाता है।

डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को अपने टैरिफ से बाहर रखा हुआ है। इस फैसले पर मार्को रुबियो ने 17 अगस्त 2025 को फॉक्स बिजनेस को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि चीन और भारत दोनों अलग है। चीन रूस से जो तेल खरीदता है उसे रिफाइन करके दूसरे देशों को बेच देता है।

रुबियो ने यह भी बताया कि अगर चीन पर प्रतिबंध लगाया गया तो पूरी दुनिया में तेल की कीमतें बहुत बढ़ जाएँगी। इसके अलावा मार्को रुबियो ने कहा कि चीन जो तेल खरीदकर रिफाइन कर रहा है, उसका बड़ा हिस्सा यूरोप में वापस बेचा जा रहा है। यूरोप अभी भी रूस से गैस खरीद रहा है।” उन्होंने कहा कि यूरोप रूस पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा सकता है।

अमेरिका चीन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाता?

चीन पर कोई सख्त कदम न उठाने के फैसले को रुबियो ने सही बताया। उन्होंने अमेरिका की चुप्पी का बचाव किया। रुबियो ने कहा, “अगर चीन पर प्रतिबंध लगाता हैं तो वह तेल को रिफाइन करके बेच देगा।” जो भी देश यह तेल खरीदेगा उसे ज़्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। अगर तेल नहीं मिलेगा तो उन्हें कोई दूसरा विकल्प देखना होगा। रुबियो साफतौर पर कहना चाहती थी कि चीन पर रोक लगाने से पूरी दुनिया को नुकसान होगा, इसलिए अमेरिका कुछ नहीं कर रहा है।

मार्को रुबियो ने यह भी कहा कि यूरोपीय देश नहीं चाहते कि चीन पर प्रतिबंध लगाया जाए। क्योंकि वे चीन से रूसी तेल खरीदते हैं। रुबियो ने बताया, “जब हमने सीनेट में चीन और भारत पर 100% टैरिफ लगाने की बात की तो कई यूरोपीय देशों ने चिंता जताई।” उन्होंने कहा कि यह चिंता प्रेस में नहीं, बल्कि सीधे बातचीत में सामने आई।

चीन-यूरोप को छूट, भारत को सजा…यही है अमेरिका का दोहरा रवैया

अमेरिका चीन पर कोई प्रतिबंध इसलिए नहीं लगा रहा है क्योंकि यूरोपीय लोग इसके पक्ष में नहीं है। इसके अलावा अमेरिका यूरोपीय देशों को भी सजा नहीं दे रहा है, जो अभी भी रूस से तेल-गैस खरीदते है।

बात बिल्कुल साफ है कि अमेरिका चीन पर टैरिफ लगाकर यूरोप को गुस्सा नहीं दिलाना चाहता और यूरोप पर किसी प्रकार का प्रतीबंध लगाकर यूरोपीय संघ से झंगड़ा नहीं लेना चाहता।

इसलिए चीन-यूरोप आराम से रूसी तेल खरीद-बेच-इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन सिर्फ भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो रूसी तेल खरीदकर ‘रूसी युद्ध मशीन को मदद कर रहा है’ बाकी कोई नहीं।

पहले, डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘डेड इकोनॉमी’ बताया। अब, वही लोग यह कह रहे हैं कि यह ‘डेड इकोनॉमी’ रूस जैसे देश को युद्ध लड़ने के लिए पैसा दे रही है।

ट्रंप और मार्को रुबियो के बाद, व्हाइट हाउस के बिजनेस एडवाइजर पीटर नवारो भी भारत पर आरोप लगा रहे हैं। उनका मानना है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के लिए सिर्फ भारत ज़िम्मेदार है। जबकि उन्होंने चीन-यूरोप और अमेरिका को इस आरोप से दूर रखा है।

पीटर नवारो ने फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख लिखा है। इस लेख में, उन्होंने भारत पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि भारत रूस से कच्चा तेल खरीद रहा है। इस खरीददारी से मिलने वाले पैसों का उपयोग रूस यूक्रेन के खिलाफ युद्ध में कर रहा है। नवारो का मानना है कि भारत को तुरंत यह तेल खरीदना बंद कर देना चाहिए।

बिजनेस एडवाइजर पीटर नवारो ने यह भी कहा है कि अगर भारत चाहता है कि अमेरिका उसे अपना खास दोस्त माने तो उसे रूस-चीन के साथ अपने संबंध कम करने होंगे।

पीटर नवारो ने भारत को यह सिखाने की कोशिश की है कि उसे अमेरिका का अच्छा साथी कैसे बनना चाहिए। लेकिन उन्होंने अमेरिका को यह नहीं बताया कि उसे भारत के साथ बराबर का व्यवहार करने के लिए क्या करना चाहिए।

सबसे पहले, अमेरिका को पाकिस्तान से दूरी बनानी चाहिए। पाकिस्तान एक ऐसा देश है जो भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देता है। अमेरिका को ऐसे देश के साथ दोस्ती करना बंद कर देना चाहिए।

फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख छपा था। इस लेख की एक हेडलाइन थी, “भारत रूस के तेल के लिए एक वैश्विक क्लियरिंग हाउस के रूप में काम करता है।” इसका मतलब है कि भारत रूस से कच्चा तेल खरीदता है, जिस पर पाबंदी लगी हुई है। फिर भारत उस तेल को रिफाइन करके महँगे उत्पादों में बदल देता है और दूसरे देशों को बेचता है। इस तरह, रूस को जरूरी डॉलर मिलते हैं।

लेख की दूसरी हेडलाइन थी, “भारत की तेल लॉबी पुतिन की युद्ध मशीन को पैसा दे रही है-इसे रोकना होगा।” इसका मतलब है कि भारत में जो तेल कंपनियाँ हैं, वे रूस से तेल खरीदकर पुतिन को युद्ध के लिए पैसे दे रही हैं। लेख में यह कहा गया है कि यह तुरंत बंद होना चाहिए।

व्हाइट हाउस के बिजनेस एडवाइजर ने भारत पर एक और आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि भारत की वजह से रूस को ताकत मिल रही है और रूस लगातार यूक्रेन पर हमला कर रहा है, जिसकी कीमत अमेरिका और यूरोप चुका रहे हैं और उन्हें यूक्रेन की मदद के लिए अरबों डॉलर खर्च करने पड़ रहे हैं। यह पैसा आम लोगों के टैक्स से जा रहा है।

पीटर नवारो ने यह भी लिखा कि अब तक 3 लाख से ज़्यादा सैनिक और आम लोग मारे जा चुके हैं। नाटो का ईस्टर्न पार्ट (पूर्वी हिस्सा) अब ज्यादा खतरे में है और पश्चिमी देश भारत द्वारा रिफाइन किए गए रूसी तेल का खर्च उठा रहे हैं। इस तरह उन्होंने फिर से भारत को ही दोषी बताया और बाकी देशों की भूमिका पर कुछ नहीं कहा।

भारत केवल अपनी जरूरतों को पूरा कर रहा

ऐसा लगता है कि वाशिंगटन में समझ की कमी है, जो बातें साफ हैं उन्हें भी अनदेखा किया जा रहा है। चीन की तरह भारत भी रूस से कच्चा तेल खरीदता है। फिर उसे रिफाइन करके पेट्रोलियम उत्पाद बनाता है और यूरोप को बेचता है। 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत ने यूरोप को 15 अरब अमेरिकी डॉलर के पेट्रोलियम उत्पाद बेचे हैं।

भारत को इस संकट से कोई फायदा नहीं हो रहा है। भारत बस यह सुनिश्चित कर रहा है कि इस संकट के बावजूद भी दुनिया में ऊर्जा की कमी न हो। साथ ही वह अपने देश की जरूरतों को भी पूरा कर रहा है।

अगर यूरोप और अमेरिका सच में चाहते हैं कि रूस हार मान ले तो उन्हें खुद सबसे पहले रूसी तेल खरीदना बंद कर देना चाहिए। लेकिन वे ऐसा नहीं करते। वे सीधे रास्ते से नहीं, बल्कि घुमा-फिराकर अब भी रूसी तेल और गैस खरीदते हैं।

एक तरफ वे कहते हैं कि रूस की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना है, दूसरी तरफ वे उसी से कारोबार भी जारी रखते हैं। अमेरिका ने रूस पर कई प्रतिबंध लगाए हैं। इनकी वजह से उसने रूसी कच्चे तेल का आयात जरूर घटाया है। लेकिन रूस से व्यापार पूरी तरह बंद नहीं किया गया।

रूस ने 2022 में यूक्रेन पर हमला किया था और इस युद्ध को तीन साल हो चुके हैं। इसके बावजूद अमेरिका रूस से सामान खरीद रहा है। जनवरी 2022 से अब तक अमेरिका रूस से 24.5 अरब डॉलर से ज़्यादा का सामान मंगा चुका है।

सिर्फ इसी साल (2025 में) अमेरिका ने रूस से 1.27 अरब डॉलर का खाद खरीदा। 62.4 करोड़ डॉलर का यूरेनियम और प्लूटोनियम लिया और लगभग 87.8 करोड़ डॉलर का पैलेडियम भी खरीदा। यानी बातें कुछ और की जाती हैं, लेकिन असली काम कुछ और हो रहा है।

जनवरी से नवंबर 2024 के बीच, अमेरिका ने रूस से बहुत सी चीजें खरीदीं। इनमें पैलेडियम और एल्यूमीनियम जैसी धातुएँ भी थीं, जिनकी कीमत 876.5 मिलियन डॉलर थी। अकार्बनिक रसायनों का आयात 683 मिलियन डॉलर का था।

इसके अलावा, बिजली उत्पादन में काम आने वाली मशीनें भी खरीदी गईं। इनका मूल्य 79 मिलियन डॉलर था। कॉर्क और लकड़ी से बनी चीजों का आयात भी लगभग 64 मिलियन डॉलर का हुआ। कुछ और चीजें भी खरीदी गईं, जैसे परमाणु रिएक्टर, मशीनरी, पशुओं का भोजन, लोहा और स्टील। हालाँकि, इनकी खरीद कम थी लेकिन इन पर भी व्यापार चलता रहा।

अमेरिकी सरकार के आँकड़े बताते हैं कि 2024 में अमेरिका ने रूस को सामान कम बेचा। अमेरिका ने सिर्फ 528.3 मिलियन डॉलर का सामान निर्यात किया। लेकिन रूस से बहुत ज्यादा सामान खरीदा। 2023 में अमेरिका ने रूस को 598.8 मिलियन डॉलर का सामान बेचा था।

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच चाहे जैसे हालात हो, इसके बावजूद रूस और अमेरिका के बीच व्यापार कभी पूरी तरह बंद नहीं हुआ और लगातार चलता रहा।

साल 2024 में यूरोपीय संघ और रूस के बीच भारी व्यापार हुआ। सिर्फ सामानों के लेन-देन का आँकड़ा 67.5 अरब यूरो तक पहुँच गया। इससे पहले 2023 में यूरोपीय संघ और रूस के बीच सेवाओं का व्यापार भी खूब हुआ था। उस समय यह कारोबार करीब 17.2 अरब यूरो का था।

2024 में यूरोप ने रूस से तरलीकृत प्राकृतिक गैस (LNG) की 16.5 मिलियन टन मात्रा में खरीदारी की। यानी युद्ध के बाद भी यह कारोबार घटा नहीं, बल्कि और बढ़ गया। यूरोप और रूस सिर्फ गैस तक सीमित नहीं हैं। वे एक-दूसरे से खाद, खनन उत्पाद, रसायन, लोहा, स्टील, मशीनरी और ट्रांसपोर्ट से जुड़ी चीजें भी खरीदते-बेचते हैं। सीधा मतलब है कि रूस से व्यापार करने में यूरोप को कोई परहेज नहीं है। युद्ध के बीच भी उनका लेन-देन लगातार चलता रहा।

ट्रंप प्रशासन को एक बात समझनी चाहिए। जब भारत की रिफाइनरियाँ रूसी कच्चे तेल को साफ करके उसे पेट्रोलियम उत्पाद में बदल देती हैं तो वह तेल अब यूरोपीय संघ के नियमों के मुताबिक ‘रूसी’ नहीं माना जाता। यानी अगर भारत उसे यूरोप को बेचता है तो वह अब ‘रूसी तेल’ नहीं कहलाता, बल्कि ‘भारतीय उत्पाद’ बन जाता है।

साल 2023 में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से इस मुद्दे पर सवाल पूछा गया था। उन्होंने जवाब में यूरोपीय संघ परिषद के नियम 833/2014 का हवाला दिया था। यह नियम कहता है कि परिष्कृत (refined) तेल अब उस देश का नहीं रह जाता जिससे वह आया था। इसलिए जब भारत रूस से तेल खरीद कर उसे रिफाइन करता है तो उस पर ‘रूसी’ मुहर नहीं लगाई जा सकती।

यूरोपीय विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोरेल ने कहा था कि भारत पर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन जयशंकर ने नियमों से साफ कर दिया कि भारत कुछ भी गलत नहीं कर रहा है।

4 अगस्त 2025 को भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान दिया। यह बयान डोनाल्ड ट्रंप के भारत पर लगाए गए आरोपों के जवाब में था। बयान में कहा गया कि भारत ने रूस से तेल खरीदना तभी शुरू किया जब रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ।

इस युद्ध के कारण जो तेल भारत को मिल रहा था, वह यूरोप की तरफ भेज दिया गया। इससे भारत के लिए तेल की सप्लाई घट गई। ऐसे में, भारत ने अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए रूस से तेल खरीदने का फैसला किया।

भारत ने यह फैसला खुद के फायदे के लिए नहीं, बल्कि वैश्विक ऊर्जा बाजार को स्थिर रखने के लिए किया। भारत ने यह भी बताया कि उस समय अमेरिका ने खुद भारत को ऐसा करने के लिए कहा था। अमेरिका ने भारत को प्रोत्साहित किया था कि वह रूस से सस्ता तेल खरीदे। ताकि दुनिया भर में तेल की कमी और कीमतें बढ़ने से रोकी जा सकें।

यह बात साफ लगती है कि अमेरिका ने अचानक भारत को गलत ठहराना शुरू किया। यह भारत के रूस से तेल खरीदने की वजह से नहीं है। यह ट्रंप के खुद के अहंकार का नतीजा है। ट्रंप चाहते थे कि भारत पाकिस्तान की तरह उनकी बात माने।

मई 2025 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम हुआ तो ट्रंप चाहते थे कि भारत उनकी तारीफ करे। उन्होंने उम्मीद की थी कि भारत उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिलवाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए ट्रंप नाराज होकर भारत के खिलाफ बोलने लगे।

भारत ने ट्रंप की ऐसी किसी बात का समर्थन नहीं किया जो बेबुनियाद हो। यहाँ तक कि ट्रंप जिस ‘व्यापार समझौते’ की बात करते हैं, भारत ने उसमें भी वैसी भूमिका नहीं निभाई। ट्रंप का दावा था कि उन्होंने भारत को पाकिस्तानी आतंकवादियों और सेना के हमले रोकने के लिए मनाया था। भारत ने इस दावे पर भी चुप्पी साधे रखी।

भारत ने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित नहीं किया। भारत ने अमेरिकी डेयरी और कृषि उत्पादों के लिए अपना बाजार भी नहीं खोला। इन सब बातों ने मिलकर ट्रंप को नाराज कर दिया। शायद वह इतने आहत हो गए कि अब अमेरिका भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध का जिम्मेदार ठहराने लगा है।

ऑपइंडिया पहले ही यह बता चुका है कि यूरोपीय संघ ने ट्रंप के दबाव में झुककर अमेरिका से व्यापार समझौता किया था। इस समझौते में यूरोपीय संघ ने अपने ही कई हितों से समझौता कर लिया था। इससे ट्रंप को और बल मिला। उन्हें लगने लगा कि उनकी टैरिफ नीति हर देश पर असर डालेगी। लेकिन भारत ने ट्रंप की यह सोच तोड़ दी। भारत ने ट्रंप की नीतियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया।

यह बात दिलचस्प है कि ट्रंप प्रशासन भारत पर निशाना साध रहा है। वो भारत को यूक्रेन के खिलाफ रूस की मदद करने वाला बता रहा है। लेकिन दूसरी ओर, खुद अमेरिका रूस से व्यापार कर रहा है।

16 अगस्त 2025 को अलास्का में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसका खुलासा किया। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ महीनों में अमेरिका और रूस के बीच व्यापार 20 प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ गया है। इससे ट्रंप के उस दावे की सच्चाई सामने आ गई जिसमें वे कहते हैं कि अमेरिका रूस पर दबाव बना रहा है। दरअसल, अमेरिका खुद रूस से व्यापार बढ़ा रहा है, जबकि भारत पर आरोप लगा रहा है।

शायद डोनाल्ड ट्रंप, मार्को रुबियो, पीटर नवारो या लिंडसे ग्राहम ही ये समझा सकें कि अमेरिका रूस से व्यापार बढ़ाकर कैसे उसकी युद्ध मशीन को मदद नहीं कर रहा। क्या रूस को पैसा तब ही मिलता है जब भारत कुछ बैरल तेल अपनी जरूरत के लिए खरीदता है और यूरोप को बेचता है?

जब अमेरिका खुद रूस के साथ 20 प्रतिशत ज़्यादा व्यापार कर रहा है, तब वह भारत पर कैसे आरोप लगा सकता है? अब वक्त आ गया है कि अमेरिका इस दोहरे रवैये को छोड़े या तो खुद को दंडित करे कि वह भी रूसी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहा है। या फिर भारत को रूसी तेल खरीदने के लिए बार-बार दोषी ठहराना बंद करे।

डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान एक बड़ा दावा किया था। उन्होंने कहा था कि वे राष्ट्रपति बनने के 24 घंटे के अंदर रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म कर देंगे। लेकिन अब आठ महीने बीत चुके हैं। आज तक वे दोनों देशों के बीच एक अस्थायी युद्धविराम भी नहीं करवा सके हैं। अब ट्रंप अपनी नाकामी और झुंझलाहट का गुस्सा भारत पर निकाल रहे हैं। भारत उनके झूठे वादों, सनक या दोहरे मापदंडों का जिम्मेदार नहीं है। भारत को उनके पाखंड का बोझ ढोने की कोई जरूरत नहीं है।



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